महात्मा गाँधी ने वायसराय माउन्ट ब्रिटेन से आग्रह पूर्वक कहा कि भारत का बटवारा मत कीजिए। वायसराय का जवाब था विकल्प क्या है गाँधी जी ने पूरे विश्वास से कहा था कि विकल्प है। अंतरिम सरकार को बर्खास्त करके जिन्ना के नेतृत्व में वैकल्पिक सरकार बना दीजिये। जिन्ना शायद यही चाहते थे, लेकिन इस प्रस्ताव को नेहरू ने नहीं माना। यदि गाँधी जी का सुझाव मान लिया गया होता तो शायद भारत का विभाजन नहीं होता।
लेकिन माउंट ब्रिटेन को इस विचार के सफल होने पर पूरा संदेह था भले ही उन्हें कोई कष्ट नहीं होता यदि नेहरू के बजाय जिन्ना अखंड भारत के प्रधानमंत्री बन जाते। कहते हैं उन्होंने पलट कर प्रश्न कर दिया क्या नेहरू मान जाएंगे और शायद गांधी जी को यह भरोसा भी रहा होगा कि नेहरू जी उनकी बात नहीं टालेगें। माउंट ब्रिटेन की सोच सही थी नेहरू जी मानने को तैयार नहीं थे, और गांधी जी को वह उपाय भी कामयाब होता नहीं दिखा। भले ही कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक लोग वल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे और उन सभी कांग्रेस समितियों ने इस आशय का प्रस्ताव भी पारित किया था।
जिस समय जवाहर लाल नेहरू उद्घोष कर रहे थे “व्हेन द होल वर्ड स्लीप्स , इंडिया विल अवेक टु लाइफ एंड फ्रीडम” तब तक उन्हें पता नहीं था, कौन सा इंडिया कितना है, इन सवालों का जवाब ब्रिटिश हुकूमत के सर्वेयर रेडक्लिफ नाम के व्यक्ति के जेब में था जो उसने आजादी के दो दिन बाद सार्वजानिक किया था। यदि पहले से सीमा रेखा सार्वजनिक होती तो लाहौर भारत में होता और इतना खून – खराबा नहीं होता।
जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने देश की किस्मत जवाहर लाल नेहरू के हाथो में सौंपी थी तो उन्हें कल्पना नहीं होगी कि नेहरू भारत को तक़सीम कर देंगे। देश का बटवारा रोकने के लिए गांधी जी ने हर संभव उपाय किये।
कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक लोग वल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे और उन सभी कांग्रेस कमेटियों ने इस आशय का प्रस्ताव भी पारित किया था।
लेकिन गांधी जी के एक इशारे पर वल्लभ भाई पटेल मान गए और अपने को पीछे हटा लिया और गांधी जी युग दृष्टा थे, क्योंकि आजादी के 1 साल के अंदर जिन्ना का देहांत हो गया। मोहम्मद अली जिन्ना टीवी के मरीज थे जिस रहस्य उनके डॉक्टर मुंबई चेस्ट एस्पेस्लिस्ट पटेल या फिर वे स्वयं जानते थे। यदि जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दिया गया होता तो 1 साल के बाद कोई दूसरा भारतीय प्रधानमंत्री बन जाता और गांधी जी की इच्छा पूरी हो जाती देश का बंटवारा नहीं होता।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता के गांधी जी ने शायद आजादी की लड़ाई के दिनों में ही मन बना लिया था कि देश की बागडोर नेहरू के हाथों में सौंप दी जाएगी। उन्होंने पहले तो बड़ी जतन से नेहरू के रास्ते से नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हटाए और बाद में वल्लभ भाई पटेल को समझाकर नेहरू जी का रास्ता साफ कर दिया और अन्ततः उन्हें कांग्रेस की बागडोर ही नहीं देश की बागडोर दे दिए। इस सब के बावजूद आजाद भारत की बागडोर नेहरू जी के हाथों में आने के बाद देश की दिशा वह नहीं थी, जो गांधी जी की कल्पना में थी। मुझे यह तो नहीं पता कि गाँधी जी के विचार लागू न किये जाने पर उनके मन पर क्या बीती होगी।
