कच्छ से पंजाब तक: पारंपरिक कपास की खेती का नया दौर

Gaon Connection | Apr 02, 2025, 15:26 IST
क्या आपने कभी सोचा है कि बिना भारी सिंचाई और रसायनों के भी कपास उगाया जा सकता है? भारत की पारंपरिक काला कपास खेती इसी विरासत की एक मिसाल है, जो आज फिर से जीवंत हो रही है।
organic traditional cotton farming
क्या आपको पता है कि भारत में उगाई जाने वाली अधिकांश कपास अब जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM) हो चुकी है? क्या आपने कभी सोचा है कि सदियों पहले, हमारे पूर्वज बिना किसी रसायन और भारी सिंचाई के कैसे कपास उगाते थे? आधुनिक दौर में, जहाँ पानी की कमी और मिट्टी की उर्वरता घटने की समस्या बढ़ रही है, वहाँ पारंपरिक काला कपास एक नया समाधान बनकर उभर रहा है।

ये कोई साधारण फसल नहीं, बल्कि भारत के पारंपरिक कृषि ज्ञान की एक अनमोल धरोहर है, जिसे आज नए सिरे से संजोया जा रहा है। यह कहानी सिर्फ खेती की नहीं, बल्कि उस आंदोलन की भी है जो किसानों, बुनकरों और महिलाओं को एक नई आर्थिक शक्ति देने का काम कर रहा है।

कच्छ की मिट्टी से निकली काला कपास की कहानी

कच्छ, गुजरात का वह इलाका जहाँ सालाना बारिश महज 350-400 मिमी होती है। इस कठिन जलवायु में भी काला कपास बिना रसायनों के, कम पानी में फलता-फूलता है। यही वजह है कि 2008 में ‘खमीर’ संस्था ने इसे फिर से ज़िंदा करने का बीड़ा उठाया।

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2005 के भूकंप के बाद, जब कच्छ के कारीगरों और किसानों का जीवन बिखर गया था, तब खमीर ने कच्छ के पारंपरिक उद्योगों को दोबारा खड़ा करने की पहल की। किसानों, जुलाहों और कारीगरों को एक साथ जोड़ा गया। आज, कच्छ में 500 से ज़्यादा किसान काला कपास उगा रहे हैं और इससे बने कपड़े दुनियाभर में अपनी पहचान बना रहे हैं।

पंजाब में त्रिंजन की पहल: औरतों के हाथों में करघा

पंजाब, जहाँ कभी हज़ारों एकड़ में देसी कपास उगाई जाती थी, वहाँ आज केवल 1% क्षेत्र में ही पारंपरिक कपास की खेती होती है। लेकिन, डॉ. वंदना गर्ग की संस्था त्रिंजन ने इस परिदृश्य को बदलने का संकल्प लिया। 2023 में उन्होंने पंजाब में एक बुनाई स्कूल खोला, जहाँ महिलाएँ न केवल कपास उगाना सीख रही हैं, बल्कि उसकी कताई और बुनाई में भी अपनी भूमिका निभा रही हैं।

त्रिंजन के ज़रिये अब तक 100 से अधिक किसान देसी कपास की खेती से जुड़ चुके हैं। यह पहल सिर्फ खेती तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पंजाब की उन महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता का रास्ता भी खोल रही है, जो अब तक घर की चारदीवारी तक सीमित थीं।

राजस्थान की ‘सहेली’: जब महिलाएँ बनीं ज़मीन की मालिक

राजस्थान के बाड़मेर मेंमधु वैष्णव की संस्था सहेली ने महिलाओं को ज़मीन का मालिकाना हक दिलाने और काला कपास की खेती में अग्रणी बनाने की अनोखी पहल की है। आमतौर पर खेती में महिलाओं की भूमिका को नज़रअंदाज किया जाता है, लेकिन ‘सहेली’ ने 200 से अधिक महिलाओं को ज़मीन दिलवाई है, जहाँ वे अब जैविक काला कपास उगा रही हैं।

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कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि पारंपरिक किस्मों को दोबारा उगाने से न केवल जल संकट से निपटा जा सकता है, बल्कि रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बढ़ते प्रभाव को भी कम किया जा सकता है।

काला कपास बनाम सामान्य कपास: क्या है अंतर?

काला कपास और सामान्य कपास में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। सामान्य कपास, जिसे आज बड़े पैमाने पर उगाया जाता है, आमतौर पर जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM) बीजों पर निर्भर करता है, जिसके लिए भारी मात्रा में पानी, उर्वरक और कीटनाशकों की जरूरत होती है। दूसरी ओर, काला कपास प्राकृतिक रूप से रोग प्रतिरोधक होता है और सूखी जलवायु में भी पनप सकता है। जहाँ GM कपास की खेती में 10,000 लीटर पानी प्रति किलोग्राम फाइबर की आवश्यकता होती है, वहीं काला कपास मात्र 5000-6000 लीटर पानी में ही फलता-फूलता है। साथ ही, काला कपास की खेती में रसायनों की ज़रूरत नहीं होती, जिससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और किसानों का खर्च भी कम होता है।

  • भारत में आज 95% कपास की खेती जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM) बीजों से हो रही है।
  • पारंपरिक किस्में 40% तक कम पानी में बेहतर उत्पादन दे सकती हैं।
  • ऑर्गेनिक कपास की मांग वैश्विक स्तर पर 15% सालाना बढ़ रही है।

कपास के पुराने पन्ने

भारत का कपास उद्योग प्राचीन काल से दुनिया में प्रसिद्ध रहा है। सिंधु घाटी सभ्यता (2500 ईसा पूर्व) में भारतीय कपास की पहचान मिलती है। मध्यकाल में, भारतीय मलमल और सूती कपड़े यूरोप और मध्य एशिया तक निर्यात होते थे। अंग्रेजों के शासन में, भारतीय कपास उद्योग को योजनाबद्ध तरीके से दबाया गया और मिलों की जगह ब्रिटिश निर्मित कपड़ों को बढ़ावा दिया गया। लेकिन अब, एक बार फिर, पारंपरिक भारतीय कपास अपनी खोई हुई गरिमा वापस पाने की राह पर है।

आगे का रास्ता

भारत के ये छोटे-छोटे प्रयास सिर्फ खेती तक सीमित नहीं हैं। ये एक नए कृषि मॉडल की तरफ इशारा करते हैं, जहाँ किसान, बुनकर, और उद्योग एक साथ मिलकर टिकाऊ फैशन और पर्यावरण संतुलन की दिशा में बढ़ सकते हैं। आज, अगर बड़े ब्रांड इन प्रयासों में सहयोग करें, तो यह भारत के किसानों के लिए एक नया आर्थिक रास्ता खोल सकता है।काला कपास सिर्फ एक फसल नहीं, बल्कि सदियों पुरानी परंपरा का पुनर्जन्म है। यह बताता है कि अगर स्थानीय ज्ञान और आधुनिक बाज़ार एक साथ काम करें, तो बंजर ज़मीन भी हरियाली से भर सकती है।

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