हिमालय से चेतावनी: गंगोत्री का पानी अब ग्लेशियर नहीं, बारिश पर ज़्यादा निर्भर
Gaon Connection | Aug 26, 2025, 19:14 IST
चार दशकों के अध्ययन ने बताया कि गंगोत्री घाटी का जल प्रवाह अब पहले जैसा नहीं रहा। बर्फ़ और ग्लेशियर पर निर्भरता घट रही है, बारिश पर बढ़ रही है। यह बदलाव खेती, जलविद्युत और गंगा की धारा – तीनों के लिए बड़ी चुनौती है।
उत्तराखंड की ऊँचाइयों में बसी गंगोत्री घाटी, जहाँ से गंगा की धारा निकलती है, भारत की आस्था और करोड़ों लोगों की ज़िंदगी का आधार है। सदियों से यहाँ के ग्लेशियर और बर्फ़ का पिघलता पानी मैदानों तक पहुँचकर खेती को जीवन देता है, जलविद्युत संयंत्रों को चलाता है और गंगा की धारा को अटूट बनाए रखता है। लेकिन अब इस कहानी का स्वरूप बदल रहा है और विज्ञान इसके सबूत पेश कर रहा है।
आईआईटी इंदौर के वैज्ञानिकों ने गंगोत्री ग्लेशियर सिस्टम में पानी के बहाव का 41 साल का विस्तृत अध्ययन किया। 1980 से 2020 तक चले इस शोध में हाई-रेज़ोल्यूशन SPHY मॉडल का इस्तेमाल किया गया, जिसे मैदान में मापे गए डिस्चार्ज रिकॉर्ड, ग्लेशियर का जियोडेटिक मास बैलेंस और सैटेलाइट से मिले स्नो कवर डेटा के साथ मिलाकर तैयार किया गया। यह अब तक का सबसे व्यापक आकलन है, क्योंकि पहले किए गए अध्ययन या तो छोटे समय के थे या सीमित आंकड़ों पर आधारित थे।
नतीजे बताते हैं कि गंगोत्री घाटी से निकलने वाले कुल वार्षिक बहाव (औसतन 28 m³/s) में 64% हिस्सा बर्फ़ पिघलने से, 21% ग्लेशियर पिघलने से, 11% बारिश से और 4% भूमिगत बहाव से आता है। यानी गंगोत्री का जीवन आज भी बर्फ़ और ग्लेशियर से ही सबसे अधिक जुड़ा है। लेकिन जब चार दशकों का ट्रेंड देखा गया तो तस्वीर बदलती नज़र आई—स्नोमेल्ट का योगदान लगातार घट रहा है, जबकि बारिश और भूमिगत बहाव की हिस्सेदारी बढ़ रही है।
एक बड़ा बदलाव यह भी सामने आया कि बहाव का चरम समय अब खिसक गया है। पहले गंगोत्री से निकलने वाला अधिकतम पानी अगस्त में दर्ज होता था, लेकिन अब यह जुलाई में ही दिखाई देने लगा है। वैज्ञानिकों के अनुसार, सर्दियों में बर्फ़बारी कम होने और गर्मियों में बर्फ़ के जल्दी पिघल जाने से यह बदलाव आया है। यह सिर्फ़ एक सांख्यिकीय तथ्य नहीं, बल्कि खेती और जलविद्युत जैसे संवेदनशील क्षेत्रों के लिए बड़ी चुनौती है।
दशक-दर-दशक तुलना करने पर भी स्थिति स्पष्ट होती है। 1980–1990 के बीच गंगोत्री का 73% बहाव बर्फ़ पिघलने से आता था। 2001–2010 में यह घटकर 52% रह गया, हालांकि 2011–2020 में यह फिर थोड़ा बढ़कर 63% तक पहुँच गया। इसी दौरान बारिश पर निर्भर बहाव का योगदान 1980–1990 के 2% से बढ़कर 2001–2010 में 22% तक पहुँच गया। यह बदलाव दर्शाता है कि घाटी धीरे-धीरे बर्फ़ से बारिश पर निर्भर होने लगी है।
चार दशकों में गंगोत्री घाटी का औसत तापमान लगातार बढ़ा है। लेकिन इसी अवधि में स्नो कवर में लगभग 5% की कमी दर्ज हुई। यानी जितनी बर्फ़ पिघलने के लिए उपलब्ध थी, वह भी घटती चली गई। नतीजतन स्नोमेल्ट का हिस्सा कम होता गया, और बारिश तथा बेसफ़्लो से आने वाला पानी बढ़ता गया। सांख्यिकीय विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि गंगोत्री का वार्षिक बहाव सबसे अधिक गर्मियों की बारिश (सहसंबंध r = 0.62) और सर्दियों के तापमान (r = 0.52) से प्रभावित होता है। इसका सीधा मतलब है कि भविष्य में मानसून की अनिश्चितता और सर्दियों की गर्मी, दोनों ही गंगा की धारा को गहराई से प्रभावित करेंगे।
शोध की मुख्य लेखिका पारुल विन्ज़े कहती हैं, “चार दशकों का डेटा हमें साफ़ दिखाता है कि गंगोत्री का जल प्रवाह बदल रहा है। अब बर्फ़ के पिघलने पर कम और बारिश पर ज़्यादा निर्भरता बढ़ रही है।” इस अध्ययन का मार्गदर्शन करने वाले डॉ. मोहम्मद फ़ारूक़ आज़म का मानना है कि यह बदलाव छोटे नहीं बल्कि बड़े असर ला सकते हैं। वे कहते हैं, “ऊँचाई वाले इलाक़ों में खेती और हाइड्रोपावर सीधे पिघलते पानी पर निर्भर हैं। अगर बहाव का समय और मात्रा बदलती है, तो इसका असर सिंचाई से लेकर बिजली उत्पादन तक पर पड़ेगा।”
