'जब पिताजी ने कहा: बेटे, अध्यापक के स्नेह का मूल्य नहीं दिया जा सकता'

कुछ कुछ पल इतने अनमोल होते हैं कि जिंदगी भर याद रहते हैं, जैसे कि एक स्कूल के प्रिंसिपल ने गाँव के मेले में जाते समय एक छोटे बच्चे के प्रति उदारता दिखायी। आप भी अपने स्कूल या कॉलेज के दिनों के ऐसे अनुभव साझा कर सकते हैं।

Ramji MishraRamji Mishra   4 Feb 2023 1:36 PM GMT

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जब पिताजी ने कहा: बेटे, अध्यापक के स्नेह का मूल्य नहीं दिया जा सकता

चैत का मेला लगा था। जिस गाँव में मेला लगा था वह मेरे गाँव ब्रम्हावली से तीन किलोमीटर दूर था। मैं अपने गाँव के एक छोटे से विद्यालय में पढ़ रहा था। उस दिन सुबह से ही तेज धूप निकली थी और हवा भी तेज थी। मेरे गाँव के स्कूल में आसपास बाउंड्री नहीं थी। स्कूल की कक्षाएं टीन के नीचे हुआ करती थीं। मैं जिस स्कूल में पढ़ता था वहाँ स्कूल के पास से निकली सड़क दूर तक दिखाई देती थी।

मेला देखकर लौट रहे लोग जब उस सड़क से गुजरते तो कोई वहां से खरीद कर लायी गई बासुरी बजाते निकलता तो कोई डमरु बजाते। तरह तरह के खिलौने और उनकी आवाजें बार-बार कक्षा से ध्यान हटा देती थीं। मैं कक्षा में पढ़ रहा था उसी दौरान मेरे घर के सभी सदस्य मुझे मेला जाते दिखाई दिए। मैं छुट्टी होने का इंतजार करने लगा। स्कूल में अभी आधा समय ही हुआ था। काफी देर बाद छुट्टी हुई। मैं उस समय कक्षा दो में पढ़ता था। स्कूल पढ़ाने आने वाले अध्यापक मुश्किल से दो तीन सौ रुपए महीना का पाते होंगे।

छुट्टी के बाद मैं सीधे उस सड़क पर दौड़ पड़ा जो सीधे मेले के लिए गई थी। मैंने सोच लिया था कि घर के लोग मेले में मिल जाएंगे और मैं खूब मजे करूँगा। दोपहर के बारह बज रहे थे। ये अवकाश का समय होता था। धूप बहुत तेज हो चुकी थी। हवा के झोंके मुझे तेजी से आगे बढ़ने से रोंक रहे थे। पीठ पर लदा बैग बहुत देर तक भागने नहीं दे रहा था। मैं रुक रुक कर भाग रहा था। थोड़ी ही देर में मुझे प्यास लगने लगी।

अभी मेला पहुंचने के लिए मैंने आधी दूरी भी तय नहीं की थी लेकिन प्यास के मारे मेरा दम सा निकलने लगा। मैंने हिम्मत बांधी और फैसला किया कि यहां से घर लौटने के बजाय मेले में पहले सरकारी नल पर पहुंच कर पानी पियूंगा। मेले में आते जाते इक्का दुक्का बैलगाड़ी दिखाई पड़ रही थी। बाकी साइकिल पर आइस्क्रीम की पेटी बांधे कुछ विक्रेता निकल रहे थे। मेरे पास पैसे नहीं थे।


मैं मेला जैसे तैसे पहुंचा तो पहले नल की तरफ जा भागा। पूरे मेले में वह एक मात्र नल हुआ करता था। मैं नल के पास पहुंच तो गया लेकिन मुझे नल दिखाई तक नहीं पड़ रहा था। वहां पानी लेने वालों की भारी भीड़ थी। मैं प्यास से बहुत व्याकुल हो चुका था। आखिर में वहां से हताश मैं वापस लौट पड़ा। मेरे बस में यह नहीं था कि मैं घर वापस लौट सकूं। मेले के शोर शराबे में थोड़ी दूर चला उसके बाद फिर प्यास की वजह से नल की तरफ भाग खड़ा हुआ।

