सनातन परंपरा में बोलने की असीमित आजादी थी और है

Dr SB Misra | Jul 20, 2024, 13:14 IST
समाज में माता-पिता और गुरु का स्थान सबसे ऊंचा हुआ करता था। परिजन आपस में स्नेहपूर्ण व्यवहार तो रखते ही थे ग्रामवासी भी परस्पर स्नेह पूर्ण संबंधों से जुड़े रहते थे। परस्पर भिन्न विचारों का सम्मान और स्वीकृति हुआ करती थी कोई भी अपने विचारों को दूसरों पर थोपने की कोशिश नहीं करता था।
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शिवरात्रि का समय था और बालक रूप में स्वामी दयानंद जी सरस्वती शिवार्चन पूजा पाठ देख रहे थे। कहते हैं एक चुहिया शंकर जी के शिवलिंग पर चढ़कर मिठाई खा रही थी, तो बालक दयानंद जी के मन में आया कि यह मूर्ति जो एक चुहिया को नहीं हटा सकती, हमारे समाज का कल्याण कैसे कर पाएगी? बड़े होकर उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया और एक ऐसा समाज तैयार किया जिसे आर्य समाज कहते हैं। जो मंदिर बनाने की आवश्यकता नहीं समझता, जो मूर्तियां के माध्यम से परमेश्वर की पूजा नहीं करता, लेकिन वह वेद शास्त्रों को मानता है, सनातन परंपराओं को मानता है और प्राकृतिक सत्य को मानता है।

ऐसी आजादी मैं नहीं समझता दुनिया कि किसी दूसरी परंपरा में दी जा सकती है, जो विचारों के एक स्तंभ पर हमला करती हो। इतना ही नहीं सनातन परंपरा में समय-समय पर वैचारिक मतभेद और मूलभूत सैद्धांतिक मतभेद स्वीकार किए गए हैं। शिव की आराधना करने वाले शैव और विष्णु की पूजा करने वैष्णव में संघर्ष के अवसर आए हैं और आज भी कुछ लोग शिव को और कुछ लोग विष्णु को श्रेष्ठ मानते हैं। वैचारिक मतभेद का एक दृष्टांत है द्वैत और अद्वैत ब्रह्म की सोच का, जिसमें अनेकेश्वर वादी और एकेश्वर वादी साथ-साथ रह पाते हैं। यह कोई साधारण मतभेद नहीं था, जिसको शंकराचार्य जी ने विशिष्टाद्वैत की परिकल्पना करके हल किया था। इस तरह चाहे शैव और वैष्णव का मतभेद हो अथवा द्वैत और अद्वैत का, या फिर चाहे सगुण और निर्गुण ईश्वर का मतभेद हो, सबको सनातन परंपरा ने आत्मसात किया है। जहाँ कहीं भी वैचारिक मतभेद हुआ, तो प्रजातांत्रिक तरीके से उसे शास्त्रार्थ के द्वारा हल किया जाता रहा है ना कि शस्त्र प्रयोग के द्वारा। इस प्रकार के शास्त्रार्थ निर्णायक होते थे अनेक विद्वान उसे सुनते और समझते थे। ऐसी थी सनातन परंपरा और इसका एक अंश अभी भी बाकी है जब वैचारिक युद्ध नहीं वैचारिक मतभेद होता है।

अपने धर्म और विचारों का प्रचार प्रसार करने के लिए जब सनातनी लोग विदेशों को गए तो उनके हाथ में पुस्तक और दिमाग में सद्विचार थे। कभी भी सनातन परंपराओं को मानने वाले लोग शस्त्र लेकर धर्म प्रचार के लिए नहीं गए। दुनिया के तमाम देशों तक भारतीय धर्म और विचारों का प्रचार प्रसार किया गया है जिनमें प्रमुख शाखाएं दक्षिण पूर्व के देश थाईलैंड, कंबोडिया, इंडोनेशिया, चीन और बर्मा आदि में थी। इसी प्रकार पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और अन्य-अन्य देशों को प्रचारक पहुंचे थे। दक्षिण में श्रीलंका को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने स्वयं अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को भेजा था। यह सब के सब शांतिपूर्ण जनकल्याण के लिए गए हुए थे और आज तक उनके पद चिन्ह अलग-अलग मंदिरों, मठों और परंपराओं के रूप में मौजूद हैं।

