क्या लेदरबैक कछुए को अदालत जाना चाहिए?

Shrishtee Bajpai | May 15, 2023, 11:08 IST
लेदरबैक कछुआ का अस्तित्व और जीवन अधिकार संकट में है, वह शायद इस संकट से अकेले नहीं निपट सकता। वह कोर्ट से जाकर अपने जीवन जीने के अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकता। पर क्या हम और आप, उनकी आवाज़ बन सकते हैं? क्या वह आवाज़ बनकर हम उसके और खुद के भविष्य को बचा सकते हैं?
Marine Turtle
गलाथिया खाड़ी अभ्यारण्य को 1997 में समुद्री कछुओं के संरक्षण के लिए घोषित किया गया था। ये अभ्यारण्य उष्ट कटिबंधीय सदाबहार वर्षा वन, तट आश्रय, वनस्पति के अलावा कई दुर्लभ जीवों का ठिकाना भी है। इनमें लेदरबैक कछुआ, पानी की छिपकली, पाइथन, निकोबार मेगापोड, निकोबार कबूतर, मलयन पाम सिवेट सहित कई जीव शामिल हैं।

यह लेदरबैक कछुओं के लिए उत्तरी हिंद महासागर के सबसे बड़े घोंसले के स्थलों में से एक है। लेदरबैक कछुए पलायन के लिए 10 हज़ार किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए जाने जाते हैं। यह दूरी वे आश्रयस्थल से अपने घोंसले के स्थल के बीच तय करते हैं। ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट की ओर दक्षिण-पूर्व में और अफ्रीका के पूर्वी तट की ओर दक्षिण पश्चिम में जाते हैं।

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साल 2021 के जनवरी महीने में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति ने गलाथिया खाड़ी वन्य जीव अभयारण्य की अधिसूचना को रद्द कर दिया। इसके चलते, यहां पर रहने वाले पशु-पक्षियों पर भी इसका असर पड़ेगा। इससे वैज्ञानिकों, प्रकृति प्रेमियों और शोधकर्ताओं में काफी निराशा है। प्रस्तावित निकोबार परियोजना, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा तैयार योजना, राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्य योजना (2021-2026) का मजाक उड़ाती है। यह कार्ययोजना भारत के समुद्री तट के कछुओं की सुरक्षा के लिए बनाई गई थी, जिसमें अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के लेदरबैक कछुआ भी शामिल हैं। लेदरबैक कछुओं को वन्य प्राणी अधिनियम 1972 के अनुच्छेद एक के तहत भी संरक्षण प्राप्त है।

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संयुक्त राष्ट्र का सदस्य होने के कारण भारत का दायित्व है कि संयुक्त राष्ट्र की घोषणा का पालन करे, जो वर्ष 2009 में पारित हुई थी। जिसमें कहा गया है कि “प्रकृति का अधिकार इस मान्यता पर आधारित है कि मानव जाति और प्रकृति साझा करना मौलिक है। गैर-मानव केंद्रित संबंध हमें इस ग्रह पर साझा अस्तित्व प्रदान करते हैं और आगे काम करने व ऐसे संबंधों का सम्मान करने के लिए मार्गदर्शन करते हैं। प्रकृति के अधिकारों को मान्यता देने वाले कानूनी प्रावधान, कभी कभी पृथ्वी न्यायशास्त्र के रूप में जाने जाते हैं। इसमें संविधान, राष्ट्रीय कानून और स्थानीय कानून भी शामिल हैं।”

संयुक्त राष्ट्र महासभा के हिस्से के रूप में भारत ने स्वीकार किया है कि जैव विविधता का नुकसान, मरुस्थलीकरण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक चक्र में बाधाएं उत्पन्न होना, प्रकृति और पारिस्थितिकी तंत्र की अखंडता और जीवन सहायक प्रक्रियाओं की अवहेलना की कीमत चुकाना है।

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लेदरबैक कछुए पलायन के लिए 10 हज़ार किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए जाने जाते हैं।

ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (पार्टियों का 26वां सम्मेलन- कॉप-26) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक शब्द आंदोलन’का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने पर्यावरण के लिए जीवनशैली (लाइफ) कहा। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि लचीली और टिकाऊ जीवनशैली की ज़रूरत है, यह न केवल मौजूदा जलवायु संकट से निपटने के लिए है बल्कि अप्रत्याशित चुनौतियों से निपटने के लिए भी आवश्यक है। जैसे कि भविष्य की महामारियाँ और प्रकृति के साथ सद्भाव में रहने के लिए परिस्थितियों के निर्माण करने के लिए भी ज़रूरी है। चौंकाने वाली बात यह है कि भारत सरकार ऐसी परियोजना को मंजूरी दे रही है जो ‘जीवन’के सभी रूपों का उल्लंघन करती है।

सार्वजनिक ट्रस्ट सिद्धांत या पब्लिक ट्रस्ट डॉक्ट्रिन की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गयी है। इस धारणा के आधार पर जनता को कुछ भूमि और क्षेत्रों को अपनी प्राकृतिक विशेषताओं को बनाए रखने की अपेक्षा करने का अधिकार है। इससे एक सकारात्मक कार्रवाई माना गया है। पिछले एक दशक में अदालतों ने प्रकृति के अधिकार को मान्यता देते हुए महत्वपूर्ण निर्णय भी दिए हैं।

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में सभी प्राणिजगत पक्षी व जलीय जीव को एक 'जीवित इन्सान' (लिविंग पर्सन) स्वरूप अधिकार दिए हैं। वर्ष 2020 में मद्रास उच्च न्यायालय ने ‘प्रकृति माँ' को जीवित प्राणी के रूप में घोषित करते हुए राज्य और केंद्र सरकारों को निर्देशित किया और उनकी हर संभव तरीके से रक्षा करें।

लेदरबैक कछुओं का अस्तित्व और जीवन अधिकार संकट में है, वह शायद इस संकट से अकेले नहीं निपट सकता। वह कोर्ट से जाकर अपने जीवन जीने के अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकता। पर क्या मैं और आप, उनकी आवाज़ बन सकते हैं? क्या वह आवाज़ बन कर हम उनके और खुद के भविष्य की रक्षा कर सकते हैं?

सृष्टि बाजपेयी पर्यावरण शोधकर्ता और लेखिका हैं, यह लेख मूल रूप से फ्रंटलाइन में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है।

अनुवाद: बाबा मायाराम

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