आधुनिक युग की मीरा थीं महादेवी वर्मा

गाँव कनेक्शन | Mar 26, 2018, 11:42 IST
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महादेवी वर्मा की गिनती हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ सुमित्रानन्दन पन्त, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के साथ की जाती है। महादेवी वेदना की गीतकार हैं, जिसकी अभिव्यक्ति छायावादी शैली में प्रकृति के माध्यम से हुई है।

मेरे बचपन के दिन

अपने बचपन के संस्मरण "मेरे बचपन के दिन" में महादेवी ने लिखा है कि जब बेटियाँ बोझ मानी जाती थीं, उनका सौभाग्य था कि उनका एक आज़ाद ख्याल परिवार में जन्म हुआ। उनके दादाजी उन्हें विदुषी बनाना चाहते थे। उनकी माँ संस्कृत और हिन्दी की ज्ञाता थीं और धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। माँ ने ही महादेवी को कविता लिखने, और साहित्य में रुचि लेने के लिए प्रेरित किया। निराला, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पन्त के साथ साथ महादेवी वर्मा को छायावाद का एक स्तम्भ माना जाता है। कविताओं के साथ साथ उनके गद्य को भी समीक्षकों की सराहना मिली। वह चित्रकला में भी निपुण थीं।

महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, संपादन और अध्यापन रहा

महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, संपादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका 'चाँद' का कार्यभार संभाला। 1930 में नीहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। 1939 में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं।

बचपन में करती थीं तुकबंदी

शिक्षा और साहित्य प्रेम महादेवी जी को एक तरह से विरासत में मिला था। महादेवी जी में काव्य रचना के बीज बचपन से ही विद्यमान थे। छ: सात वर्ष की अवस्था में भगवान की पूजा करती हुयी माँ पर उनकी तुकबन्दी:

ठंडे पानी से नहलाती

ठंडा चन्दन उन्हें लगाती

उनका भोग हमें दे जाती

तब भी कभी न बोले हैं

मां के ठाकुर जी भोले हैं।

वे हिन्दी के भक्त कवियों की रचनाओं और भगवान बुद्ध के चरित्र से अत्यन्त प्रभावित थी। उनके गीतों में प्रवाहित करुणा के अनन्त स्रोत को इसी कोण से समझा जा सकता है। वेदना और करुणा महादेवी वर्मा के गीतों की मुख्य प्रवृत्ति है। असीम दु:ख के भाव में से ही महादेवी वर्मा के गीतों का उदय और अन्त दोनों होता है।

अनुभूतियों का काव्य

महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है। उसमें देश, समाज या युग का चित्रांकन नहीं है, बल्कि उसमें कवयित्री की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी अनुभूतियाँ प्रायः अज्ञात प्रिय के प्रति मौन समर्पण के रूप में हैं। उनका काव्य उनके जीवन काल में आने वाले विविध पड़ावों के समान है। उनमें प्रेम एक प्रमुख तत्त्व है जिस पर अलौकिकता का आवरण पड़ा हुआ है। इनमें प्रायः सहज मानवीय भावनाओं और आकर्षण के स्थूल संकेत नहीं दिए गए हैं, बल्कि प्रतीकों के द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं स्थूल संकेत दिए गए हैं-

मेरी आहें सोती है इन ओठों की ओटों में,

मेरा सर्वस्व छिपा है इन दीवानी चोटों में।

आधुनिक युग की मीरा

महादेवी वर्मा को आधुनिक युग की मीरा भी कहा जाता है। भक्ति काल में जो स्थान कृष्ण भक्त मीरा को प्राप्त है, आधुनिक काल में वह स्थान महादेवी वर्मा को मिला है। मीरा का प्रियतम सगुण, साकार गिरधर गोपाल है जिसके प्रति वे समर्पित रही, तो दूसरी ओर महादेवी के प्रियतम असीम निर्गुण निराकार (ब्रह्म) हैं और उसके प्रति वे समर्पित हैं। महादेवी अपने आप में एक जीवन गाथा हैं। महादेवी का प्रसिद्ध गीत, 'मैं नीर भरी दुःख की बदली' इस बात का परिचायक है कि उनका यह जीवन दर्शन है जो मीराबाई जैसा ही है।

मिले ये पुरस्कार

  • 1934 - सेकसरिया पुरस्कार
  • 1942 - द्विवेदी पदक
  • 1943 - मंगला प्रसाद पुरस्कार
  • 1943 - भारत भारती पुरस्कार
  • 1956 - पद्म भूषण
  • 1979 - साहित्य अकादमी फेलोशिप
  • 1982 - ज्ञानपीठ पुरस्कार
  • 1988 - पद्म विभूषण

निधन

11 सितम्बर 1987 को महादेवी वर्मा का निधन प्रयाग में हुआ था।

(ये स्टोरी मूल रूप से 11 सितंबर 2017 को प्रकाशित की गयी थी। आज कुछ बदलावों के साथ इसे दोबारा पब्लिश किया गया है)

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