क्या आपने कभी सोचा कि आवारा पशुओं का ख़्याल कौन रखता होगा?

Divendra Singh | Jul 02, 2024, 09:19 IST
किसी ज़रूरतमंद दोस्त की मदद करने की तरह, आवारा जानवरों को भोजन और सुरक्षित जगह देना उनके लिए सबसे बड़ा वरदान है। लखनऊ की शिल्पी चौधरी ऐसे ही लोगों में से हैं जो बेज़ुबान जीवों की आवाज़ बन कर न सिर्फ उनकी तक़लीफ़ समझती हैं बल्कि उसको दूर भी करती हैं। गाँव कनेक्शन पर वे बता रही हैं कैसे शुरु हुई उनकी ये मुहिम और क्या है आगे की योजना।
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आप अपनी यात्रा के बारे में बताइए आप कैसे इस क्षेत्र में आईं?

वैसे तो मैं बहुत समय से सामाजिक गतिविधियों में थी, लेकिन गंभीरता से मेरा यह सफर शुरू हुआ 2012 में, जब मेरे पति का ट्रांसफर फ़ैजाबाद हुआ; जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो पहले मुझे लगा कि समय कैसे काटूँ, क्योंकि बहुत छोटा सा शहर था और मैं लखनऊ से थी। फिर धीरे-धीरे वहाँ पर मैंने इनर व्हील संस्था ज्वाइन की, जो रोटरी की फीमेल विंग है; मुझे था कि कुछ करना है, कुछ बदलाव लाना है, जरूरतमंदों के काम आना है, तो उस दौरान बहुत सारी चीजें सामने आईं। जीवों के लिए काम शुरू करने से पहले मैंने महिलाओं के लिए काम शुरू किया।

जेल के अधिकारियों ने हम लोगों को अप्रोच किया और उन्होंने हमसे कहा कि देखिए हमारे यहाँ फीमेल बैरक में बहुत समस्या है, मैंने उनसे पूछा कि किस तरह की समस्या? तो उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ महिलाएँ बहुत डिप्रेशन में हैं और हम चाहते हैं कि आप कुछ महिलाएँ आए और उनसे बातचीत करें, उनके बीच अपना समय व्यतीत करें ताकि उनका जो स्ट्रेस लेवल है वो कम हो; मैं जब वहाँ पर गई तो बहुत गंदा मतलब जिसको कहेंगे बदबू आ रही थी; जेल का फीमेल बैरक का दरवाजा खोलते ही एकदम बदबू का झोंका आया और सिर में दर्द होने लगा।

जेल के अंदर महिलाओं की समस्या क्या थी?

एक आंगनवाड़ी की शिक्षिका थी, अनामिका जी। उनसे मैंने बात की; मैंने पूछा यहाँ समस्याएँ क्या हैं, आप मुझे ये बताइए, क्योंकि जब समस्याएँ पता चलेंगी, तब हम कुछ काम कर पाएँगे। तो उन्होंने हमसे कहा कि मैम सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनका समय नहीं कटता। देखा जाए तो समाज में महिलाएँ परिवार चलाने के लिए मेंटली डिजाइंड हैं; हमको अर्निंग के लिए डिजाइन नहीं किया जाता। हमारा सामाजिक परिवेश है, उसमें यह है कि पुरुष कमा के लाएगा और हमें घर चलाना है, लेकिन जेल में क्या होता है कि जब जेल में कोई महिला बंद कर दी जाती है, तो एक तो वो अपने परिवार से कट जाती है, घरों में तो उनको खाना बनाना है, खिलाना है, बच्चों को बड़ा करना है।

आपने कैसे इस समस्या क्या समाधान निकला?

वहाँ पर मुझे एक चीज ये लगी कि महिलाओं को किसी तरीके से व्यस्त रखना है, बिजी रखना है; तब मैंने उन महिलाओं को प्रशिक्षण दिया। हालाँकि यह टाइम टू टाइम अलग-अलग जेल्स में होता हैं, लेकिन मैंने वहाँ पर फुल टाइम उनके लिए ब्यूटीशियन का कोर्स, सिलाई का प्रशिक्षण और उनको मैंने सिलाई मशीनें दिलवाई।

उसी बीच होली आई और पता चला कि जेल में लड़ाई होने लगी कैदियों में आपस में। तो मैंने अनामिका जी से पूछा, तो उन्होंने कहा कि देखिए जैसे होता है भारतीय घरों में कि होली के समय बहुत काम होता है, और वहाँ पर उस समय में वो महिलाएँ बहुत डिस्टर्ब हो जाती हैं कि त्यौहार है, अब मेरे पास कोई काम नहीं है, घर में त्यौहार लोग कैसे मनाएंगे, मना रहे होंगे, हम नहीं मना पा रहे हैं। तो मुझे लगा कि जो ऑक्युपेंसी है वो इनको देनी चाहिए। मैंने उनको करीब 12 से 15 किलो रॉ मटेरियल दिया गुझिया बनाने के लिए। मैंने खोया, मैदा, शक्कर सब दिया और उनसे कहा कि आप बनाइए। इसको आप बनाइए और बना कर के आधा आप रखिए और आधा मुझे दे दीजिए। तो उस आधे को मैंने कुष्ठ आश्रम में दे दिया। उसके साथ जब वो महिलाएँ वहाँ पर उसमें मग्न हुईं तो उनको यह लगा कि ये जैसे हमारे घर का माहौल एक बार रिक्रिएट हो गया।

उस समय करीब 82 महिलाएँ थीं फीमेल बैरक में। वो 82 मुझे होली के दिन फोन कर के मुझसे कहती हैं कि आप आइए, हम इंतजार कर रहे हैं, आपके साथ रंग खेलना है; तो वो एक बड़ा अच्छा अनुभव था, अधिकारियों के लिए भी, हम लोगों के लिए भी। धीरे-धीरे इस तरीके से फिर जैसे सर्दियाँ आईं तो मैंने उनको स्वेटर बुनने का काम दिलाया। इस तरीके से छोटी-छोटी चीजों से हमने जब बड़े बदलाव किए तो वहां से मेरी जर्नी स्टार्ट हुई।

ये तो हुई फैज़ाबाद की बात लेकिन लखनऊ में आप जीवाश्रय के साथ कैसे जुड़ीं? क्या आपको शुरू से जीवों से लगाव था?