मैंने कई लोगों से जो नल पर थे पानी की बात कही लेकिन शोर की वजह से और पानी के लिए हर किसी की जल्द बाजी के चलते मेरी धीमी होती आवाज को किसी ने ध्यान नहीं दिया। मैं काफी देर बाद फिर लौटा। मुझे लगा कि अब मैं गिरने वाला हूं तब तक मुझे मेरे स्कूल के प्रधानाचार्य कौशल किशोर यादव और सहायक अध्यापक ध्यानपाल सिंह चौहान दिखाई दिए। दोनों में से एक के हाँथ में साइकिल भी थी। वह मेरी तरफ बढ़ कर आए और बोले मेला देख रहे हो। स्कूल के अध्यापक इतना स्नेह देते थे कि उनसे छिपने के बजाय हम अपनी समस्या उन अध्यापकों से खुलकर कहते थे। मैंने उनसे बताया कि मुझे तेज प्यास लगी है।

प्रधानाध्यापक कौशल किशोर गंभीर हो उठे बोले मेले में अकेले आए हो। मैंने जवाब दिया हाँ। उन्होने फौरन एक चाट की दुकान पर ले जाकर पहले एक खस्ता खाने के लिए मंगाया। वह जानते थे कि उनका शिष्य भूख और प्यास से परेशान है। पीठ पर स्कूल का बैग यह बताने के लिए काफी था कि मैं बिना घर पहुंचे सीधे मेले में आया हूं। मैंने खस्ता लिया और अध्यापक से फिर पानी की मांग की। मुझे देखकर उन्होने बड़ी करुणा और दुलार के साथ चाट वाले की टंकी से पानी भरकर पिलाया। इसके बाद उस खस्ते जैसा स्वाद आज तक मुझे कहीं नहीं मिला। मुझे नया जीवन दान मिला था।

इसके बाद ध्यानपाल चौहान से कहकर उन्होने मेरे लिए खिलौने खरीदने के लिए कहा। मैंने बहुत मना किया फिर भी वह ढेर सारे खिलौने लेकर आए। प्रधानाचार्य ने पूंछ लिया कि और कुछ घूमना या खरीदना है? मैंने जवाब दिया नहीं। उन्होने मुझे साइकिल पर बैठाया और मेले से सीधे मेरे घर लेकर आए। मेरे घर के लोग परेशान होना शुरू हो चुके थे। मुझे देखकर वह सब बहुत खुस हुए। अध्यापकों ने मुझे साइकिल से उतारा और उस दिन बिना संवाद किए वह वापस लौट गए जैसे कुछ हुआ ही ना हो। घर के जो सदस्य मेले गए थे वह सब घर काफी पहले ही लौट आए थे वह मेरी छुट्टी के समय के अनुसार पहले ही वापस लौट आए थे।

मेरे पापा जब ऑफिस से लौटे तो मैंने उन्हे घटना बताते हुए वो खिलौने दिखाते हुए अध्यापक के पैसे लौटाने के लिए कहा। मेरे पापा ने मुझे समझाया बेटे ये खिलौने नहीं हैं बल्कि ये वह स्नेह है जिसकी कीमत लगाने की औकात किसी भी अमीर से अमीर व्यक्ति की नहीं होगी। बेटा इनका मूल्य कभी अदा नहीं किया जा सकता। मुझे मेरे बचपन के वह दोनों अध्यापक अच्छी तरह से याद आते हैं जिन्हे मैं कभी भूल नहीं पाया। गाँव का वह स्कूल कक्षा पांच तक ही था इसके बाद वह आदर्श अध्यापक और बहुत से साथी बिछड़ गए। बावजूद इसके वह कभी मेरे हृदय से दूर नहीं हुए।

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