काम को तरस रहे हथकरघा चलाने वाले हाथ

Update: 2017-01-24 12:31 GMT
हथकरघा में शामिल महिलाओं का काम से हो रहा मोहभंग

ममता देवी, स्वयं कम्युनिटी जर्नलिस्ट

अछल्दा ब्लॉक (औरैया)। हथकरघा उद्योग प्राचीन काल से ही भारत की उन्नति और कारीगरों की आजीविका के लिए आधार प्रदान करता आया है। इसके अंतर्गत मलमल छींट, दरी, खादी जैसी वस्तुएं बनाई जाती हैं और हथकरघा उद्योग से निर्मित सामानों का विदेशों में भी निर्यात किया जाता है, लेकिन वर्तमान में लोगों का मन हथकरघा उद्योग से भंग हो रहा है।

औरैया जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में अछल्दा ब्लॉक के कन्हों गाँव में सामुदायिक केंद्र पर हथकरघा उद्योग चलाया जा रहा है। जिसमें इस गाँव की 28 महिलाओं को रोजगार मिला हुआ है। इस गाँव में रहने वाली लक्ष्मी देवी (28 वर्ष) बताती हैं, “हथकरघा से वर्ष में ठंड के समय सिर्फ एक महीने ही काम चलता है, जिससे बनाए गए कंबल की सिर्फ ठंड में ही मांग रहती है। ठंड के बाद हथकरघा से बनाई गई वस्तुओं की मांग साल भर नहीं रहती।”

वहीं, लक्ष्मी देवी आगे बताती हैं, “कम काम की वजह से हमारी आजीविका नहीं चल पाती, जिसकी वजह से हम लोगों ने दूसरा काम ढूंढना शुरू कर दिया है।” आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 3,320 गाँवों में हथकरघा उद्योग चलाया जाता है, जिनमें 62,822 परिवारों के 1,83,119 लोग इस कार्य में लगे हैं। जिनमें से 1,04,240 पुरुष और 78,879 महिलाएं शामिल हैं।

हाथ से बुनाई प्रमुख रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में होती है। कुल बुनकरों का 71.6 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों में और 28.4 फीसदी कस्बों और नगरों में उपस्थित है। पुरुष तथा महिला बुनकरों का क्रमशः 66.3 फीसदी व 33.7 फीसदी योगदान है। उर्मिला देवी (38 वर्ष) बताती हैं, “पूरे महीने घर का जल्दी कामकाज निपटा कर आ जाते हैं। सुबह 10 से 4 बजे तक काम करते हैं, इससे जो पैसा मिलता है बच्चों को कपड़े खरीद देते हैं। अगर साल में चार-पांच महीने काम मिल जाया करे तो घर के सभी खर्चे पूरे हो सकते हैं।”

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