इस तरह आदिवासी महिलाओं को आत्मनिर्भर बना रहे हैं ओडिशा के विकास दास

Mohit AsthanaMohit Asthana   7 Jun 2017 11:34 AM GMT

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इस तरह आदिवासी महिलाओं को आत्मनिर्भर बना रहे हैं ओडिशा के विकास दाससाभार: द बेटर इंडिया

लखनऊ। कभी-कभी इंसान की जिन्दगी में कुछ ऐसा घट जाता है कि उस एक घटना से जिन्दगी का मकसद ही बदल जाता है। ऐसा ही कुछ आईटी सेक्टर के सुरक्षा सलाहकार विकास दास के साथ हुआ। साल 2013 में दुर्गा पूजा के मौके पर विकास अपने गृह जनपद ओडिशा के बालासोर गांव गये हुए थे। बालासोर में विकास के घर पर होने वाली दुर्गा पूजा में उनके गांव के अलावा आस-पास के लोग भी पूजा में एकत्र होने के लिये आते थे।

पूजा के दौरान आदिवासी महिला सुकिमा मांझी भी वहां पहुंच गई। पूजा स्थल पर आदिवासी महिला को देखकर पुजारी को गुस्सा आ गया यह देखकर विकास के परिवार वालों ने सुकिमा मांझी को पूजा स्थल से भगा दिया। हालांकि विकास के माता-पिता उदारवादी स्वाभाव के थे लेकिन बुजुर्गों के समय से वो लोग आदिवासी समाज से दूरी बनाकर ही रहते थे।

साभार: द बेटर इंडिया

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विकास को बचपन से ही सिखाया गया था कि पूरी दुनिया एक ही परिवार की तरह है और दूसरी ओर उनके ही परिवार के द्वारा आदिवासी समाज से भेदभाव किया जा रहा था। वेबसाइट द बेटर इंडिया के मुताबिक विकास बताते है "यह सब देखकर मुझे बहुत खराब लगा कि हम देवी की ही प्रार्थना कर रहे है वहीं दूसरी तरफ एक महिला का अपमान कर रहे है।"

जब विकास ने इसका मूल कारण जानने की कोशिश की तो पता चला कि उनसे इसलिये भेदभाव किया गया क्यों कि वो गरीब, अशिक्षित व कुपोषण के शिकार थे। विकास ने उन आदिवासी महिलाओं को सशक्त बनाने का निर्णय लिया। विकास ने कोईबानिया के आदिवासी गांव में दो महीने का वक्त भी गुजारा ताकि उनकी समस्याओं को पूरी तरह से समझा जा सकें।

इन्होने इस काम के लिये अपने कारपोरेट दोस्तों की मदद ली और जल्द ही सात लोगों की एक टीम तैयार हो गई। टीम ने महिलाओं को व्यवसाय के क्षेत्र में लाने का प्रयास किया। शुरुआत में मुश्किल जरूर आई क्योंकि यहा मामला महिलाओें को सशक्त बनाने का था और उनके घर के पुरूषों ने बाहर निकलने व अजनबियों से बात करने के लिये मना कर रखा था। इसके अलावा एक कारण यह भी था कि सालों से उनका शोषण किया जा रहा था इसलिये जल्दी वो किसी पर भरोसा नहीं करते थे। अप्रेल 2014 में विकास ने अपनी नौकरी छोड़ दी और अपने बचत के पैसों से वट वृक्ष नाम की संस्था का शुभारम्भ किया।

साभार: द बेटर इंडिया

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इस तरह से संस्था का नाम पड़ा वट वृक्ष

संस्था को वट व्रक्ष नाम देने का भी एक कारण यह था कि शुरू में कोई कार्यालय न होने के कारण आदिवासी लोगों से चर्चा करने के लिये बरगद के पेड़ के नीचे बैठक की गई थी इसलिये इस संस्था का नाम वट वृक्ष पड़ा। आदिवासी समाज में बरगद के पेड़ को पवित्र माना जाता है।

100 से 200 आबादी वाले गांव से की शुरुआत

शुरुआत 100 से 200 आबादी वाले छोटे से गांव से की गई। जो महिलाएं हस्तशिल्प कला, कार्बनिक फसलों, हर्बल आदि का काम जानती थी उन्हे 3000 रूपये का बीज निधि देकर काम शुरू कर दिया। अब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी महिलाओं द्वारा तैयार उत्पाद को बाजार तक पहुंचाना। इस प्रकार वट वृक्ष का पहला लक्ष्य उत्पादों को सही मूल्य दिलाना था। आदिवासी महिलाओें के साथ अन्य गांव की महिलाओं को भी जोड़ा गया और इन्हे कौशल विकास के तहत प्रशिक्षण दिया गया। वट वृक्ष की टीम ने तैयार उत्पाद को बाजारों के अलावा घर-घर जा कर बेचा और धीरे-धीरे बाजार तैयार हो गया।

साभार: द बेटर इंडिया

छोटी सी मुहिम ने आज ले लिया एक बड़ा रूप

एक छोटे से गांव से शुरू की गई विकास की मुहिम अब चार राज्यों ओडिशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड और छत्तीसगढ़ में बड़े नेटवर्क का रूप ले चुकी है। आज वट वृक्ष में 72 सदस्यों की टीम ने 17000 आदिवासी महिलाओं की मदद की है और यह काम लगातार जारी है। विकास कहते है हम अपनी संस्था में आदिवासी समाज के शिक्षित युवाओं को भी प्राथमिकता देते है ताकि उनके साथ संवाद करने में आसानी रहे।

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उत्पाद की बिक्री के लिये विकास ने निकाला नायाब तरीका

आदिवासियों द्वारा बनाये गये उत्पाद की ज्यादा से ज्यादा बिक्री हो इसके लिये विकास ने एक तरीका निकाला। अगर कोई भी ग्राहक इनके बनाये उत्पाद को खरीदता है तो आपको उत्पाद के निर्माण के पीछे की कहानी का वर्णन करने वाली पुस्तिका मुफ्त में दी जायेगी।

एक छोटे से हादसे ने सुकिमा मांझी की जिंदगी बदल कर रख दी और वो आज एक व्यावसायिक महिला के रूप में पहचानी जाती है। पहले जहां सुकिमा मांझी को आर्थिक तंगी से जूझना पड़ता था लेकिन वट वृक्ष ने उन्हेकौशल विकास के माध्यम से वस्तुओं को बनाना सिखाया और उनके उत्पादों को बाजार प्रदान की। सुकिमा आज एक बेहतर जीवन गुजार रही है।

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