असल में मेरे पिता डॉक्टर थे और बचपन से ही उन्हें जानवरों से बड़ा लगाव था तो शायद ये मेरे अंदर वहीं से आया। जानवरों से बहुत लगाव था। मैं जब अपने कॉलेज टाइम, लखनऊ यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट थी तो मैं बहुत सारे जानवर देखती थी कि सड़क पर घायल हैं या बीमार दिखते थे। किसी का ट्यूमर दिखता था और हमेशा मेरे अंदर यह बात रहती थी कि इनको मैं कैसे मदद पहुंचाऊं। लेकिन कोई भी संस्था ऐसी नहीं थी। एक आईवीआरआई पर एक सरकारी अस्पताल था और वहाँ तक किसी आवारा पशु को या सड़क के पशु को ले जाना बहुत आसान नहीं होता था। हम अपने पालतु को तो ले जाते थे। 2013 में, मुझे अमित सहगल जी दिखे फेसबुक पर और वहीं से कान्हा गौशाला के बारे में पता चला। वहाँ से मैं जीवाश्रय से जुड़ गई; तो उस समय मैं फैजाबाद के सारे केसेस जीव आश्रय, लखनऊ को भेजती थी। कभी किसी गाय को टक्कर लग गई हाईवे पर, बहुत सारी गाय भेजी, हमने बहुत सारे कुत्ते भेजे। क्रुएलिटी के केसेस होते थे, वो भेजे, तो संबंध बहुत पुराना है।

अभी आपकी संस्था कैसे क्या-क्या कर रही है?

अभी देखिए हमारे पास एक गौशाला है, जोकि हमारी खुद की ज़मीन पर है और वहाँ हम उन गौवंश को रखते हैं, जिनको लोग छोड़ देते हैं; जिनको लगता है कि ये बीमार हैं या ये दूध नहीं देते हैं। उस सेवा के भाव से हम लोगों ने वो गौशाला एस्टेब्लिश कर रखी है और वहाँ सेवा के बाद हमको नतीजे ये मिले कि वो गाय अच्छी हो गई, स्वस्थ हो गई; कुछ जो गाभिन थीं उनके बच्चे वहाँ हुए।

लोगों के सहयोग से हम एक गौ शाला और दो अस्पताल चला रहे हैं। आप समझिये हमारे पास जौनपुर, प्रतापगढ़, बनारस, बहुत जगह से केसेस आते हैं, तो वहाँ पर हम पशुओं को रखते हैं। अभी हमारे पास बतख भी हैं, मुर्गे भी हैं, एक मोर भी घायल आया था अभी कैंट से, वो भी है। कुत्ते तो तकरीबन पचास हैं, जिसमें से कुछ ब्लाइंड भी हैं, पैरालाइज भी हैं और कुछ बीमार हैं। डे टू डे जो एडमिट होते हैं, वो रिलीज भी होते रहते हैं।

कोविड के टाइम में भी जब सब कुछ बंद था, तब भी आप लोग जानवरों के लिए राशन बांटते थे?

जी, इसमें मैं अपने एक साथी को याद करूंगी, यतींद्र को। यतींद्र आज हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन जब यह कोविड का लॉकडाउन, कंप्लीट लॉकडाउन लगा 2020 में, तो मैंने पहले तो अमित जी से कहा कि इन जानवरों का चूंकि मार्केट बंद हो गए थे, तो कुछ खाने पीने की व्यवस्था हम लोग करें, तो हम लोगों ने अपने-अपने स्तर पर करना शुरू किया।

दिन में एक बार जब खाना देने हम लोग शाम को निकलते थे, तो उस दौरान मैंने देखा कि गौवंश जो है वो पूरा झुंड बना कर भूखी भटक रही थी और गाय बड़ी परेशान, एकदम बेचैन सी, क्योंकि मार्केट बंद थे, मंडियाँ बंद थीं, सब कुछ बंद था। मैंने फिर यतींद्र जी से बात की, मैंने कहा देखिए हम लोग कुत्तों को तो खिला ले रहे हैं, लेकिन ये गौवंश को कोई खिलाने वाला नहीं और यह बहुत भूखे हैं। उन्होंने फिर सीवीओ साहब हैं, ए के राव साहब, सर से उन्होंने बात की। एके राव सर का मेरे पास फोन आया और उन्होंने कहा कि अच्छा, आप मुझे बताइए कि क्या चाहती हैं आप? मैंने कहा सर गौवंश की कुछ व्यवस्था कर दीजिए, बाकी तो हम लोग कर रहे हैं।

शिल्पी चौधरी ने गाँव पॉडकास्ट में पशु क्रूरता, पशु संवेदनशीलता और पशु कल्याण से संबंधित कई पहलुओं पर अपने विचार साझा किए।

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