कश्मीर घाटी में आज भी लाइफ लाइन से कम नहीं हैं दाई माँ
Tauseef Ahmed | Oct 09, 2023, 13:49 IST
पारंपरिक तौर पर दाई का काम करने वाली तजुर्बेकार महिलाएँ अभी भी घाटी के दूर-दराज के गाँवों में अपने इस काम को बखूबी कर रही हैं। उनमें से कई काफी बुज़ुर्ग और समझदार हैं। घर पर बच्चों को जन्म दिलाने का उनका सालों का अनुभव उन्हें इन इलाकों की लाइफ लाइन बनाए हुए है।
जम्मू-कश्मीर- बांदीपोरा के चंदाजी गाँव की 28 साल की नसरीना बेगम के लिए जूना बेगम किसी मसीहा से कम नहीं हैं।
“जिस अस्पताल में मैं अपनी नियमित जाँच के लिए गई थी, उन्होंने मेरी डिलीवरी की तारीख 7 अगस्त दी थी। डॉक्टरों के मुताबिक सिजेरियन डिलीवरी होनी थी। लेकिन 2 अगस्त को मुझे दर्द शुरू हो गया और जूना ने ही मेरे बेटे को घर पर जन्म देने में मेरी मदद की। मेरी सामान्य डिलीवरी हुई।'' नसरीना बेगम ने गाँव कनेक्शन से कहा।
नसरीना ने जूना बेगम का आभार व्यक्त करते हुए गाँव कनेक्शन को बताया कि उनका बच्चा अब लगभग दो महीने का है। वह सेहतमंद है और तेज़ी से बड़ा हो रहा है।
बांदीपुरा के केटसन गाँव की 78 साल की दाई जूना बेगम अपने गुज्जर समुदाय के बाकी लोगों के साथ एक जगह से दूसरी जगह की तलाश में सफ़र करती रहती हैं। दरअसल ये समुदाय चूल्हे में जलाने वाली लकड़ियों के साथ-साथ अपने पशुओं के लिए हरे-भरे चरागाहों की तलाश में कश्मीर के ऊपरी इलाकों की ओर पलायन करते हैं। उनकी खानाबदोश जीवन शैली के चलते उनके लिए बेहतर स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच मुश्किल हो जाती है, और यह उन महिलाओं के लिए और भी मुश्किल भरा होता है जो गर्भवती हैं।
दाई जूना बेगम अपने गुज्जर समुदाय के बाकी लोगों के साथ एक जगह से दूसरी जगह की तलाश में सफ़र करती रहती हैं।
जूना ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरे समुदाय के लोग लगातार आगे जाते रहते हैं। मैंने अक्सर हरे चरागाहों में बच्चों को जन्म दिलवाने में मदद की है। अगर मैं किसी की जान बचा सकती हूँ, तो मेरे लिए इससे ज़्यादा बेहतर कुछ नहीं है। मैं अपनी आखिरी साँस तक अपने लोगों की मदद करती रहूँगी।''
केटसन गाँव के अल्ताफ खान के चार बच्चों और उनके दो पोते-पोतियों का जन्म जूना दाई की मदद से ही हुआ था। 49 साल के खान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “वह हमारी मदद के लिए हमेशा मौजूद रहती हैं। जब हमारी औरतें बीमार पड़ जाती हैं या बच्चे को जन्म देने के करीब होती हैं, तो हम मदद के लिए जूना और पड़ोस की अन्य महिलाओं को बुलाते हैं।''
भारत के अन्य हिस्सों की तरह जम्मू-कश्मीर की कश्मीर घाटी में भी घर पर बच्चों को जन्म देने में दाइयों की मदद लेने की परंपरा है। लेकिन, इन पारँपरिक दाइयों को स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली से बाहर कर दिया गया है क्योंकि सारा ध्यान संस्थागत प्रसव की ओर मुड़ गया है, जिसकी वजह से मातृ और शिशु मृत्यु दर को कम करने में मदद मिली है।
दो या तीन पीढ़ियों पहले महिलाएँ घर पर ही बच्चे को जन्म देती थीं और पूरी प्रक्रिया के दौरान जूना जैसी दाइयां उनकी मदद करती थीं। डॉक्टर और नर्सें मौजूद नहीं थे, या दूर के अस्पताल में उपलब्ध होते थे। लोग दाइयों पर भरोसा करते थे। उनका औजार उनके कुशल हाथ, एक ब्लेड और सरसों का तेल होता था।