गांधी जी शुद्ध सनातनी थे, रामराज्य स्थापित करना चाहते थे, और रघुपति राघव राजा राम उनका प्रिय भजन था। यह सब बातें जिन्ना को ना पसंद थी और उसके विचार कुछ हद तक नेहरू जी से मिलते जुलते थे और उनकी सोच सेकुलरवादी थी। गांधी जी कहते थे कि भारत गाँव में बसता है, लेकिन नेहरू जी को यह सब बहुत पसंद नहीं था और उन्होंने गांधी जी के रामराज्य अथवा ग्राम स्वराज के सपने को पूरा करने के लिए कुछ नहीं किया। गांधी जी ने सोचा था कि आजाद भारत का प्रधानमंत्री कुटिया में रहेगा, लेकिन नेहरू जी तो आनंद भवन में पले-बड़े थे, और प्रधानमंत्री बनने के बाद तीन मूर्ति भवन में रहे थे।
भारत के पिछड़े और दलित समाज का उत्थान करना ही गांधी जी की चिंता का विषय था, लेकिन नेहरू जी तो किसी भी प्रकार के आरक्षण के घोर विरोधी थे। यह अलग विषय है कि आरक्षण के बावजूद इन वर्गों का विकास 80 साल में संतोषजनक ढंग से नहीं हो सका जब की डॉक्टर आंबेडकर को भरोसा था कि दलित समाज 10 साल में सबके बराबर आ जायेगा।
अनेक मामलों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार गांधीजी से मेल खाता थे। गांधी जी विभाजन के खिलाफ थे, और संघ भी अखंड भारत का पक्षधर था कालांतर में इसके द्वारा अंत्योदय का सिद्धांत भी लाया गया। इन वर्गों के उत्थान की इतनी चिंता थी कि गांधी जी को कुछ समय के लिए वह हरिजन कॉलोनी जिसे भंगी कॉलोनी कहते थे, उसमें जाकर रहे थे। वास्तव में खान-पान रहन-सहन और जीवन शैली के मामले में भी नेहरू जी का गांधी से कोई तालमेल नहीं था। इस मामले में जयप्रकाश नारायण के विचार और जीवन शैली काफी हद तक गांधीवादी थी।
पिछड़े और दलितों के उत्थान की चिंता गांधी जी के समान यदि किसी की थी तो वह थे डॉक्टर अंबेडकर और बाबू जगजीवन राम। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में भी कोई जातीय भेद-भाव नहीं होता शायद यह बात कम लोगों को पता होगी।
सच कहा जाए तो नेहरू जी की सोच कहीं दूर-दूर तक गांधी जी के विचारों से मेल नहीं खाती थी, विशेष कर आर्थिक विकास और ग्रामोत्थान के मामले में। नेहरू जी बड़ी-बड़ी योजनाओं फिर चाहे भाखड़ा नांगल बाँध हो रिहंद, कोयना, झमरानी बाँध आदि लेकिन गांधी जी कुटीर उद्योग के पक्षधर थे। ग्राम स्वराज पाने के लिए उनकी अपनी योजना थी, और आजाद भारत में नेहरू जी ने उस योजना को नहीं माना गांधी जी के विचारों को लागू नहीं किया। तब पता नहीं कौन सी बात थी कि नेहरू जी की कौन सी विशेषता थी जिसे गांधी जी को इतना प्रभावित किया था, क्यों उन्होंने अनेक-अनेक दावेदारों या सक्षम सुयोग्य लोगों को किनार करके नेहरू जी का पक्ष लिया। कुछ तो बात जरूर होगी जो सामान्य रूप से समझ में नहीं आती।
