चुनाव करीब तो याद आए ग्राम देवता : हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी

Arvind Kumar SinghArvind Kumar Singh   19 Feb 2018 11:58 AM GMT

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चुनाव करीब तो याद आए ग्राम देवता : हुजूर आते-आते बहुत देर कर दीकिसानों की आय दोगुनी करने पर सरकार कर रही मंथन।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार ने 2018-19 के आम बजट को किसानों और देहात पर केंद्रित बताते हुए जो तमाम नयी पहल का दावा किया था वह संसद और संसद के बाहर की बहसों में इतना बेदम साबित हो गया है कि अब प्रधानमंत्री को खुद मोरचा संभालने के लिए उतरना पड़ा है। खास तौर पर किसानों के वाजिब मूल्य के सवाल पर न तो किसान खुश नजर आ रहे हैं और न ही किसान संगठन। इसी नाते कृषि क्षेत्र की चुनौतियों और किसानों की आमदनी बढ़ाने के मसले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद किसानों की राय लेकर आगे की रणनीति तैयार करने जा रहे हैं।

एग्रीकल्चर 2022 थीम पर कृषि क्षेत्र के कायाकल्प और किसानों की आय दोगुनी करने को लेकर 19 और 20 फरवरी को पूसा परिसर में व्यापक मंथन हो रहा है जिसमें किसानों के साथ वैज्ञानिक, अधिकारी और नीति निर्माता भावी रणनीतियों पर चर्चा करेंगे। इसमें 300 चुने हुए लोग भाग ले रहे हैं। पहले इसके उद्घाटन सत्र के लिए मीडिया को भी आमंत्रित किया गया ता लेकिन बाद में उसे भी गोपनीय कर दिया गया। डर है कि उद्घाटन सत्र में किसान अगर कोई असहज सवाल उठाएंगे तो मीडिया उसे तूल सकता है।

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हाल में बजट में सरकार ने कृषि ऋण को 2018-19 में 11 लाख करने की पहल के साथ वाजिब दाम के मसले पर काफी बड़ा दावा किया। ग्रामीण इलाकों के कायाकल्प को बुनियादी ढांचे और आजीविका कार्यक्रमों लिए 14.34 लाख करोड़ का व्यय का ऐलान किया गया। चौधरी देवीलाल के कृषि मंत्री और उप प्रधानमंत्री रहने के दौरान 1990-91 के आम बजट में खेती को खासा तवज्जो मिली थी। बाद में यूपीए सरकार की ओर से की गयी कर्ज माफी और मनरेगा ने कुछ खास असर डाला। लेकिन इधर खेती भारी उपेक्षा की शिकार थी।

गुजरात चुनाव में गांवों से मिले राजनीतिक संकेतों के बाद सरकार ने कृषि क्षेत्र पर ध्यान दिया। लेकिन जो कुछ ऐलान किया गया वह सरकार पर उलटा ही पड़ता नज आया। संसद में भी सांसदों ने इन योजनाओं की जमीनी हकीकत को बयान कर सरकार को आईना दिखाया और बताया कि इससे न किसानों की तकलीफ कम की जा सकेगी न खेती बाड़ी का कायाकल्प हो सकेगा।

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यह एनडीए सरकार का आखिरी पूर्ण बजट था जिसमें गांव का राग अलापना स्वाभाविक ही था। लेकिन अब तक किसानों की आवाजें सरकार के कानों तक नहीं पहुंचीं। जबकि हकीकत यह रही है कि 2014 में भाजपा को ग्रामीण इलाकों से ही सबसे अधिक सफलता मिली और देश की 342 ग्रामीण आधार वाली लोक सभा सीटों में से वह 53 फीसदी सीटें जीतने में सफल रही। वहीं शहरी आधार वाली 57 सीटों में 65 फीसदी जीती। उसका देहाती इलाको में वोट शेयर 30.2 फीसदी था जबकि शहरों में 39.2 फीसदी। भाजपा को ग्रामीण इलाकों में 178, शहरी इलाकों से 37 और अर्द्धशहरी इलाकों से 67 सीटें हासिल हुई थीं। अब चुनाव करीब है तो देहात को कैसे नकारा जा सकता है।