कश्मीर के दूर-दराज के गाँवों में पारंपरिक दाइयों की अभी भी काफी पूछ होती है। क्योंकि सर्दियों के मौसम में भारी बर्फबारी के दौरान घाटी के कई गाँव राज्य के बाकी हिस्सों से कट जाते हैं। ऐसे में दाइयाँ ही अपने तजुर्बे से बच्चे को पैदा करवाने में मदद करती हैं। इनमें से कई दाइयाँ तो काफी उम्र -दराज़ और समझदार हैं। बच्चों को जन्म दिलाने में मदद करने के उनके कई साल के अनुभव ने उन्हें इन इलाकों की लाइफ लाइन बना दिया है।
कश्मीर के दूर-दराज के गाँवों में पारंपरिक दाइयों की अभी भी काफी पूछ होती है।
सुंदरी दाई श्रीनगर से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांदीपोरा में वुलर झील के उत्तरी किनारे पर अष्टांगू में रहती हैं। उन्हें याद नहीं है कि जब उन्होंने दाई का काम शुरू किया था तब उनकी उम्र कितनी थी। वह कहती हैं, लेकिन मुझे इतना तो यकीन है कि कम से कम 50 सालों से मैं इस काम को कर रही हूँ।
ताजा बेगम की उम्र लगभग 83 साल की है। उन्हें याद है कि उन्होंने बच्चों को जन्म दिलवाने का काम अपनी माँ से सीखा था। वह कुपवाड़ा जिले के लंगेट गाँव में एक दाई थीं।
ताजा ने कहा, "मैंने अब ये काम छोड़ दिया है। क्योंकि मेरे गाँव और आसपास की महिलाएँ प्रसव पीड़ा को कम करने के लिए सिजेरियन डिलीवरी करवाना ज़्यादा पसंद करती हैं।" अपने पुराने दिनों को याद करते हुए दाई ने कहा कि उन्होंने कई प्रसवों में मदद की है। और इस काम से मिलने वाले पैसे से ही मेरा घर का खर्च चला करता था।
ताजा ने बताया, “मुझे सफल सामान्य प्रसव के लिए तकरीबन पाँच सौ रुपये मिला करते थे। मैं आस-पास के गाँवों में भी जाया करती थी। क्योंकि वहाँ दूर-दूर तक स्वास्थ्य सुविधाएँ मौजूद नहीं थी। मैंने ऐसे इलाकों में गर्भवती महिलाओं को उनके बच्चों को जन्म देने में मदद की है।”
लेकिन जूना बेगम जैसी दाइयाँ भी हैं जो प्रसव के लिए पैसे नहीं लेतीं। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं आमतौर पर बच्चों को जन्म दिलाने में मदद करने के पैसे नहीं लेती हूँ। लेकिन लोग मुझे कुछ रुपये या ऐसी कोई चीज़ दे देते हैं, जिसे मैं मना नहीं कर पाती। मैं तो बस भगवान की आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे मदद करने लायक बनाया। भगवान मुझे इस काम के लिए स्वर्ग में इनाम देंगे।''
लेकिन जैसे-जैसे क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ है, लोगों ने दाइयों के पास जाना कम कर दिया है। ऐसा लगता है कि जैसे युवा महिलाओं को सफल प्रसव कराने में मदद करने के लिए पीढ़ियों से हासिल किया गया ज्ञान उन दाइयों के साथ ही चला जाएगा, जो अपने जीवन की शाम में हैं।
यूएनएफपीए, डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन), इंटरनेशनल कन्फेडरेशन ऑफ मिडवाइव्स (आईसीएम) और भागीदारों की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स मिडवाइफरी 2021’ में दाइयों के महत्व को दर्ज किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया 9 लाख दाइयों की कमी से जूझ रही है। अगर दाई के काम को समर्थन दिया जाए, मान्यता दी जाए और प्राथमिकता दी जाए तो 2035 तक 43 लाख मातृ और नवजात शिशुओं की मृत्यु को रोका जा सकता है।
बांदीपोरा के डोबुन गाँव की एक छोटी दाई खतीजा बेगम को अपने काम पर गर्व है। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, "मैं कोई पेशेवर स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं हूँ, लेकिन अपने 15 सालों के अनुभव के साथ मैंने कई युवा महिलाओं को बच्चे को जन्म देने में मदद की है। मैंने स्थानीय आशा कार्यकर्ता से सुरक्षित प्रसव के बारे में भी बहुत कुछ सीखा है।" खतीजा इस बात से खुश हैं कि घाटी में स्वास्थ्य सुविधाओं में काफी सुधार हुआ है। 59 वर्षीय दाई ने कहा, "मैं 15 साल से दाई का काम कर रही हूँ और यह ज़्यादा साल पहले की बात नहीं है जब महिलाओं को अस्पताल तक पहुँचने के लिए गाड़ी किराए पर लेने के लिए अपने गाँव से मुख्य सड़क तक लगभग आठ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था।"
