पीरियड: इन लड़कियों के लिए कितना मुश्किल, कितना आसान

Jigyasa Mishra | Mar 23, 2019, 08:09 IST
निशा एक साल से उन्ही चार कपड़े के टुकड़ों से ही अपना गुज़ारा कर रही हैं जो उसकी मां ने उसे पहली बार माहवारी होने पर दिए थे और आज तक उसने सैनिटरी नैपकिन देखा भी नहीं। पूछे जाने पर कि वो नैपकिन इस्तेमाल करती हैं या नहीं, पहले निशा कुछ देर अपने दोस्तों का चेहरा देखती रही फिर बोली, "नेपकिन, वो क्या होता है?"
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जाले, दरभंगा। निशा को पिछले एक साल से माहवारी हो रही है। लेकिन 13 साल की निशा एक साल से उन्ही चार कपड़े के टुकड़ों से ही अपना गुज़ारा कर रही है जो उसकी मां ने उसे पहली बार माहवारी होने पर दिए थे और आज तक उसने सैनिटरी नैपकिन देखा भी नहीं। पूछे जाने पर कि वो नैपकिन इस्तेमाल करती है या नहीं, पहले निशा कुछ देर अपने दोस्तों का चेहरा देखती रही फिर बोली, "नेपकिन, वो क्या होता है?"

नॅशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार भारत के आठ राज्यों में 50% महिलाएं भी माहवारी के दौरान साफ़ सफाई नहीं रखती।

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"हमें मां ने बताया है कि यही कपड़ा धुल कर हर महीने इस्तेमाल करना है तो हम पांच दिन इस्तेमाल करने के बाद धुल धुल कर रख देते हैं ताकी अगले महीने काम में ला सकें," निशा ने गांव कनेक्शन को मेंस्ट्रुअल हाईजीन कैंप में बताया। रटगर्स के अध्ययन से पता चलता है कि माहवारी के वक़्त 89% महिलाएं कपड़ा, 2% रूई, 2% राख और मात्र 7% पैड इस्तेमाल करती हैं।

निशा बिहार के जाले ब्लॉक के एक छोटे से गांव ढर्हिया में अपने माता पिता और तीन छोटे भाई बहनों के साथ रहती है जहां गांव कनेक्शन फाउंडेशन ने 9 फ़रवरी को दरभंगा प्रशासन की मदद से एक मेंस्ट्रुअल हाईजीन कैंप आयोजित किया था। दरभंगा जिले में स्थित ढर्हिया के इस शिविर में 9 से 16 साल की 180 युवतियां और करीब 50 माताओं ने भी न सिर्फ़ भाग लिया बल्कि खुल कर माहवारी पर चर्चा की।

"हमें ऐसे शिविर बराबर करते रहने की ज़रूरत है क्यों कि जब तक हमारी महिलाएं स्वस्थ्य नहीं होंगी समाज स्वस्थ्य नहीं हो सकता," त्यागराजन एसएम, जिलाधिकारी, दरभंगा ने कहा।

यूनिसेफ के मुताबिक दक्षिण एशिया की 3 में से 1 लड़की को माहवारी के बारे में तब तक कोई जानकारी नहीं होती जब तक उन्हें खुद माहवारी नही होती।

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"आज भी अधिकतर ग्रामीण महिलाओं और युवतियों को माहवारी के समय असामान्य परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। महिलाओं में रोग की ज़्यादातर वज़ह गंदे कपड़े के वज़ह से एलर्जी और गुप्तांगों में सफ़ाई की कमी है," दरभंगा मेडिकल कॉलेज की महिला रोग विशेषज्ञ, डॉक्टर भारती ने बताया। टर एड की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 10% लड़कियों को लगता है कि माहवारी एक बीमारी है।

शिविर में मौजूद हर लड़की की अपनी अलग ही भौंचक्का कर देने वाली कहानी थी। प्रियंका को घरवालों के तकियानूसी नियमों के वज़ह से माहवारी के समय घर के बाहर, दलान पर ही सोना पड़ता है।

बिहार के घरों में दलान यानी घर के बाहर आंगन सी जगह होती है जिसमें एक तख्त पड़ा हो ता है, यदि घरवाले थोड़े पैसे वाले हुए तो उसके आगे एक जालीदार दरवाज़ा भी लगा होता है वरना बस खुली आंगन, जिसमें एक तखत और ऊपर टीन की छत। प्रियंका के घरवालोन के पास ज़्यादा पैसा नहीं हैं। "गर्मी में भी दिक्कत होती है, पंखा नहीं है यहां और ठंड में तो काफ़ी हवा आती है, तीनों और से खुला है ना, जहां सोते हैं। फ़िर पांच दिन बाद ही, नहा धो कर घर के अंदर सोने जा सकते हैं," प्रियंका बताती है।

प्रियंका और निशा की तरह सोलह साल की मंदाकिनी की भी कहानी भी मिलती जुलती थी। मंदाकिनी ने बताया कि उसके रसोई में तो कर्फ्यू लगा ही होता है बल्कि घर के पुरुषों को पानी, खाना देने की भी मनाही होती है।

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