सरकार ने 22 हजार ग्रामीण हाटों को ग्रामीण कृषि बाजार के रूप में विकसित करने का फैसला लिया लेकिन महज दो हजार करोड़ का कोष बनाया जा सका। वहीं 500 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ आरपेशन ग्रीन्स की घोषणा की है, जिसके तहत आलू, टमाटर या प्याज जैसी कृषि उपज की कीमतों में आने वाले उतार चढ़ाव से निपटा जा सके। लेकिन आलू किसानों की बेहाली ने सबको जमीनी हकीकत दिखा दी है।

बेशक बजट में कई कदम उठे हैं और कृषि ऋण का लक्ष्य बढ़ा कर 11 लाख करोड़ करने की घोषणा की गयी है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि बीते चार सालों में किसानों ने अकल्पनीय दुख सहे हैं। रिकॉर्ड अन्न उत्पादन कर किसानों ने पुराने कीर्तिमानों को तोड़ा 2017-18 में 275 मिलियन टन खाद्यान्‍न और 300 मिलियन टन से अधिक फलों का उत्‍पादन किया। लेकिन हरियाणा तथा पंजाब जैसे संपन्न राज्यों तक में भारी किसान असंतोष देखा गया। कई राज्यों के किसान दिल्ली में सड़कों पर उतरे लेकिन कृषि मंत्रालय ने इसे नोटिस तक नहीं लिया।

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यह बात देर सबेर सही सरकार की समझ में आ गयी है कि इन प्रयासों को जमीन पर उतारने में सफलता मिली तो भी खेती सीसीयू से आईसीयू में आ जाएगी। लेकिन उसका कायाकल्प नहीं हो सकेगा न ही किसानों की आय दोगुनी हो सकेगी। सरकार भले कृषि ऋण का भारी भरकम लक्ष्य रखती हो लेकिन सरकारी बैंकों से कर्ज हासिल करना आज भी किसानों के लिए टेढ़ी खीर है। ऐसे में बटाईदार किसानों जिनके नाम जमीन भी नहीं है, वे चुनावी साल में कुछ हासिल कर सकेंगे इसमें संदेह है। इसी तरह देश के उन 60 फीसदी बारानी खेती वाले इलाकों के किसानों को जिस समर्थन की दरकार है, उस तरफ सरकार ने खास ध्यान नहीं दिया है।

यह सही है कि अब तक सरकारी योजनाएं उत्पादन बढ़ाने पर केंद्रित रही हैं। पहली बार किसानो की आय 2022 तक दोगुनी करने का बड़ा लक्ष्य तय किया गया है। लेकिन यह लक्ष्य या दूसरे लक्ष्य बिना राज्य सरकारों की सक्रिय भूमिका और भागीदारी तथा ठोस संसाधन और मूल्य समर्थन के तय नहीं हो सकता। खेती के साथ सहायक गतिविधियों से ही किसानों की आय बढ़ सकती है, लेकिन उनमें भारी निवेश की दरकार है। और हम अनाज उत्पादन को भी नकार कर नहीं चल सकते हैं क्योकि 2030 तक हमें 150 करोड़ आबादी के लिए अनाज की जरूरत होगी। फिर भी सही दिशा में कुछ कदम जरूर उठे हैं लेकिन इससे खेती के कायाकल्प की परिकल्पना तो कत्तई नहीं की जासकती है।

फसलों का वाजिब दाम दिलाने के तहत सरकार ने एमएसपी में शामिल फसलों के उत्पादन लागत से कमसे कम डेढ़ गुना दाम रखने की पहल की है। लेकिन बजट भाषण में यह कह कर वित्त मंत्री ने उसकी गंभीरता को खत्म कर दिया कि रबी की तरह खरीफ फसलों के लिए लागत से डेढ़ गुना एमएसपी तय होगा। फिर भी खाद्य प्रसंस्करण सेक्टर के लिए आवंटन दोगुना कर 1400 करोड़ रुपए करने के प्रस्ताव के साथ जैविक खेती से लेकर औषधीय पौधों की खेती में प्रोत्साहन देने को कई कदम उठाए गए हैं जिनका वाकई फायदा होगा। किसान क्रेडिट कार्डों का फायदा पशुपालन औऱ मछलीपालन में लगे किसान भी अब उठा सकेंगे।