डोबुन गाँव की एक छोटी दाई खतीजा बेगम को अपने काम पर गर्व है।
उन्होंने आगे कहा, “लेकिन अब, स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता और बेहतर सुविधाओं और पहुँच दोनों के कारण गर्भवती माताएंँ अपने प्रसव के लिए अस्पतालों में जाना पसँद कर रही हैं''
बांदीपोरा के केटसन गाँव में स्वास्थ्य उप केंद्र में स्त्री रोग विशेषज्ञ शमीमा बेगम ने कहा कि इस साल जनवरी से अगस्त के बीच पारँपरिक दाइयों की सहायता से 21 सफल प्रसव हुए हैं।
स्त्री रोग विशेषज्ञ ने कहा, "कई महिलाएँ जिन्होंने अपनी दाइयों की मदद से बच्चे को जन्म दिया है, उपकेंद्र में आती हैं। वे और उनके बच्चे सेहतमंद हैं।"
लेकिन सभी दाइयों के पास साझा करने के लिए सुखद कहानियाँ नहीं होतीं। कई बार जटिलताओं के चलते परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं।
सुंदरी बेगम अपनी उम्र के 107वें पड़ाव पर हैं। उनके पास कभी न भूलने वाले कई ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने उनके जीवन पर गहरे निशान छोड़े हैं। उन्होंने कुछ दुख के साथ कहा कि 1990 में आधी रात को उनके दरवाजे पर हुई दस्तक को वह कभी नहीं भूल सकती हैं।
उन्होंने कहा, "वहाँ कर्फ्यू था और मेरा पड़ोसी दरवाजे पर था और मुझसे अपनी बेटी की मदद करने की भीख माँग रहा था। वह प्रसव पीड़ा से छटपटा रही थी।" मामला जटिल होता जा रहा था। बेगम ने अपने पड़ोसी से अपनी बेटी को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए कहा। सुंदरी बेगम ने गाँव कनेक्शन को बताया, “लेकिन इलाके की घेराबंदी हो रखी थी और बच्चे को बचाया नहीं जा सका। उसके बाद लड़की को कोई और बच्चा नहीं हुआ।''
सुंदरी बेगम अपनी उम्र के 107वें पड़ाव पर हैं। कई दूसरी दाइयों की तरह सुंदरी बेगम ने भी किसी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज से कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया है।
उन्होंने आगे कहा, “तब मुझे अहसास हुआ था कि अगर मेरे पास जटिल गर्भधारण से निपटने के लिए उचित औजार या किसी प्रकार का प्रशिक्षण होता, तो शायद मैं बच्चे को बचा लेती। उसके बाद से भले ही जटिलता का थोड़ा सा भी संकेत हो, मैं बच्चे को जन्म देने की कोशिश किए बिना और मामलों में देरी किए बिना माँ को अस्पताल ले जाने की सलाह देती हूँ। ''
कई दूसरी दाइयों की तरह सुंदरी बेगम ने भी किसी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज से कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया है, लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें दाई बना दिया है। उन्होंने कहा, “इतने सालों के मेरे अनुभव ने मुझे गर्भावस्था संबंधी मामलों को आत्मविश्वास के साथ संभालने में सक्षम बनाया है। मैंने गर्भवती माताओं को इंट्रावेनस इंजेक्शन देना भी सीखा है।”
पुराने समय को याद करते हुए सुंदरी बेगम ने कहा कि पहले महिलाओं में दर्द सहने की सीमा काफी ज़्यादा थी। उन्होंने कहा, "इन दिनों महिलाओं को उनके बच्चे के जन्म से कई महीने पहले बिस्तर पर आराम करने की सलाह दी जाती है।" पुराने समय में महिलाएँ लगभग अंतिम दिन तक काम करती रहती थीं। दाई ने याद करते हुए कहा, "वे अपने खेतों में काम करती थी, फसल आदि काटने में लगी रहती थी।"
