पश्चिम बंगाल के बालागढ़ के नाविक और समय की बदलती चाल

पश्चिम बंगाल के बालागढ़ के पारंपरिक नाविकों का कहना है कि किसी भी पार्टी ने उनके लिए कुछ नहीं किया है। सही कमाई न होने की वजह से कई लोगों ने अपना पारंपरिक व्यवसाय छोड़ दिया और काम की तलाश में बाहर पलायन कर गये।

Gurvinder SinghGurvinder Singh   10 April 2021 12:00 PM GMT

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बालागढ़ (हुगली, पश्चिम बंगाल)। शेख कुतुबुद्दीन हर साल मानसून के दौरान भारी बारिश की प्रार्थना करते हैं। उनकी इच्छा होती है कि जिस इलाके में वह रहते हैं, वहां खूब जोरों की बारिश हो। कुतुबुद्दीन के ऐसा सोचने के पीछे बहुत बड़ा कारण है क्योंकि वह जो काम करते हैं, बारिश के समय उसकी खूब मांग रहती है। दरअसल कुतुबुद्दीन नाव बनाने का काम करते हैं और अधिक बारिश में जब तालाब, सड़क और गलियां नदियों में तब्दील हो जाती हैं, उस समय लोग नाव का इस्तेमाल करते हैं।

38 साल के कुतुबुद्दीन उन 700 असाधारण लोगों में से हैं, जो नाव बनाने का काम करते हैं। ये सभी राज्य की राजधानी कोलकाता से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में स्थित बालागढ़ में रहते हैं।

बालागढ़ में नाव निर्माण एक घरेलू उद्योग की तरह है, जिसमें लगभग हर घर में काम होता है। हालांकि धीरे-धीरे उनके काम की मांग में कमी हो गई है। किसी समय में अच्छा काम कर रहा, नाव निर्माण उद्योग आजकल मंदा पड़ गया है।

अनुसूचित जाति के आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र, बालागढ़ में 10 अप्रैल को चौथे चरण का मतदान हुआ। पश्चिम बंगाल में 294 विधानसभा सीटों पर आठ-चरण में मतदान हो रहा है। इन चुनावों के बीच बालागढ़ के नाविकों के लिए केवल एक ही चिंता का विषय है- आजीविका और रोजगार।

नाव बनाने का इतिहास

हुगली के तट पर स्थित, बालागढ़ में नाव बनाने की परंपरा सदियों पुरानी मानी जाती है। यहां के नाव निर्माताओं का जिक्र ग्रैंड विज़ियर मुग़ल सम्राट और अकबरनामा के लेखक अबुल फज़ल (1551-1602) के लेखन में है।

कोलकाता के एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के विजिटिंग फेलो, स्वरूप भट्टाचार्य ने गांव कनेक्शन को बताया कि मध्ययुगीन काल के दौरान बालागढ़ के करीब का इलाका एक संपन्न बंदरगाह था। उस समय नाव निर्माता यहां बस रहे थे। स्वरूप 'मैन-बोट रिलेशनशिप' पर शोध कर रहे हैं।

बालागढ़ में किसी समय में अच्छा चल रहा नाव उद्योग आजकल ठप्प पड़ा है। सभी फोटो: गुरविंदर सिंह

भट्टाचार्य ने बताया कि सप्तग्राम का पड़ोसी क्षेत्र एक समृद्ध बंदरगाह हुआ करता था। उन्होंने बताया, "बालागढ़ के ग्रामीणों को जब भी यहां लाया जाता था, वे जहाजों की मरम्मत करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने नाव बनाने की कला सीख ली, जो उन दिनों इनके लिए बहुत लाभदायक थी।"

लेकिन अब और नहीं!

कुतुबुद्दीन ने गांव कनेक्शन को बताया, "हम सदियों से लकड़ी के नाव बनाने का काम कर रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने भी यही काम किया है। हम बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत कार्यों के लिए प्रशासन को नावों की आपूर्ति करते हैं, लेकिन हमें बदले में कोई सुविधाएं नहीं मिलती हैं। हमें बैंकों से लोन तक नहीं मिलता है क्योंकि वे हमें डिफॉल्टर्स मानते हैं।"

नाव बनाने वाले शेख कुतुबुद्दीन

इस वजह से नावों की मांग घटती गई। फ्लाईओवर के निर्माण और बेहतर परिवहन सुविधाओं के कारण अब एक महीने में महज एक या दो नावों की बिक्री होती है।

कुतुबुद्दीन कहते हैं, "लेकिन, मानसून अच्छी खबर है। हम एक सप्ताह में कम से कम दो नाव बेच लेते हैं, क्योंकि बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में नावों की जरूरत होती है। मगर हमारे पास बाकी साल के लिए कोई काम नहीं होता है, जिसकी वजह से रोजी-रोटी के लिए हमें दूसरे राज्यों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।"

कड़ी मेहनत और कोई लाभ नहीं

नाव निर्माता कहते हैं कि नाव बनाने में जो मेहनत लगती है, उस हिसाब से उनको आय नहीं मिल पाता। बालागढ़ के राजबंशी पैरा (हैमलेट) में नाव बनाने का काम करने वाले 42 वर्षीय शेख सुल्तान कहते हैं, "हम दिन में लगभग दस से बारह घंटे काम करते हैं। एक छोटी नाव के निर्माण में एक सप्ताह का समय लगता है। वहीं एक बड़ी नाव को बनने में एक महीने तक का समय लगता है। मगर उसके बदले में हमें बहुत कम लाभ मिलता है।"