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दोनों क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 10 हजार करोड़ रुपए का एक कोष विकसित करने के साथ हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाने की घटनाओं के चलते होने वाली भारी वायु प्रदूषण से निपटने कोकिसानौं को मशीनरी पर सब्सिडी भी दी जाएगी। सरकार ग्रामीण इलाकों में बुनियादी ढांचे और आजीविका कार्यक्रमों पर 14.34 लाख करोड़ का व्यय करेगी। वित्त मंत्री ने कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय का बजटीय आवंटन 51,576 करोड़ रुपए से बढ़ा कर 58080 करोड़ रुपए किया है। पिछले पांच सालो में इस आवंटन में करीब 75 फीसदी की वृद्ध हुई है। लेकिन कृषि शिक्षा औऱ अनुसंधान के मद में केवल 12 फीसदी की बढोत्तरी नाकाफी है।

स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश थी कि उपज की लागत पर किसानों को 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिया जाना चाहिए। यह मांग अधूरी है और किसान संगठनों ने सरकार के दावो को स्वीकारा नहीं है। आज बमुश्किल छह फीसदी किसानों को एमएसपी का फायदा मिल रहा है। वहीं कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के लागत तय करने के पैमाने पर काफी समय से सवाल खड़े हो रहे हैं, इस दिशा में सरकार ने एकदम ध्यान नहीं दिया है।

2018-19 में कृषि क्षेत्र के लिए अनेक नई पहलों की घोषणा करते हुए कहा, ‘हम किसानों की आमदनी बढ़ाने पर विशेष जोर दे रहे हैं। हम कृषि को एक उद्यम मानते हैं और किसानों की मदद करना चाहते हैं, ताकि वे कम खर्च करके समान भूमि पर कहीं ज्यादा उपज सुनिश्चित कर सकें और उसके साथ ही अपनी उपज की बेहतर कीमतें भी प्राप्त कर सकें।’ लेकिन बजट के बाद कृषि मंत्री मीडिया के सामने आने से कतराते रहे। कृषि मंत्रालय की ओर से जो विज्ञप्ति जारी की गयी उसमें पेज नंबर दो पर इस बात का दावा किया गया है कि सरकार जहां विभिन्‍न फसलों की उत्‍पादकता तथा उत्‍पादन बढ़ाने के लिए प्रयासरत है वहीं किसानों को उनकी फसल का सही मूल्‍य मिल सके, इसके लिए भी कटिबद्ध है। अब से विभिन्‍न कृषि जिसों पर किसानों को उनकी लागत मूल्‍य पर डेढ़ गुना दिया जाएगा।

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जमीनी हकीकत यह है कि बाजारों में कृषि उपजों के दाम में भारी उतार-चढ़ाव से किसान अपनी लागत भी नहीं निकाल पा रहे हैं। सरकार यदि इन उतार-चढ़ावों से हुए नुकसान के लिए कोई कारगर कीमत स्थिरता फंड का इंतजाम करें, तभी किसानों का असंतोष समाप्त हो सकता है। किसानो की सभी फसलो के लिए कीमत स्थिरता फंड प्रावधान होना चाहिए। केंद्र सरकार के लिए सबसे अधिक चुनौती ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आ रहे ठहराव को दूर करने की है। नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद्र खुद मानते हैं कि सरकार 23 फसलों के एमएसपी तय करती है, जो कुल बोए गए फसलों का 84 फीसदी हैं। लेकिन खरीद की व्यवस्था केवल दो तीन फसलों तक सीमित है। वास्तव में जब तक इसे बढ़ाने की दिशा में काम नहीं होगा तो किसान ठगा ही जाता रहेगा।