बांदीपोरा के जिला अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक मुश्ताक अहमद के अनुसार, सामान्य प्रसव से बच्चे को जन्म देने से माँ और बच्चे दोनों में संक्रमण की संभावना कम हो जाती है। उन्होंने कहा, "शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं में दर्द सहने की क्षमता अधिक होती है, यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक सामान्य प्रसव होते हैं।"
“जिस अस्पताल में मैं अपनी नियमित जाँच के लिए गई थी, उन्होंने मेरी डिलीवरी की तारीख 7 अगस्त दी थी। डॉक्टरों के मुताबिक सिजेरियन डिलीवरी होनी थी। लेकिन 2 अगस्त को मुझे दर्द शुरू हो गया और जूना ने ही मेरे बेटे को घर पर जन्म देने में मेरी मदद की। मेरी सामान्य डिलीवरी हुई।'' नसरीना बेगम ने गाँव कनेक्शन से कहा।
नसरीना ने जूना बेगम का आभार व्यक्त करते हुए गाँव कनेक्शन को बताया कि उनका बच्चा अब लगभग दो महीने का है। वह सेहतमंद है और तेज़ी से बड़ा हो रहा है।
बांदीपुरा के केटसन गाँव की 78 साल की दाई जूना बेगम अपने गुज्जर समुदाय के बाकी लोगों के साथ एक जगह से दूसरी जगह की तलाश में सफ़र करती रहती हैं। दरअसल ये समुदाय चूल्हे में जलाने वाली लकड़ियों के साथ-साथ अपने पशुओं के लिए हरे-भरे चरागाहों की तलाश में कश्मीर के ऊपरी इलाकों की ओर पलायन करते हैं। उनकी खानाबदोश जीवन शैली के चलते उनके लिए बेहतर स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच मुश्किल हो जाती है, और यह उन महिलाओं के लिए और भी मुश्किल भरा होता है जो गर्भवती हैं।
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जूना ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरे समुदाय के लोग लगातार आगे जाते रहते हैं। मैंने अक्सर हरे चरागाहों में बच्चों को जन्म दिलवाने में मदद की है। अगर मैं किसी की जान बचा सकती हूँ, तो मेरे लिए इससे ज़्यादा बेहतर कुछ नहीं है। मैं अपनी आखिरी साँस तक अपने लोगों की मदद करती रहूँगी।''
केटसन गाँव के अल्ताफ खान के चार बच्चों और उनके दो पोते-पोतियों का जन्म जूना दाई की मदद से ही हुआ था। 49 साल के खान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “वह हमारी मदद के लिए हमेशा मौजूद रहती हैं। जब हमारी औरतें बीमार पड़ जाती हैं या बच्चे को जन्म देने के करीब होती हैं, तो हम मदद के लिए जूना और पड़ोस की अन्य महिलाओं को बुलाते हैं।''
भारत के अन्य हिस्सों की तरह जम्मू-कश्मीर की कश्मीर घाटी में भी घर पर बच्चों को जन्म देने में दाइयों की मदद लेने की परंपरा है। लेकिन, इन पारँपरिक दाइयों को स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली से बाहर कर दिया गया है क्योंकि सारा ध्यान संस्थागत प्रसव की ओर मुड़ गया है, जिसकी वजह से मातृ और शिशु मृत्यु दर को कम करने में मदद मिली है।
दो या तीन पीढ़ियों पहले महिलाएँ घर पर ही बच्चे को जन्म देती थीं और पूरी प्रक्रिया के दौरान जूना जैसी दाइयां उनकी मदद करती थीं। डॉक्टर और नर्सें मौजूद नहीं थे, या दूर के अस्पताल में उपलब्ध होते थे। लोग दाइयों पर भरोसा करते थे। उनका औजार उनके कुशल हाथ, एक ब्लेड और सरसों का तेल होता था।
कश्मीर के दूर-दराज के गाँवों में पारंपरिक दाइयों की अभी भी काफी पूछ होती है। क्योंकि सर्दियों के मौसम में भारी बर्फबारी के दौरान घाटी के कई गाँव राज्य के बाकी हिस्सों से कट जाते हैं। ऐसे में दाइयाँ ही अपने तजुर्बे से बच्चे को पैदा करवाने में मदद करती हैं। इनमें से कई दाइयाँ तो काफी उम्र -दराज़ और समझदार हैं। बच्चों को जन्म दिलाने में मदद करने के उनके कई साल के अनुभव ने उन्हें इन इलाकों की लाइफ लाइन बना दिया है।
