लकड़ी बीनने वाली महिलाओं की 'पहाड़' सी जिंदगी ने ली करवट, गुलजार हुई 'मेहनत की बगिया'

ये तीन बेहद आम महिलाओं की कहानी है, जिन्होंने कोई बड़ा मुकाम तो हासिल नहीं किया है, लेकिन अपनी जरुरतों, अपने घर को चलाने के लिए जो कदम उठाए हैं वो उनके लिए बड़े है। ये महिलाएं वो हैं जो कभी जंगल से लकड़ियां बीनकर लाती थी, बेचती थी, जिससे उनके घर चलते थे। इस महिला दिवस पर पढ़िए सतना की इऩ्हीं 3 महिलाओं की कहानी

Sachin Tulsa tripathiSachin Tulsa tripathi   8 March 2022 3:12 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo

बरहा मवान, सतना (मध्य प्रदेश)। जंगलों के आसपास बसे गांव की महिलाओं की दिनचर्चा सूरज निकलने से पहले शुरु होती है। गाय-भैंस का गोबर हटाने और चूल्हा चौका करने के बाद देर रात खत्म होती है। इसी बीच इन्हें सबसे महत्वपूर्ण काम जंगल जाकर लकड़ियां बनने का होता है, क्योंकि इसी से घर की रोटी चलती है। जंगल के आसपास के गांवों की हजारों महिलाओं की यही कहानी है लेकिन कुछ महिलाएं लीक से हटकर चली हैं, नई सोच और उस पर की गई बेहताशा मेहनत से उनकी जिंदगी में बदलाव आए हैं।

ये मध्यप्रदेश के सतना जिले के उत्तर- पश्चिम में बसे गांव बरहा मवान की तीन महिलाओं की कहानी है, जिन्होंने लकड़ी बीनने और बेचने की मुश्किल भरी जिंदगी को छोड़कर सुकून से कमा खा रही हैं।

राजलली मवासी: कुएं के पानी ने दी नई जिंदगी

आज 38 साल की हो चुकी राजलली मवासी की साल 2003 में शादी हुई थी, तब उनकी उम्र करीब 19 साल थी। ब्याह के समय जो सपने आम लड़की देखती हैं उन्होंने भी वही देखे थे, लेकिन जैसे ही ससुराल (बरहा मवान) आईं। हकीकत से सामना हुआ। हाथ की मेंहदी भी नहीं छूटी थी कि उसे गांव से सटे जंगल में लकड़ी बीनने के लिए भेज दिया गया।

गहरी सांस भरते हुए राजलली ने 'गांव कनेक्शन' को बताया, "बराबर से मुझे याद नहीं है वो (पति की ओर इशारा करते हुए) जानते होंगे लेकिन 15-20 साल हो गए लकड़ी बीनने और बेचने का काम करते हुए। पेट चलाना है तो यह करना मजबूरी थी।"

वो आगे बताती हैं, "सुबह 5 बजे से उठकर पहले घर का काम करती थी इसके बाद जंगल जाती। वहां से लकड़ी बीन कर घर लाती और फिर दूसरी सुबह लकड़ी बेचने जाती थी। इस दो दिन की मेहनत के 60 रुपए मिल जाते थे। आप समझ लीजिए कि एक दिन की 30 रुपए मजदूरी मिलती थी।"


रूखा सूखा खाते हुए उनकी जिंदगी के कई बरस निकल गए। लेकिन जब लॉकडाउन (मई 2020) में सब कुछ बंद हुआ तो रोजी-रोटी का वो जरिया भी चला गया।

राजलली बताती हैं, "लॉकडाउन में जंगल जाने में भी रोक थी। गांव में पानी की अलग परेशानी इसलिए हमने एक कुआं खोदा। उसके बगल में करीब 30 फ़ीट लंबी और 10 फ़ीट लंबी जमीन में सब्जियों की बगिया लगाई थी। पहले तो कम था लेकिन अब 200 रुपए की रोज सब्जी बेच लेती हूँ।"

जब गांव कनेक्शन राजलली के घर पहुंचा था तब उसके द्वारा खोदे गए कुआं में करीब 15 फ़ीट पानी था। कुआं की चौड़ाई 38 फ़ीट और गहराई 36 फ़ीट के आसपास है। कुआं बंधा (पक्का) नहीं इसलिए ऊपर की मिट्टी नीचे गिर रही है। इससे उसकी गहराई में असर पड़ रहा है।

राजलली के पति रामाश्रय मवासी बताते हैं, "हमने सुना था पड़ोस के पिंडरा गांव के शिक्षक देवमणि सेन और उनकी पत्नी ने मिलकर कुआं खोदा था। उसमें पानी मिला गया है। इसलिए हम लोगों ने भी कुआं खोदने का निर्णय लिया था। कुआं को खोदने में दो हफ्ते का समय लगा था। इसके कुछ दिन बाद ही इसमें पानी आ गया था। तब यह कुआं 5 फ़ीट चौड़ा और 10 फ़ीट गहरा था।"


राजलली और रामाश्रय की मेहनत को राज्य सरकार की योजना का भी सहारा मिला, जिससे उनका कुआं बड़ा हो गया। वह बताते हैं, "कपिलधारा योजना के तहत 4 लाख रुपए से इसका गहरीकरण और चौड़ीकरण किया गया। अब यह कुआं 38 फ़ीट चौड़ा और 36 फ़ीट गहरा है।"

