तमिलनाडु : किसान ने सिर्फ 800 रुपये में लगाई जैविक खाद की फैक्ट्री , देखिए वीडियो

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तमिलनाडु : किसान ने सिर्फ 800 रुपये में लगाई जैविक खाद की फैक्ट्री , देखिए वीडियोजी. आर. सक्थिवेल

इरोड (तमिलनाडु)। अधिकांश किसानों को पौधों के विकास के लिए अनिवार्य माने जाने वाले नाइट्रोजन और फास्फोरस जैसे खाद की बुनियादी जानकारी होती है। वो इस तथ्य से भी अवगत होते हैं कि गाय के गोबर में नाइट्रोजन पाया जाता है। तब ऐसे में यह सवाल उठता है कि अधिकांश किसान खेतों में गोबर जैसे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध खाद का प्रयोग करने की जगह महंगे समाधान की ओर क्यों देखते हैं ? लेकिन एक किसान ने ऐसी सोच दिखाई।

चार साल पहले, तमिलनाडु के इरोड जिले के गोबिचेत्तिपालयम स्थित मृदा कृषि विज्ञान केंद्र से मिली थोड़ी सी कागजी मदद से किसान जी. आर. सक्थिवेल के ऐसे ही एक प्रयास को भारत की किसान बिरादरी ने सराहा। सक्थिवेल ने गोबर से तरल खाद बनाने में सफलता पाई जिसका फसलों की पैदावार बढ़ाने में सफल इस्तेमाल हो रहा है। यह कमाल किसी भी तरह सामान्य नहीं है और ना ही यह सब कुछ रातों-रात हुआ। जैविक आंदोलन के प्रबल समर्थक सक्थिवेल हमेशा से अपने आस-पास के संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल पर जोर देते रहे हैं और वो खेतों में प्रचुर मात्रा में मौजूद गोबर को कभी बर्बाद नहीं होने देते थे।

कई सालों के सतर्क निरीक्षण और योजना के बाद वो गोबर और मूत्र को रिसाइकिल (पुनर्चक्रण) करने की योजना लेकर आये। उन्होंने इस मकसद के लिए चार डिब्बे वाली एक इकाई की रुपरेखा तैयार की। पहला, मवेशी के शेड के फर्श को ढलवां बनाया ताकि मूत्र एक नाला या नाली (चैनल) में सीधी चली जाए। यह मूत्र एक टैंक में जाकर जमा हो जाता है। उसके बाद गोबर को हाथ की मदद से फर्श से हटा दिया जाता है। जमा किए गए और मूत्र के मिश्रण को जमने के लिए छोड़ दिया जाता है और डिब्बे में एक-एक कर उसे छान (फिल्टर) लिया जाता है। इस प्रक्रिया के परिणास्वरुप पोषक तत्वों से भरपूर फिल्ट्रेट (निस्यंद या पावित) तैयार हो जाता है। उन्होंने इस फिल्ट्रेट को पतला बनाया और ड्रिप लाइन का इस्तेमाल करते हुए गन्ने के खेत में इससे सीधे सिंचाई की। इस तरह से गोबर के अवशेष भी बर्बाद नहीं होते हैं। इसे सीधे बायोगैस बनानेवाली प्लांट में भेज दिया जाता है जो इसे मिथेन गैस में बदल देता है जिसका इस्तेमाल रसोई गैस में बतौर ईंधन के रूप में होता है।

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चार टैंक व्यवस्था ने देश के कई किसानों का ध्यान इस ओर खींचा हालांकि, महंगा होने की वजह से बहुत से लोगों ने इसे नहीं अपनाया। चार-टैंक का संग्रह, ञध्चिनाई के काम के साथ-साथ सामान और मजदूरी का खर्च मिलाकर कम से कम 40,000 रुपये का बैठता है। छोटी जोत वाले किसानों के लिए इस खर्च को वहन करना संभव नहीं है, बावजुद इसके कि अंतिम परिणाम लाभकर दिखाई पड़ रहा है।

चेन्नीमलाई में मिलाडी के किसान अलागेसन ने सक्थिवेल के मॉडल के साथ प्रयोग करने का फैसला किया। उन्होंने एक सामान्य और किफायती तरल खाद का प्लांट बनाने की सोची ताकि ज्यादा से ज्यादा किसान अपने ही खेत में तैयार खाद से फायदा उठा सकें। उन्होंने खाद जमा करने और टैंक स्थापित करने के कार्य से बचने की कोशिश की क्योंकि ऐसा करना काफी महंगा साबित होता था। उसकी जगह उन्होंने एक कंटेनर या डिब्बा खाद फैक्ट्री का विचार दिया। जिसमे न तो कोई सीमेंट का ढांचा खड़ा करना था, ना ही मजदूरी का खर्च था और ना ही कोई निर्माण का खर्च शामिल था। उन्होंने जिस सामान का इस्तेमाल किया वो एक प्लास्टिक का ड्राम (पीपा) था।

गोबर और मूत्र को एक साथ मिलाकर इसमे रख दिया जाता है और इसे 24 घंटे के लिए जमने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसमें प्रति एक किलो गोबर पर पांच किलो गाय के मूत्र को मिलाया जाता है। इसके बाद खमीर बनाने के लिए इसके मिश्रण में थोड़ा गुड़ मिला दिया जाता है। थोड़े से खर्च में उसी तरह का तरल खाद तैयार हो जाता है। इस पूरी व्यवस्था पर महज 800 से 1000 रुपये तक का ही खर्च बैठता है।