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सुंदरी दाई श्रीनगर से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांदीपोरा में वुलर झील के उत्तरी किनारे पर अष्टांगू में रहती हैं। उन्हें याद नहीं है कि जब उन्होंने दाई का काम शुरू किया था तब उनकी उम्र कितनी थी। वह कहती हैं, लेकिन मुझे इतना तो यकीन है कि कम से कम 50 सालों से मैं इस काम को कर रही हूँ।
ताजा बेगम की उम्र लगभग 83 साल की है। उन्हें याद है कि उन्होंने बच्चों को जन्म दिलवाने का काम अपनी माँ से सीखा था। वह कुपवाड़ा जिले के लंगेट गाँव में एक दाई थीं।
ताजा ने कहा, "मैंने अब ये काम छोड़ दिया है। क्योंकि मेरे गाँव और आसपास की महिलाएँ प्रसव पीड़ा को कम करने के लिए सिजेरियन डिलीवरी करवाना ज़्यादा पसंद करती हैं।" अपने पुराने दिनों को याद करते हुए दाई ने कहा कि उन्होंने कई प्रसवों में मदद की है। और इस काम से मिलने वाले पैसे से ही मेरा घर का खर्च चला करता था।
ताजा ने बताया, “मुझे सफल सामान्य प्रसव के लिए तकरीबन पाँच सौ रुपये मिला करते थे। मैं आस-पास के गाँवों में भी जाया करती थी। क्योंकि वहाँ दूर-दूर तक स्वास्थ्य सुविधाएँ मौजूद नहीं थी। मैंने ऐसे इलाकों में गर्भवती महिलाओं को उनके बच्चों को जन्म देने में मदद की है।”
लेकिन जूना बेगम जैसी दाइयाँ भी हैं जो प्रसव के लिए पैसे नहीं लेतीं। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं आमतौर पर बच्चों को जन्म दिलाने में मदद करने के पैसे नहीं लेती हूँ। लेकिन लोग मुझे कुछ रुपये या ऐसी कोई चीज़ दे देते हैं, जिसे मैं मना नहीं कर पाती। मैं तो बस भगवान की आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे मदद करने लायक बनाया। भगवान मुझे इस काम के लिए स्वर्ग में इनाम देंगे।''
लेकिन जैसे-जैसे क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ है, लोगों ने दाइयों के पास जाना कम कर दिया है। ऐसा लगता है कि जैसे युवा महिलाओं को सफल प्रसव कराने में मदद करने के लिए पीढ़ियों से हासिल किया गया ज्ञान उन दाइयों के साथ ही चला जाएगा, जो अपने जीवन की शाम में हैं।
यूएनएफपीए, डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन), इंटरनेशनल कन्फेडरेशन ऑफ मिडवाइव्स (आईसीएम) और भागीदारों की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स मिडवाइफरी 2021’ में दाइयों के महत्व को दर्ज किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया 9 लाख दाइयों की कमी से जूझ रही है। अगर दाई के काम को समर्थन दिया जाए, मान्यता दी जाए और प्राथमिकता दी जाए तो 2035 तक 43 लाख मातृ और नवजात शिशुओं की मृत्यु को रोका जा सकता है।
बांदीपोरा के डोबुन गाँव की एक छोटी दाई खतीजा बेगम को अपने काम पर गर्व है। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, "मैं कोई पेशेवर स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं हूँ, लेकिन अपने 15 सालों के अनुभव के साथ मैंने कई युवा महिलाओं को बच्चे को जन्म देने में मदद की है। मैंने स्थानीय आशा कार्यकर्ता से सुरक्षित प्रसव के बारे में भी बहुत कुछ सीखा है।" खतीजा इस बात से खुश हैं कि घाटी में स्वास्थ्य सुविधाओं में काफी सुधार हुआ है। 59 वर्षीय दाई ने कहा, "मैं 15 साल से दाई का काम कर रही हूँ और यह ज़्यादा साल पहले की बात नहीं है जब महिलाओं को अस्पताल तक पहुँचने के लिए गाड़ी किराए पर लेने के लिए अपने गाँव से मुख्य सड़क तक लगभग आठ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था।"