किसानों की समस्या की जड़ कृषि मूल्य नीति है। और इसे बदलने को लेकर लंबे समय से संसद के भीतर और बाहर चर्चाएं होती रही हैं। किसान संगठन एमएसपी और सरकारी खरीद दोनों से असंतुष्ट हैं और कई बार आंदोलन भी कर चुके हैं। लेकिन हरियाणा, पंजाब, आंध्र प्रदेश और छत्तीगढ़ जैसे चंद राज्यों को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में एमएसपी पर खरीद का सलीके का तंत्र भी नही है। जरूरी यह है कि सरकार अनाज खरीदे और किसानों को सही दाम मिले। और किसानों की आय कम से कम उतनी होनी ही चाहिए कि वो ढंग से कपड़े पहन सके और बच्चों को स्कूल भेज सकें। भारत सरकार ने कृषि मूल्य नीति 1985-86 बनायी। इसके तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद को संवैधानिक जिम्मेदारी माना गया। लेकिन जो तंत्र बना वह गेहूं- धान से आगे बढ़ नही सका है। एमएसपी से किसानों को कुछ गारंटी मिली है लेकिन जो फसलें इसके दायरे में नहीं, वे भारी अनिश्चितता की शिकार है।

लेकिन इस दशा और कम उत्पादकता के बाद भी चीन के बाद भारत सबसे बडा फल औऱ सब्जी उत्पादक बन गया है। चीन और अमेरिका के बाद यह सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश है। बीते पांच दशको में गेहूं उत्पादन 9 गुना और धान उत्पादन तीन गुना बढ़ गया है। लेकिन खेती की लागत भी लगातार बढ रही है और किसानों का दर्द भी। इसी नाते किसान संगठन लंबे समय से किसान संगठन 1969 को आधार वर्ष मानते हुए फसलों का दाम तय करने की वकालत कर रहे हैं।

सरकार खुद मानती है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और झारखंड के पास एमएसपी पर खरीद के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा नहीं है। अभी खरीद मुख्यतया धान और गेहूं तक सीमित है। 2016-17 में धान और गेहू उत्पादन का 33 फीसदी और दालों का 8 फीसदी सरकारी खरीद की गयी। लेकिन तिलहन उत्पादन का महज एक फीसदी खरीद हुई और मोटे अनाजों की खरीद नहीं हो पायी।

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खेती आज भी देश की 58 फीसदी से ज्यादा आबादी के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि खेती में निवेश घटता जा रहा है। आज जीडीपी में खेती का योगदान महज 14 फीसदी हो गया है। बीते कई सालों से कृषि विकास दर औसतन दो से तीन फीसदी के बीच ठहरी हुई है। और देश असाधारण कृषि संकट में फंसा हुआ है। खुद आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में कृषि उत्‍पादकता वृद्धि को बनाये रखने के लिए कृषि अनुसंधान एवं विकास की आवश्‍यकता पर खास बल दिया गया है। इसमें माना गया कि पुरूषों का गांव से शहर में पलायन होने की वजह से महिलाओं की हिस्सेदारी कृषि के क्षेत्र में बढ़ रही है। कृषि में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए कई कदमों की दरकार है।

कृषि ऋण के आंकड़ों का कितना भी विस्तार क्यों न हो जाये लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि बड़ी संख्या में छोटे और मझोले किसानों को सरकारी बैंकों से कर्ज नहीं मिलता। इनकी तादात 85 फीसदी होने के बावजूद कर्ज में इनकी हिस्सेदारी महज छह फीसदी है। देश में 13.8 करोड़ कृषि जोतें हैं जिसमें से 11.7 करोड़ छोटे और मझोले किसानों की है। 25 फीसदी किसान अभी भी कर्ज के लिए साहूकारों की शऱण में जाने को विवश है। आज खेती लायक 14.4 करोड़ हैक्टेयर जमीन है लेकिन औसत जोत का आकार 1970-71 में 2.3 हैक्टेयर से घट कर अब 1.37 हैक्टेयर पर आ गया है। छोटे और सीमांत किसान तो और दयनीय दशा में हैं और उनकी औसत जोत का आकार 0.24 हैक्टेयर पर आ गया है। सवाल यह है कि क्या किसानों को समर्थन देने की रणनीतियां इनको केंद्र में रख कर बन रही हैं और राज्य सरकारें इनके प्रति संवेदनशील हैं। अगर हैं तो अभी भी आत्महत्याएं क्यों नहीं रुक पायी हैं।

   

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