केके बाजपेई, स्वयं कम्युनिटी जर्नलिस्ट
लखनऊ। राजधानी के माल थाना अंतर्गत अपने फर्ज़ की खातिर प्राणों की आहुति देने वाले शहीद उपनिरीक्षक राकेश प्रताप सिंह के स्मारक को उनके ही विभाग ने गुमनामी के दलदल में धकेल दिया है। कुछ वर्षों तक उनकी शहादत को सलाम करने वाले महकमे ने साहसी सहयोगी को ही भुला दिया।
राजधानी लखनऊ के माल थानाक्षेत्र के रौड़ा गाँव में डकैतों से हुई मुठभेड़ में शहीद हुए उपनिरीक्षक राकेश प्रताप सिंह की शहादत के किस्से कभी उसके महकमे के हर शख्स को प्रेरणा देते थे। 14 जून 1977 को माल थाने में तैनात उपनिरीक्षक राकेश प्रताप सिंह ने अपने हमराही सिपाही के साथ रात में गश्त के दौरान मिली सूचना पर अदम्य साहस दिखाया था। केरौड़ा गाँव में एक मकान के अंदर डकैती डालने की योजना बना रहे डकैतों को उन्होंने ललकारा और मोर्चा संभाला।
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दोनों ओर से हुई फायरिंग में पांच बदमाशों को उन्होंने मार गिराया। इसी बीच दरवाजे के पास छुपे एक डकैत की गोली उनके सीने में लगी और उनकी मौके पर ही मौत हो गई थी। अदम्य साहस दिखाने वाले एएसआई राकेश प्रताप की शहादत की खबर पूरे प्रदेश की सुर्खियां बनीं। तमाम वरिष्ठ अधिकारी मौके पर पहुंचे और उनकी शहादत को सलाम किया।
तत्कालीन क्षेत्राधिकारी कंचन चौधरी के प्रयास से शहादत के दो वर्ष बाद 18 फरवरी 1979 को जनता के सहयोग से थाना परिसर के बगल में शहीद स्तम्भ बनवाया गया। इसका उद्घटान वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक श्रीराम अरुण, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गोपाल कृष्ण शुक्ला व क्षेत्राधिकारी आलोक विहारी लाल ने किया था। कुछ वर्षों तक तो पुलिस अधिकारियों ने शहीद का शहीदी दिवस मनाया, लेकिन बीते एक दशक से शहीद दिवस तो मनाना दूर साफ-सफाई कराना भी वे भूल चुके हैं।
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बदइंतजामी और विभाग की अनदेखी के चलते शहीद स्तम्भ अपने वजूद को खो रहा है। रामनगर निवासी भगौती प्रसाद (70) का कहना है, “पहले तो कुछ दिनों तक दरोगा का शहीद दिवस मनाया जाता था, जिसमें आयोजित होने वाले कार्यक्रमों को देखने बड़ी संख्या में दूर-दूर के ग्रामीण आते थे। कार्यक्रम में पुलिस अपने विभिन्न संसाधनों उपकरणों आदि का प्रदर्शन कर जनता को जागरूक करती थी। अब लोगों ने सब कुछ भुला दिया। अब बीते दस-बारह साल से कोई कार्यक्रम हमने नहीं देखा है।”
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