आजादी के पहले जो समय बीता उसमें एक तरफ तो आजादी का बेसब्री से इंतजार था, तो दूसरी तरफ देश विभाजन की तलवार लटक रही थी। गांधी जी किसी कीमत पर बटवारा नहीं चाहते थे, लेकिन दूसरी तरफ विनायक दामोदर सावरकर जैसे लोग न केवल बंटवारे के पक्ष में थे बल्कि हिंदू और मुस्लिम बंटवारे के बाद आबादी की अदला-बदली भी चाहते थे। संघ के स्वयंसेवक अखंड भारत चाहते थे, और बंटवारे के खिलाफ थे लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना हर हाल में लेकिन हिन्दू -मुस्लिम आबादी के अनुपात में देश का बंटवारा चाहते थे।
जिन्ना का तर्क था कि बंटवारे के बाद मुसलमान की आबादी अल्पमत में हो जाएगी और उन्हें न्याय नहीं मिलेगा। इस तर्क के खिलाफ मौलाना अबुल कलाम आजाद ने जिन्ना को बताया कि बंटवारे के बाद भारत में जो मुसलमान बचेंगे उनकी संख्या तो और भी कम होगी मौलाना आजाद ने अपनी पुस्तक” इंडिया विंस फ्रीडम” में इसका उल्लेख भी किया है| कि तब उन्हें कैसे न्याय मिलेगा, जब देश का बंटवारा हो जाएगा? जिन्ना के समझ में बंटवारे के खिलाफ कोई भी तर्क नहीं आता था। नेहरू जी को शायद यह डर था कि यदि बंटवारे की शर्त न मानी गई तो बहुत खून-खराब होगा, लेकिन शायद उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि बंटवारे के बाद उससे भी अधिक खून-खराब होगा, और बचे हुए भारत में भी खून खराब होता रहेगा।
जब देश आजाद हुआ तो बाकी सभी नेताओं को आनंद की अनुभूति हो रही थी, लेकिन गांधी जी को कोई विशेष आनंद नहीं आ रहा था और यही कारण है कि जब दिल्ली में जश्न मनाया जा रहा था और नेहरू जी पार्लियामेंट में आजादी की घोषणा कर रहे थे, लेकिन गांधी जी वहां नहीं थे, बल्कि वह तो नोवा खाली में शांति स्थापना के लिए गए हुए थे। नोवा खाली में हिंदू मुस्लिम दंगे हुए थे, और मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर आक्रमण अधिक हुए थे गांधीजी इसीलिए वहां गए हुए थे। मुझे यह लगता है कि भले ही गांधी जी के सिद्धांतों पर चलकर भारत आजाद हुआ था, लेकिन आजादी के बाद जो खून खराब हुआ जो जान गई मैं समझता हूं इसे जरूर गांधीजी को बहुत पीड़ा हुई होगी। कहते हैं कि जब शिमला में नेहरू माउंट ब्रिटेन और जिन्ना ने भारत बंटवारा और देश की आजादी पर हस्ताक्षर किए थे, तो गांधी जी उसमें सम्मिलित नहीं हुए थे, भले ही वह उस समय शिमला में मौजूद थे, इससे स्पष्ट है गांधी जी को जितना आजादी से सुख नहीं मिला था उससे अधिक अशांति और खून खराबे से पीड़ा मिली थी।
शायद गांधी जी को इस बात का भी आभास हो गया होगा कि जिन लोगों के हाथ में आजाद भारत की बागडोर उन्होंने सौंपी थी उनके द्वारा गांधीवादी विचारों को उचित सम्मान नहीं मिल पाएगा, फिर चाहे सनातन जीवन शैली हो चरखा और खादर का स्वावलंबन का सच हो ग्राम स्वराज हो या फिर अर्थव्यवस्था में गांधीवादी सोच का स्थान हो। लेकिन अब उनके पास अधिक समय नहीं था और शायद वह अपने विचारों के लिए फिर से आंदोलन कर सकते थे यदि उनके पास समय होता। स्वदेशी सरकार के सामने।