सुल्तान ने बताया कि छोटी नावों को बनाने में लगभग 10,000 रुपये की लागत आती है, जबकि बिक्री मूल्य सिर्फ 12,000 रुपये है। वहीं बड़ी नौकाओं की लागत 90,000 रुपये से 95,000 रुपये के बीच आती है और इसे लगभग एक लाख रुपये में बेचा जाता है।

बालागढ निर्वाचन क्षेत्र में राजबंशी पैरा, जहां नावें बनाई जाती हैं।

सुल्तान शिकायत करते हुए कहते हैं, "हमें निजी उधारदाताओं से ऋण लेना पड़ता है क्योंकि बैंक हमें लोन देने से इनकार करते हैं।"

बालागढ़ के नाविकों की शिकायत है कि किसी भी राजनीतिक दल ने नाविकों की आजीविका, रोजगार और गिरती आय की चिंता पर अब तक ध्यान नहीं दिया है। उन्हें हालिया पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में अपने क्षेत्र के उम्मीदवारों से भी बहुत कम ही उम्मीद है।


तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने अपने दो बार के मौजूदा विधायक आशिम कुमार मांझी को टिकट देने से इनकार कर दिया और 70 वर्षीय दलित लेखक और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता मनोरंजन ब्यापारी को मैदान में उतारा है। वहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सुभाष चंद्र हलदर को टिकट दिया है।

पिछले 20 साल में ब्यापारी रिक्शा-चालक, डोम (जो श्मशान में शव जलाते हैं) और मिड-डे मील रसोइया का काम कर चुके हैं। वह पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से आए हुए एक पूर्व शरणार्थी हैं। उन्होंने 1970 के दशक में नक्सली आंदोलन के दौरान दो साल से अधिक का समय जेल में भी बिताया है।

ब्यापारी ने कहा कि वह जीत के बारे में निश्चिंत हैं। उन्होंने आश्वासन दिया कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो वे नाव निर्माताओं के लिए काम करेंगे। बंगाल में टीएमसी एक दशक से सत्ता में है, लेकिन बयापारी ने राज्य में उद्योगों के नुकसान के लिए 34 वर्षीय वाम शासन को दोषी ठहराया, जिसमें नाविकों की दुर्दशा भी शामिल है।

मनोरंजन ब्यापारी (फूलों की माला पहने हुए)

हालांकि बीजेपी इसके लिए टीएमसी पर आरोप लगा रही है। भाजपा प्रत्याशी हलदर कहते हैं, "लोग तृणमूल के कुशासन से निराश हैं। हम जहां भी जाते हैं, मतदाता हमारा 'जय श्री राम' के नारे लगाकर स्वागत करते हैं। यहां तक ​​कि अल्पसंख्यक समुदाय भी हमारा समर्थन कर रहा है। हम जीतने जा रहे हैं।"

बालगृह में नाव बनाने वाले 55 वर्षीय मजदूर नेपाल बिस्वास बताते हैं, "एक दशक पहले नाव बनाने के कार्य में लगभग एक हजार से दो सौ लोग शामिल होते थे जोकि अब सात सौ पर आ गए हैं।"

भाजपा प्रत्याशी सुभाष चंद्र हलदर का बैनर।

उन्होंने आगे कहा, ''हमें साल में सिर्फ चार से पांच महीने काम मिलता है, जिसमें रोज लगभग तीन सौ से तीन सौ पचास रुपये तक का आय होता है। यह हमारे परिवार को चलाने के लिए अपर्याप्त है। किसी भी राजनीतिक दल ने हमारे लिए कुछ नहीं किया।"

दूसरे राज्यों में पलायन कर रहें नाव निर्माता

कुतुबुद्दीन अपने घरेलू और पारंपरिक काम को जीवित रखना चाहते हैं, लेकिन सरकार के उदासीन रवैये ने उन्हें निराश कर दिया है। नाव निर्माताओं का कहना है कि एक उचित आय के अभाव ने उन्हें अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़ने और बेहतर अवसरों के लिए बाहर पलायन करने के लिए मजबूर किया है।

आयु इन नाव निर्माताओं के जीवन में एक बड़ी भूमिका निभाता है। उम्र बढ़ने के साथ इनकी आय भी कम होती जाती है। 62 वर्षीय जॉयदीप मांझी 12 घंटे के कामकाजी दिन के बाद सिर्फ 100 रुपये ही कमा पाते हैं।

बालगढ़ में नाव बनाने वाले मजदूर नेपाल बिस्वास।

मांझी ने बताया, "उम्र बढ़ने के साथ मजदूरी कम हो जाती है, क्योंकि लकड़ी के भारी लॉग को उठाना और उन्हें ठोकना मुश्किल होता है। हमें बेकार माना जाता है और निर्माताओं के लिए हम बोझ बन जाते हैं। इसलिए वे हमें एक मामूली राशि का भुगतान करते हैं। इस पैसे के साथ एक दिन में एक समय का भोजन करना भी मुश्किल है। मगर यह बेकार बैठने से बेहतर है।"

हालांकि बातचीत जब चुनाव पर वापस लौटती है तो कुतुबुद्दीन किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट देने को तैयार हैं, जो उन्हें एक अच्छी आजीविका और उनके बच्चों के लिए पर्याप्त भोजन का आश्वासन दे सके।

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