दूसरे देशों से जो यात्री भारत आए थे, जैसे चीन से ह्वेनसांग और फाहियान, मध्य पूर्व से इब्नेबतूता और ऐसे ही न जाने कितने यात्री आए और उनको यहाँ का वातावरण शांतिपूर्ण लगा। हमारे देश में सामाजिक रचना के लिए जो वर्णाश्रम व्यवस्था स्थापित की गई थी वह अपने में अद्भुत और अनोखी थी । इसमें वर्ण से मतलब रंग नहीं है बल्कि वर्ण का अर्थ हैं कर्मनुसार जाति, भगवान कृष्ण ने यह कहा भी था ‘’चतुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’’। तो यह जाति व्यवस्था गुणधर्म के हिसाब से बनी थी और वह स्थाई नहीं थी इसमें कोई भी व्यक्ति निचले पायदान से ऊंची जात में और ऊंची जाति वाला गलत काम करने पर नीचे उतार दिया जाता था। यह व्यवस्था बहुत समय तक चली होगी जब सवर्णों ने अपने को ब्राह्मण या क्षत्रिय का बेटा कहकर इस जाति से जोड़ लिया जिस जाति के उसके माता-पिता थे । यही से वर्ण व्यवस्था का बिगाड़ आरंभ हो गया और इस बिगाड़ को तमाम जो विदेशी धर्म प्रचारक आए उन्होंने इसका फायदा उठाया। यदि कोई व्यक्ति उनका धर्म स्वीकार नहीं करता था तो उसे चांडाल या जमादार का काम कराया जाता था । इसके लिए हमारी वर्ण व्यवस्था नहीं जिम्मेदार थी बल्कि इसके लिए स्वार्थी धर्म प्रचारक जिम्मेदार थे और धर्मांतरण का यह एक बहाना भी बन गया।

अब वर्ण व्यवस्था अनुपयोगी हो गई है क्योंकि समाज वैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ चुका है और सामाजिक नियंत्रण समाप्त हो गया है। केवल शासन का नियंत्रण है जिसमें वर्ण व्यवस्था के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। जहाँ तक आश्रम व्यवस्था का प्रश्न है, वह भी समाज के लिए बहुत ही उपयोगी हुआ करती थी। 25 साल तक ब्रह्मचर्य आश्रम, 50 तक गृहस्थ, 75 तक वानप्रस्थ और 75 के बाद संन्यास आश्रम में कोई व्यक्ति प्रवेश करता था। कोई राजा 75 साल के बाद राजगद्दी से चिपके रहना पसंद नहीं करता था और दूसरे लोग राजगद्दी के लालच में सिंहासन पर आसीन राजा का विरोध भी नहीं करते थे। सत्ता हस्तांतरण शांतिपूर्ण हुआ करता था। इसके लिए राम राज्य में भरत का उदाहरण सर्वश्रेष्ठ है। दूसरी व्यवस्थाओं में ऐसा नहीं होता था और राजगद्दी के लिए न पारिवारिक संबंध देखते थे और न उम्र का कोई लिहाज करते थे।

समाज में माता-पिता और गुरु का स्थान सबसे ऊंचा हुआ करता था। परिजन आपस में स्नेहपूर्ण व्यवहार तो रखते ही थे ग्रामवासी भी परस्पर स्नेह पूर्ण संबंधों से जुड़े रहते थे। परस्पर भिन्न विचारों का सम्मान और स्वीकृति हुआ करती थी कोई भी अपने विचारों को दूसरों पर थोपने की कोशिश नहीं करता था। केवल परिवार और गाँव के ही नहीं बल्कि राष्ट्र की भी चिंता रहती थी। अपने देश की नदियां, पर्वत, वनस्पति और वन्य जीव तक सह अस्तित्व के अधिकारी माने जाते थे। देश का भविष्य क्या होगा इसकी भी चिंता और चिंतन हुआ करता था जैसे सातवीं शताब्दी में भारत की प्रगति इतनी हो चुकी थी की औद्योगिक क्रांति यूरोप से 800 साल पहले भारत में आ सकती थी। यह बात कैनबरा विश्वविद्यालय ऑस्ट्रेलिया के इतिहास के प्रोफेसर ए. एल. बासम ने अपनी पुस्तक ‘वन्डर दैट वाज इंडिया’’ में लिखी है।

