बरसों बाद फिर सुनाई देती ढक ढक की आवाज़ से क्यों खुश हैं आदिवासी महिलाएँ?

ओडिशा के 12 गाँवों की आदिवासी महिलाओं ने ढेंकी से लाल चावल कूटने की परंपरा को फिर जिन्दा कर दिया हैं। महिलाओं के 20 स्वयं सहायता समूह से हर साल लगभग 780 क्विंटल चावल का उत्पादन हो रहा है, जिसे कई राज्यों में भेजा जाता है।

Niroj Ranjan MisraNiroj Ranjan Misra   17 May 2023 9:59 AM GMT

बरसों बाद फिर सुनाई देती ढक ढक की आवाज़ से क्यों खुश हैं आदिवासी महिलाएँ?

ओडिशा का लाल चावल महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, दिल्ली और पश्चिम बंगाल को निर्यात किया जाता है। सभी फोटो: अरेंजमेंट

भुवनेश्वर, ओडिशा। मयूरभंज के गाँवों में तड़के सुबह ढक-ढक की आवाज़ फिर सुनाई देने लगी है।

दशकों पहले कभी सुनी जाने वाली ये आवाज़ न सिर्फ गाँव के लोगों के लिए अब सुबह होने का संकेत है, बल्कि बड़े बदलाव का सबूत भी। ये आवाज़ ढेंकी की है। पहले गाँवों में सुबह तीन बजे से ही घरों में ढेंकी की ढक-ढक आवाज़ सुनने को मिलती थी। इसकी आवाज़ सुनकर ही लोग उठ जाते थे और अपने रोज़ के काम काज में लग जाते थे। आधुनिकता और मशीनीकरण ने धान कूटने के इस पारम्परिक यन्त्र ढेंकी पर अंकुश लगा दिया था। लेकिन ओडिशा के मयूरभंज में ढेंकी लौट आई है।

ज़िले के 12 गाँवों में 20 स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) की महिलाएँ लाल चावल तैयार करने के लिए पारंपरिक ढेंकी का इस्तेमाल करने लगी हैं। चावल की इस पौष्टिक किस्म की बिक्री से संथाल, बथुडी और भूमिजा आदिवासी समुदायों की महिलाओं की बेहतर कमाई हो रही हैं।

ढेंकी आमतौर पर आधार पर एक लकड़ी की बीम होती है जो ऊपर और नीचे चलती है और एक छोर पर धातु की एक मूसल लगी होती है, जिससे धान को कूटकर चावल निकाला जाता है। इसके बाद चावल को फटका जाता है, जिससे चावल से भूसी अलग हो जाए।


कपटीपाड़ा तहसील में एसएचजी की महिलाएँ धान की स्वदेशी किस्मों जैसे मुगेई, राम साल और काला चंपा को ढेंकी से कूटती हैं। धान मयूरभंज ज़िले में सिमिलिपाल वन रिज़र्व के भीतर 80 एकड़ निचली भूमि से आता है। वन विभाग की इजाज़त से, लगभग 60 आदिवासी किसान इन स्वदेशी धान को उगाते हैं और ढेंकी लाल चावल तैयार करने वाली एसएचजी महिलाओं को आपूर्ति करते हैं।

महिलाओं के हर एक एसएचजी में 12 सदस्य हैं, और उनमें से लगभग सभी किसानों की पत्नियाँ हैं। वे परिवार की आय बढ़ाने के लिए ढेंकी से लाल चावल तैयार करती हैं।

कृषि विकास केंद्र, जेपोर, कोरापुट ज़िले के वैज्ञानिक मिहिर रंजन मोहंती ने गाँव कनेक्शन को बताया, "ढेंकी से कुटा हुआ लाल चावल अत्यधिक पौष्टिक होता है, क्योंकि यह पोषक तत्वों को बरकरार रखता है। यह आयरन, जिंक, मैग्नीशियम और कैल्शियम से भरपूर होता है।"

