मनरेगा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी: तमिलनाडु और राजस्थान सबसे आगे, कई राज्य अब भी पीछे

Gaon Connection | Jul 24, 2025, 12:03 IST
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के अंतर्गत महिलाओं की भागीदारी अब 58.1% तक पहुँच चुकी है। तमिलनाडु, राजस्थान और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में लाखों महिलाओं को इस योजना से रोज़गार मिल रहा है, जबकि कुछ राज्यों में स्थिति अब भी चिंताजनक है।
EMPLOYMENT TO WOMEN UNDER MGNREGS
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है। लेकिन कई ऐसे राज्य हैं जहाँ पर अभी महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है।

इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण परिवारों को 100 दिन का गारंटीकृत रोजगार प्रदान करना है, लेकिन इसके सामाजिक प्रभाव इससे कहीं आगे तक फैले हैं। विशेष रूप से महिलाओं के संदर्भ में, यह योजना न केवल आय का साधन बन रही है, बल्कि उनके सामाजिक सशक्तिकरण का भी माध्यम बन चुकी है।

योजना में यह सुनिश्चित किया गया है कि कार्य प्रदान करते समय कम से कम एक-तिहाई लाभार्थी महिलाएं हों। लेकिन वास्तविकता यह है कि पिछले पाँच वर्षों में महिलाओं की भागीदारी 50% से ऊपर रही है और वर्ष 2024-25 में यह 58.1% तक पहुँच गई है। वर्ष 2013-14 में यह आंकड़ा 48% था, जो अब बड़ी छलांग लेकर ग्रामीण महिला सशक्तिकरण की कहानी कह रहा है।

राज्यवार आंकड़े बताते हैं कि महिला भागीदारी में तमिलनाडु, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और मध्य भारत के कुछ राज्यों की भूमिका सबसे बड़ी रही है। वर्ष 2024-25 में अकेले तमिलनाडु में 62 लाख महिलाओं ने मनरेगा के अंतर्गत काम किया, जबकि राजस्थान में यह संख्या 50 लाख रही। आंध्र प्रदेश ने भी 42 लाख महिलाओं को रोजगार देकर अच्छी स्थिति दर्शाई है।

दूसरी ओर, उत्तर भारत के बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में महिला रोजगार की संख्या 31.8 लाख रही, जबकि बिहार में 30.9 लाख। ये संख्या बड़ी जरूर हैं, लेकिन राज्य की जनसंख्या और ग्रामीण महिलाओं की संख्या के अनुपात में देखें तो इन राज्यों में मनरेगा के तहत महिलाओं की भागीदारी को और बढ़ाया जा सकता है। इसी तरह, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्य भी 10 से 27 लाख महिला श्रमिकों की भागीदारी के साथ मध्यम वर्ग में आते हैं।

वहीं, मिजोरम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, गोवा और लक्षद्वीप जैसे क्षेत्रों में यह भागीदारी 1 लाख से भी कम रही, जो या तो भौगोलिक सीमाओं या फिर योजना की पहुंच की सीमाओं को दर्शाता है।

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मनरेगा केवल रोज़गार उपलब्ध कराने की योजना नहीं है, बल्कि इसके तहत महिला हितैषी कई व्यवस्थाएँ भी की गई हैं। उदाहरण के लिए, पाँच साल से कम उम्र के बच्चों के लिए क्रेच (पालना घर) की सुविधा उन कार्यस्थलों पर दी जाती है जहाँ पाँच या अधिक महिलाएं कार्यरत हों। इसके अलावा, कार्यस्थल पर्यवेक्षकों में से कम से कम 50% महिलाओं को नियुक्त करने का प्रावधान है, जिसमें प्राथमिकता स्वयं सहायता समूहों की महिलाओं को दी जाती है।

महिलाओं, वृद्धों और दिव्यांगों जैसे श्रेणीगत रूप से वंचित समूहों के लिए विशेष दरों और कार्यों की व्यवस्था भी योजना के भीतर की गई है ताकि वे भी सम्मानपूर्वक अपनी भागीदारी दे सकें।

हालाँकि, योजना के तहत महिलाओं को 'अस्थायी रोजगार' या लघु अवधि के विशेष कार्य देने का कोई अलग प्रस्ताव नहीं है। इसका मकसद महिलाओं को समान अवसर और अधिकार देना है, ना कि उनकी भागीदारी को सीमित करना।

जहां एक ओर कुछ राज्यों में मनरेगा महिला भागीदारी के संदर्भ में उदाहरण बनकर उभरे हैं, वहीं कुछ राज्यों को अभी लंबा सफर तय करना बाकी है। खासतौर पर पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्य में वर्ष 2024-25 और 2023-24 में महिला भागीदारी का आंकड़ा शून्य रहा है, जबकि 2022-23 में यह लगभग 9.8 लाख था। यह एक चिंताजनक संकेत हो सकता है और नीति-निर्माताओं को इस ओर गंभीरता से देखना चाहिए।

समग्र रूप से देखा जाए तो मनरेगा ग्रामीण महिलाओं को आजीविका और आत्मनिर्भरता का मजबूत प्लेटफॉर्म प्रदान कर रहा है। आर्थिक स्वतंत्रता के साथ-साथ यह उन्हें निर्णय लेने, सामाजिक मान्यता और नेतृत्व के अवसर भी दे रहा है। यदि राज्य इस सकारात्मक प्रवृत्ति को और मजबूत करें, और पंचायत स्तर पर महिलाओं को ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी और संसाधन उपलब्ध कराएँ, तो मनरेगा महिलाओं के लिए एक क्रांतिकारी बदलाव का औज़ार बन सकता है।

यह जानकारी ग्रामीण विकास राज्य मंत्री कमलेश पासवान ने आज लोकसभा में एक लिखित उत्तर में दी।

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