वास्तव में सनातन परंपरा विश्व बंधुत्व की रही है और भारत में समय-समय पर अनेक-अनेक कष्टों में घिरे लोग आते रहे और उनका शरणार्थी के रूप में नहीं या भिखारी के रूप में नहीं बल्कि अतिथि के रूप में सम्मानपूर्वक स्वागत किया गया। ऐसे तमाम न जाने कितने लोग शामिल हैं। सऊदी अरब के बाहर पहली मस्जिद भारत के केरल प्रांत में बनी थी और इतना ही नहीं ईरान से पारसी और दूसरे लोग आते रहे सब भारत में घुल-मिल गए। मुगलों और अंग्रेजों को यदि छोड़ दें जो इस समाज का अंग नहीं बन पाए, क्योंकि वह आक्रमण करके शासक बनकर आए थे, तो अन्य किसी समुदाय को यहाँ रहने और जीवन बिताने में कभी शरणार्थी का भाव नहीं लगा होगा। धर्म के आधार पर भारत के बंटवारे के बाद भी यहाँ पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान से मुसीबत के मारे लोग आते रहे और उनके निवास के लिए नेहरू लियाकत संधि की गई थी। आज भी सरकार की चिंता है कि मुसीबत के मारा यदि कोई समुदाय देश में आता है तो उसे यथोचित स्थान मिलना चाहिए। इस प्रकार सनातन परंपरा में न केवल अभिव्यक्ति की पूरी आजादी थी बल्कि संकटग्रस्त मानव जाति के लोगों के लिए आतिथ्य भाव की कमी नहीं रही।

इतना तो सर्व विदित है कि हिंदुस्तान में रहने वाले हिंदू समाज ने अतीत में बहुत थपेड़े खाए हैं और फिर भी कभी भी ना तो आक्रमणकारी बनकर किसी देश पर कब्जा किया और ना आततायी बनकर किसी समाज को कष्ट पहुंचाया। जो लोग हिंदू समाज को हिंसक कहते हैं उनकी रगों में सनातनी खून नहीं हो सकता और वह सनातनी परंपरा में पले बड़े नहीं हो सकते। आक्रमणकारी अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते हुए भी महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा पर बराबर जोर दिया था। मैं समझता हूँ कि सनातनी समाज या हिंदू समाज को हिंसक कहना खुद अपने में हिंसा है जैसा गांधी जी ने वाणी की हिंसा के रूप में बताया था, आशा की जानी चाहिए कि सनातनी परम्पराओं के आलोचक, शत्रु भाव न रखते हुए यदि कोई दोष है तो उसके सुधार की चिंता अवश्य करेंगे। यह हिंदू समाज की अनवरत चली आ रही परंपरा है जिसमें प्रत्येक 12 वर्ष के बाद विद्वान लोग इकट्ठा होते थे और जो विकृतियाँ आ जाती थीं उन्हें दूर करने के सुझाव देते थे, आज भी कुंभ के रूप में वही परंपरा प्रयागराज में संगम के स्थान पर चली आ रही है।

जब माननीय उच्चतम न्यायालय ने हिंदू को एक धर्म न मानते हुए उसे जीवन शैली माना तो स्पष्ट हो जाना चाहिए के ना उसकी कोई किताब है ना उसका कोई प्रवर्तक है और ना किसी के कहने पर वह जीवन शैली निर्धारित होती है। आशा की जानी चाहिए कि इस भारत भूमि पर रहने वाले सभी जन कुटुंब की भांति रह पाएंगे तभी वसुधैव कुटुम्बकम का विचार सार्थक हो पायेगा और सनातन परंपरा आगे बढ़ेगी। सनातन परंपरा में भारतीय समाज ने अपने विचारों से बिल्कुल उलट सोच को भी बर्दाश्त किया है। हमारे यहाँ चार्वाक नाम के किसी फक्कड़ ने कहा था ‘’यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।" लेकिन त्याग तपस्या के जीवन की वकालत करने वाले समाज ने उसे कोई दंड नहीं दिया बल्कि उसे अनदेखा किया। हमारे यहाँ किसी सुकरात को जहर का प्याला नहीं पीना पड़ा और किसी ईसा मसीह को शूली पर नहीं चढ़ना पड़ा। हमेशा से वैज्ञानिक सोच रही है विपरीत विचारों को सुना गया है और उन सबके बीच से मध्य मार्ग निकाला गया है। आशा की जानी चाहिए कि यह परंपरा चलती रहेगी और सनातन विचार बढ़ता रहेगा इसी में हम सब का कल्याण है।

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