12 गाँवों में 20 स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) की महिलाएँ लाल चावल तैयार करने के लिए पारंपरिक ढेंकी का इस्तेमाल करने लगी हैं।

"मैकेनाइज्ड हलर्स प्रक्रिया के दौरान पैदा होने वाली गर्मी चावल में पोषक तत्वों की मात्रा को काफी हद तक कम कर देती है। और जब चावल की बाहरी परत या चोकर को हटा दिया जाता है (चोकोडा जैसा कि इसे उड़िया में कहा जाता है), तो चावल से इसकी पोषक सामग्री और भी चली जाती है, ”मोहंती ने कहा, जो स्वदेशी धान के विशेषज्ञ हैं।

ढेंकी से तैयार चावल के दिन लौटे

कुछ समय पहले तक पूर्वी राज्य में महिलाएँ धान से चावल अलग करने के लिए ढेंकी का ही इस्तेमाल करती थीं। इसके बाद वो धान को आग पर मिट्टी के बर्तनों में उबालने, सुखाने के लिए धूप में फैलाने और आखिर में मैन्युअल रूप से उनमें पत्थर निकालने का मेहनत भरा काम करती थीं।

ढेंकी से कूट कर चावल तैयार करना आसान नहीं था। ज़्यादा मेहनत के कारण ही धीरे-धीरे गायब हो रहा था । इसे 2020-21 में बढ़ावा मिला, जब एकीकृत जनजातीय विकास एजेंसी (आईटीडीए) ने अग्निकुमारी, कुसुमघाटी और वन धन विकास केंद्रों का गठन किया। केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री वन धन योजना के तहत ITDA को राज्य कार्यान्वयन एजेंसी आदिवासी विकास सहकारी निगम लिमिटेड के माध्यम से 15 लाख रुपये दिए।

कपटीपाड़ा स्थित आईटीडीए के प्रोजेक्ट एडमिनिस्ट्रेटर देवदत्त पांडा ने गाँव कनेक्शन को बताया, "आईटीडीए ने 66 ढेंकी मुहैया कराई हैं, जिनका इस्तेमाल एसएचजी की महिलाएँ लाल चावल का उत्पादन करने के लिए करती हैं।"

ढेंकी को बढ़ावा देने के अलावा, प्रशासन की तरफ से अधिक मेहनत वाले काम और उनकी मुश्किलें कम करने के लिए स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को मशीनें भी दी जा रहीं हैं।

ग्रामीण महिलाओं को ढेंकी चलाने का प्रशिक्षण भी दिया गया। काप्तीपाड़ा स्थित आईटीडीए के परियोजना प्रबंधक, प्रणब दास ने कहा, "युवा महिलाओं को ढेंकी के उपयोग से परिचित कराने के लिए प्रशिक्षण जरूरी था, क्योंकि उनमें से ज़्यादातर महिलाएँ अपनी माताओं और दादी-नानी के विपरीत, इसका उपयोग करना नहीं जानती थीं।"

उन्होंने कहा कि समुदायों में कुछ वृद्ध महिलाओं को प्रशिक्षित करने के लिए जोड़ा गया था। ट्राइबल लाइवलीहुड इनिशिएटिव्स नाम के एक एनजीओ की मदद से ट्रेनिंग दी गई।

स्वागत योग्य है मशीनीकरण भी

ढेंकी को बढ़ावा देने के अलावा, प्रशासन की तरफ से अधिक मेहनत वाले काम और उनकी मुश्किलें कम करने के लिए स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को मशीनें भी दी जा रहीं हैं। स्वचालित मशीनरी के आने से ढेंकी से कुटे लाल चावल की सफाई कम बोझिल हो गई है।

“हम अभी भी ढेंकी का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन अब धान को उबालने के लिए एक स्टीमर और इसे सुखाने के लिए एक एयर ड्रायर है। एक डी-स्टोनिंग मशीन भी है जो चावल से पत्थरों को छानती है," अग्निकुमारी गाँव में ग्राम देवती एसएचजी की अध्यक्ष सुहागी टुडू ने गाँव कनेक्शन को बताया। उन्होंने कहा कि एक पैकेजिंग मशीन भी है जो अनाज को आसानी से और स्वच्छता से पैक करने में मदद करती है।