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उन्होंने आगे कहा, “लेकिन अब, स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता और बेहतर सुविधाओं और पहुँच दोनों के कारण गर्भवती माताएंँ अपने प्रसव के लिए अस्पतालों में जाना पसँद कर रही हैं''
बांदीपोरा के केटसन गाँव में स्वास्थ्य उप केंद्र में स्त्री रोग विशेषज्ञ शमीमा बेगम ने कहा कि इस साल जनवरी से अगस्त के बीच पारँपरिक दाइयों की सहायता से 21 सफल प्रसव हुए हैं।
स्त्री रोग विशेषज्ञ ने कहा, "कई महिलाएँ जिन्होंने अपनी दाइयों की मदद से बच्चे को जन्म दिया है, उपकेंद्र में आती हैं। वे और उनके बच्चे सेहतमंद हैं।"
लेकिन सभी दाइयों के पास साझा करने के लिए सुखद कहानियाँ नहीं होतीं। कई बार जटिलताओं के चलते परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं।
सुंदरी बेगम अपनी उम्र के 107वें पड़ाव पर हैं। उनके पास कभी न भूलने वाले कई ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने उनके जीवन पर गहरे निशान छोड़े हैं। उन्होंने कुछ दुख के साथ कहा कि 1990 में आधी रात को उनके दरवाजे पर हुई दस्तक को वह कभी नहीं भूल सकती हैं।
उन्होंने कहा, "वहाँ कर्फ्यू था और मेरा पड़ोसी दरवाजे पर था और मुझसे अपनी बेटी की मदद करने की भीख माँग रहा था। वह प्रसव पीड़ा से छटपटा रही थी।" मामला जटिल होता जा रहा था। बेगम ने अपने पड़ोसी से अपनी बेटी को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए कहा। सुंदरी बेगम ने गाँव कनेक्शन को बताया, “लेकिन इलाके की घेराबंदी हो रखी थी और बच्चे को बचाया नहीं जा सका। उसके बाद लड़की को कोई और बच्चा नहीं हुआ।''
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उन्होंने आगे कहा, “तब मुझे अहसास हुआ था कि अगर मेरे पास जटिल गर्भधारण से निपटने के लिए उचित औजार या किसी प्रकार का प्रशिक्षण होता, तो शायद मैं बच्चे को बचा लेती। उसके बाद से भले ही जटिलता का थोड़ा सा भी संकेत हो, मैं बच्चे को जन्म देने की कोशिश किए बिना और मामलों में देरी किए बिना माँ को अस्पताल ले जाने की सलाह देती हूँ। ''
कई दूसरी दाइयों की तरह सुंदरी बेगम ने भी किसी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज से कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया है, लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें दाई बना दिया है। उन्होंने कहा, “इतने सालों के मेरे अनुभव ने मुझे गर्भावस्था संबंधी मामलों को आत्मविश्वास के साथ संभालने में सक्षम बनाया है। मैंने गर्भवती माताओं को इंट्रावेनस इंजेक्शन देना भी सीखा है।”
पुराने समय को याद करते हुए सुंदरी बेगम ने कहा कि पहले महिलाओं में दर्द सहने की सीमा काफी ज़्यादा थी। उन्होंने कहा, "इन दिनों महिलाओं को उनके बच्चे के जन्म से कई महीने पहले बिस्तर पर आराम करने की सलाह दी जाती है।" पुराने समय में महिलाएँ लगभग अंतिम दिन तक काम करती रहती थीं। दाई ने याद करते हुए कहा, "वे अपने खेतों में काम करती थी, फसल आदि काटने में लगी रहती थी।"
बांदीपोरा के जिला अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक मुश्ताक अहमद के अनुसार, सामान्य प्रसव से बच्चे को जन्म देने से माँ और बच्चे दोनों में संक्रमण की संभावना कम हो जाती है। उन्होंने कहा, "शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं में दर्द सहने की क्षमता अधिक होती है, यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक सामान्य प्रसव होते हैं।"