गंगा का मैदानी इलाक़ा भले ही बरसात पर ज़्यादा निर्भर हो, लेकिन गंगोत्री जैसी ऊँचाई वाली जगहों में आज भी बर्फ़ और ग्लेशियर का पिघलना ही जीवनरेखा है। जब यही जीवनरेखा असंतुलित होने लगे तो इसका असर विज्ञान की रिपोर्ट से कहीं आगे जाकर गाँवों की सिंचाई, बिजलीघरों की स्थिरता और करोड़ों आस्थावानों की धड़कनों तक पहुँचता है।
गंगोत्री घाटी की जलकथा बदल रही है। बर्फ़ घट रही है, बारिश बढ़ रही है। बहाव का समय पहले से खिसक गया है और भविष्य की दिशा स्पष्ट है कि घाटी अब पहले जैसी नहीं रहेगी। यह बदलाव हिमालयी पारिस्थितिकी, खेती, जलविद्युत और आस्था—चारों पर असर डालेगा। यही वजह है कि वैज्ञानिक लगातार आगाह कर रहे हैं कि हमें न केवल जलवायु परिवर्तन को समझना होगा, बल्कि उसके अनुसार जल प्रबंधन और नीतियों को भी तुरंत ढालना होगा।
आईआईटी इंदौर के वैज्ञानिकों ने गंगोत्री ग्लेशियर सिस्टम में पानी के बहाव का 41 साल का विस्तृत अध्ययन किया। 1980 से 2020 तक चले इस शोध में हाई-रेज़ोल्यूशन SPHY मॉडल का इस्तेमाल किया गया, जिसे मैदान में मापे गए डिस्चार्ज रिकॉर्ड, ग्लेशियर का जियोडेटिक मास बैलेंस और सैटेलाइट से मिले स्नो कवर डेटा के साथ मिलाकर तैयार किया गया। यह अब तक का सबसे व्यापक आकलन है, क्योंकि पहले किए गए अध्ययन या तो छोटे समय के थे या सीमित आंकड़ों पर आधारित थे।
नतीजे बताते हैं कि गंगोत्री घाटी से निकलने वाले कुल वार्षिक बहाव (औसतन 28 m³/s) में 64% हिस्सा बर्फ़ पिघलने से, 21% ग्लेशियर पिघलने से, 11% बारिश से और 4% भूमिगत बहाव से आता है। यानी गंगोत्री का जीवन आज भी बर्फ़ और ग्लेशियर से ही सबसे अधिक जुड़ा है। लेकिन जब चार दशकों का ट्रेंड देखा गया तो तस्वीर बदलती नज़र आई—स्नोमेल्ट का योगदान लगातार घट रहा है, जबकि बारिश और भूमिगत बहाव की हिस्सेदारी बढ़ रही है।
gangotri-glacier-climate-change (2)
दशक-दर-दशक तुलना करने पर भी स्थिति स्पष्ट होती है। 1980–1990 के बीच गंगोत्री का 73% बहाव बर्फ़ पिघलने से आता था। 2001–2010 में यह घटकर 52% रह गया, हालांकि 2011–2020 में यह फिर थोड़ा बढ़कर 63% तक पहुँच गया। इसी दौरान बारिश पर निर्भर बहाव का योगदान 1980–1990 के 2% से बढ़कर 2001–2010 में 22% तक पहुँच गया। यह बदलाव दर्शाता है कि घाटी धीरे-धीरे बर्फ़ से बारिश पर निर्भर होने लगी है।
चार दशकों में गंगोत्री घाटी का औसत तापमान लगातार बढ़ा है। लेकिन इसी अवधि में स्नो कवर में लगभग 5% की कमी दर्ज हुई। यानी जितनी बर्फ़ पिघलने के लिए उपलब्ध थी, वह भी घटती चली गई। नतीजतन स्नोमेल्ट का हिस्सा कम होता गया, और बारिश तथा बेसफ़्लो से आने वाला पानी बढ़ता गया। सांख्यिकीय विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि गंगोत्री का वार्षिक बहाव सबसे अधिक गर्मियों की बारिश (सहसंबंध r = 0.62) और सर्दियों के तापमान (r = 0.52) से प्रभावित होता है। इसका सीधा मतलब है कि भविष्य में मानसून की अनिश्चितता और सर्दियों की गर्मी, दोनों ही गंगा की धारा को गहराई से प्रभावित करेंगे।
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गंगा का मैदानी इलाक़ा भले ही बरसात पर ज़्यादा निर्भर हो, लेकिन गंगोत्री जैसी ऊँचाई वाली जगहों में आज भी बर्फ़ और ग्लेशियर का पिघलना ही जीवनरेखा है। जब यही जीवनरेखा असंतुलित होने लगे तो इसका असर विज्ञान की रिपोर्ट से कहीं आगे जाकर गाँवों की सिंचाई, बिजलीघरों की स्थिरता और करोड़ों आस्थावानों की धड़कनों तक पहुँचता है।
गंगोत्री घाटी की जलकथा बदल रही है। बर्फ़ घट रही है, बारिश बढ़ रही है। बहाव का समय पहले से खिसक गया है और भविष्य की दिशा स्पष्ट है कि घाटी अब पहले जैसी नहीं रहेगी। यह बदलाव हिमालयी पारिस्थितिकी, खेती, जलविद्युत और आस्था—चारों पर असर डालेगा। यही वजह है कि वैज्ञानिक लगातार आगाह कर रहे हैं कि हमें न केवल जलवायु परिवर्तन को समझना होगा, बल्कि उसके अनुसार जल प्रबंधन और नीतियों को भी तुरंत ढालना होगा।