मझगवां कस्बे के मिचकुरिन की पहाड़ियों की तलहटी में बसे बरहा मवान गांव में करीब 200 परिवार गुजर बसर कर रहे हैं। इन परिवारों की जीविका जंगल पर ही निर्भर है। अधिकांश के पास खेती लायक जमीन नहीं है। घर के पुरुष बड़े किसानों के यहां, और महिलाएं लकड़ी बीनने और बेचने का काम करती हैं।

चंद्रकली मवासी: बिस्किट नमकीन की दुकान से बढ़ी कमाई

राजलली से ही मिलती जुलती कहानी चंद्रकली मवासी की भी है। आज 48 साल हो चुकी चंद्रकली पहले लकड़ी बीनने और बेचने का काम करती थीं, लेकिन अब वो बिस्किट नमकीन की दुकान चलाती हैं।

ग्राहकों का इंतज़ार के रही चंद्रकली बताती हैं, "गांव को आप देख ही चुके होंगे। यहां दूर दूर तक कोई काम धंधा नहीं है। लकड़ी बीनना और बेचना दोनों ही कठिन काम था। जंगल में लकड़ियां बीनते समय कई बार अधिकारी भी परेशान करते थे। यह पहाड़ चढ़ कर जाना पड़ता था। तब कहीं जाकर आँचल (साड़ी के एक कोने में) में 50 रुपये बांधने को मिलते थे।"


चंद्रकली आगे बताती हैं, "कुछ साल पहले शबरी नाम के स्वयं सहायता समूह बनाया गया था, उसमें काम किया। इसके बाद सांझा चूल्हा योजना में रसोइया माता का काम मिल गया है। आंगनबाड़ी से 2000 रुपये मिलता है। इस पैसे से बचत कर 2 साल पहले 3000 रुपए खर्च कर नमकीन बिस्किट की दुकान खोली थी। आज थोड़ा और बढ़ गई है। इस समय रोजाना की बिक्री 400 रुपए के आसपास है और जहां तलकड़ी बीनने वाली महिलाओं की 'पहाड़' सी जिंदगी ने ली करवट, गुलजार हुई 'मेहनत की बगिया' बात आमदनी की है 150 रुपए से 160 रुपए तक हो जाती है।"

सतना जिले के मझगवां, उचेहरा, नागौद, अमरपाटन, रामनगर और मैहर तहसील में जंगल हैं। वन विभाग द्वारा आधिकारिक रूप से प्रकाशित किये जाने वाले प्रशासकीय प्रतिवेदन 2020-21 के दूसरे भाग के 107-08 में मंडल वार जंगल की जानकारी प्रकाशित की गई है। इसमें प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार सतना जिले के जंगल का जियोग्राफिक एरिया 7502 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें से वर्ष 2019 में सघन वन 12 वर्ग किलोमीटर, जबकि खुले वन का जियोग्राफिक एरिया 831. 2 वर्ग किलोमीटर दर्शाया गया है। जबकि पूरे मध्य प्रदेश में 308252 वर्ग किलोमीटर में वन का कुल जियोग्राफिक एरिया है। जिसमें सघन वन 6676.02 वर्ग किलोमीटर, कहीं घने कहीं बिखरे वन 34341. 4 वर्ग किलोमीटर तथा 36465.07 वर्ग किलोमीटर खुले वन हैं। जिसमें हजारों गांव बसे हैं।

सरमनिया मवासी: पिता से मिली जमीन में खेती, आज खुद का ट्रैक्टर भी

सरमनिया इसी महीने 50 साल की हो गई हैं। उनकी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा जंगल और खेत में गुजरा है। सरमनिया की शादी बरहा मवान गांव से करीब 20 किलोमीटर दूर कुलदरी गांव में हुई थी। लेकिन 8 साल पहले पिता की मौत होने पर वो ससुराल से मायके लौट आईं और पिता का घर और जमीन संभाल लिया। शुरुआत में वो भी लकड़ी बीनती थीं लेकिन धीर-धीरे उन्होंने बैलों से खेती शुरु की आज वो सफल महिला किसान हैं।


सरमनिया बताती हैं, "पिता के मेरे अलावा और कोई संतान नहीं है। 2014 में उनकी मृत्यु हो गई वो अपने पीछे 4 एकड़ जमीन छोड़ गए। जिस गांव में मैं और आप खड़े हैं यह मेरा मायका है। इतना पैसा नहीं था कि पिता से मिली 4 एकड़ जमीन में जुताई करा सकें इसलिये बैलों से ही जुताई शुरू की। दिन बदले तो ट्रैक्टर ले लिया। इसकी छह माह में 68 हज़ार रुपए किश्त दे रही हूं।"

वह आगे बताती हैं, "ट्रैक्टर लेने के बाद आस पास के बड़े किसानों के खेत भी बटाई में लेती हूं। आमदनी बढ़ानी है और किस्त भी भरनी है। पिछले सीजन में 90 कुंतल धान पैदा किया था। जो सरकार (एमएसपी) पर बेचा था। 2021 की गर्मी में 95 कुंटल गेहूं भी हुआ था। कुल मिलाकर आप ये मान लीजियेगा कि साल का 4 लाख के आसपास आ रहा है।"


अभी जीवन पटरी पर है, लेकिन वो अपना गुजरा हुआ कल नहीं भूली हैं, कहती हैं, "पहले तो 10-12 लोगों के परिवार को लकड़ी की आमदनी से पालना मुश्किल से हो पा रहा था। कई कई दिन तो एक टाइम खाना ही मिल पाता था।"

अपनी बात खत्म करते हुए वो कहती हैं, "लेकिन वो वह बुरा दौर था ये नया दौर है।"

#International Womens Day #women empowerment #story #video 

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.