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ड्राम या पीपा व्यवस्था के दो फायदे हैं। पहला और सबसे स्पष्ट फायदा यह है कि यह आसानी से वहन करने योग्य है। दूसरा और समान रुप से अहम बात ये है कि इसे कहीं भी ले जाया जा सकता है। सीमेंट के अचल ढांचे से अलग, पीपे या ड्राम को किसान की जरूरत के हिसाब से खेत में कहीं भी रखा जा सकता है। इसका रख-रखाव भी बेहद आसान है और इसकी सफाई में भी ज्यादा वक्त नहीं लगता है।

मिलाडी के किसान अलागसेन जैविक खेती को लेकर अपने अनुभव साझा करते हैं, ""जैविक खेती खेत के बेकार सामान की पुनर्चक्रण (रिसाइकलिंग) प्रक्रिया है जिसमे इसका इस्तेमाल फिर से खेत के लिए किया जाता है। मेरे पास आंवला की 15 एकड़ की खेती है। इसके अलावा मैं नारियल, केला, गन्ना और हल्दी की भी खेती कर रहा हूं।" इसके बाद उन्होंने बताया कि खेत के लिए खाद की जैविक जरूरत के लिए गोबर और उसका मूत्र कितना अहम होता है। अलासेगन एक पीपा लेते हैं और बताते है कि इसकी क्षमता 200 लीटर है जिसके जरिये वो अपनी खाद फैक्ट्री चला सकते हैं। इसको लगाने का खर्च महज 800 रुपये है,जबकि पहले खाद फैक्ट्री बनाने में 60,000 रुपये का खर्च आया था।

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इस फैक्ट्री को देखने के लिए आसपास से पहुंचे किसान इस बात पर एकमत थे कि यह खर्च बहुत ज्यादा है। लेकिन कई सालों तक रसायन आधारित खाद के इस्तेमाल से मिट्टी की गुणवतत्ता पर बुरा असर पड़ा। ऐसे किसान जो जैविक खेती का रुख करना चाहते हैं उन्हें मनचाहा परिणाम पाने के लिए 3 से 4 साल तक का इंतजार करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में किसान 60,000 के भारी-भरकम खर्च वाले मॉडल को अपनाना नहीं चाहता था। 60,000 रुपये की लागत वाले मॉडल के बारे में वो कहते हैं, "यह बड़े किसानों के लिए है ना कि छोटे किसानों के लिए। ऐसे हम एक सस्ता मॉडल लेकर आये जिस पर सिर्फ 800 का खर्च आता है। बैरल यानी पीपा में सामने लगाने के लिए दो 3/4 ईंच का गेट वॉल्व चाहिए और पीछे लगाने के लिए एक 1 ईंच का गेट वॉल्व चाहिए। पीछे का गेट वॉल्व बड़ा चाहिए जहां से गोबर के निकलने का रास्ता होगा। इस पीपे में गोबर और मूत्र डालते हैं और उसमे चीनी मिलाते हैं, हालांकि आप चीनी की जगह पपीता भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

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इस पीपे में स्थानीय प्रजाति के गाय या दूसरे पशुओं के गोबर का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए क्योंकि दूसरों के मुकाबले इसमे ज्यादा माइक्रोबियल क्रिया होती है। इसके लिए हमें एक किलो गोबर, 5 लीटर मूत्र और चीनी चाहिए। चीनी की जगह गन्ने के अवशेष का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सभी को अलग-अलग मिलाएं और पीपे में रख दें और पानी से भर दें। इसे 24 घंटे के लिए छोड़ दें। इससे ठोस अपशिष्ट पदार्थ नीचे बैठ जाता है। एक गेट वॉल्व तलहटी से एक फीट ऊपर होता है, दूसरा सवा एक फीट ऊपर होता है। जब आप सबसे ऊपर का वॉल्व खोलेंगे तो आपको यहां साफ तरल पदार्थ मिलेगा जो आपका तरल खाद है। अब यहां एक अहम सवाल यह उठता है कि हम कैसे और कितनी बार इस इस खाद का इस्तेमाल कर सकते हैं ? इसका जवाब है कि आप इसका इस्तेमाल प्रति सप्ताह एक बार कर सकते हैं।

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इसके इस्तेमाल से धीरे-धीरे आपके खेत की मिट्टी की गुणवत्ता में धीरे-धीरे सुधार होने लगेगा। अगर संभव हो तो आपका इसका प्रतिदिन करें। इसका कोई नुकसान नहीं होता है। साथ ही मात्रा को लेकर भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि यह जैविक है इसलिए ज्यादा इस्तेमाल से कोई नुकसान नहीं होता है। यह तरल खाद मिट्टी को सूक्ष्म पोषक तत्वों से भर देता है। इससे पैदावार बढ़ती है जिसका सीधा फायदा किसानों को होता है। इस खाद से पानी की खपत भी कम होती है। पीपे को ढंक कर रखें ताकि कोई कीट इसके भीतर अंडा न दे सकें। पहले गेट के उपर 25 लीटर की क्षमता होती है। पहले और दूसरे वॉल्व के बीच की क्षमता 150 लीटर होती है।"

दोनों किसान आज भी इस दिशा में इस प्रक्रिया को और आसान बनाने में जुटे हुए हैं ताकि खाद की मथनी (चर्नर्स) को ज्यादा से ज्यादा खेतों में स्थापित किया जा सके। जबकि इरोड इलाके के आसपास के काफी किसानों ने इस खाद फैक्ट्री की व्यवस्था को स्थापित कर लिया है। अभी भी इस दिशा में काफी वक्त लगेगा जब यह चल खाद फैक्ट्री कुदाल और हंसिये की तरह ही लोकप्रिय हो जाएगा।

साभार : इफको लाइव

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