केंद्र सरकार द्वारा दिए गए 15 लाख रुपये के अनुदान में से 10 लाख रुपये का उपयोग प्रोसेसिंग, डेस्टोनिंग, पैकेजिंग आदि के लिए मशीनें खरीदने के लिए किया गया था। ये मशीनें अग्निकुमारी गाँव में सुविधा केंद्र (एफसी) में स्थापित हैं। सभी स्वयं सहायता समूह इन सुविधाओं का उपयोग करते हैं।

प्रणब दास ने कहा, "एफसी में मशीनें स्थापित की गई हैं, जबकि गाँव के घरों में 66 ढेंकी लगाई गई हैं, जिनमें उनके काम करने के लिए पर्याप्त जगह है। हर एक ढेंकी का उपयोग दो से तीन एसएचजी की महिलाओं द्वारा किया जाता है।

अग्निकुमारी में केंद्र के प्रभारी निर्माण बर्मन ने गाँव कनेक्शन को बताया, जिस देसी धान से रेड राइस बनाया जाता है, उसे उगाने में कम पानी लगता है और यह विपरीत परिस्थितियों में भी बढ़िया उत्पादन मिलता है। “यह पहाड़ी क्षेत्रों में उगाया जाता है और पहाड़ी धाराओं के पानी में इसकी खेती होती है। स्वदेशी धान कीट प्रतिरोधी भी है।"


एक बार जब लाल चावल एफसी में आ जाता है, तो इसे एल्युमीनियम के ड्रमों में डाल दिया जाता है, जो नीम और बेगोनिया के पत्तों से ढके होते हैं, जो कीटों को दूर रखते हैं। बर्मन ने कहा, "ड्रमों को तब सील कर दिया जाता है ताकि वे किसी भी नमी के संपर्क में न आएं। “ खास बात ये है कि अब मशीनें जल्दी से लाल चावल तैयार करने का काम करती हैं, जिससे काम करने वाले सदस्य को हर महीने 2,500 से 6,000 रुपये मिलते हैं।

अग्निकुमारी में केंद्र के प्रभारी बर्मन ने गाँव कनेक्शन से बताया, "सालाना, ये एसएचजी 780 क्विंटल से अधिक लाल चावल का उत्पादन करते हैं, जो स्थानीय व्यापारियों को 65 रुपये से 68 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा जाता है।"

सुविधा केंद्र के बाहर, शहरी और अर्ध-शहरी केंद्रों पर, लाल चावल 80 रुपये से 90 रुपये प्रति किलो के बीच बिकता है। बर्मन ने कहा,” जहाँ 40 प्रतिशत बिक्री आय का उपयोग स्वदेशी धान खरीदने के लिए अलग रखा जाता है, वहीं अन्य 40 प्रतिशत का उपयोग उन मजदूरों को मजदूरी देने के लिए किया जाता है, जो पैक किए गए चावल को लोड, अनलोड, आदि करते हैं। शेष 20 प्रतिशत एसएचजी महिलाओं के बीच वितरित किया जाता है।“

सुविधा केंद्र में एक दिन में लगभग 35 किलोग्राम ढेंकी लाल चावल का उत्पादन होता है। ज्यादातर चावल महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, दिल्ली और पश्चिम बंगाल को निर्यात किया जाता है। ओडिशा के बाहर चावल की इस किस्म का विक्रय मूल्य 140 रुपये से 160 रुपये प्रति किलोग्राम के बीच है। अग्निकुमारी वन धन विकास केंद्र के रहन मरंडी गाँव कनेक्शन को बताते हैं, "एक महीने में लगभग 70 क्विंटल चावल दूसरे राज्यों को निर्यात किया जाता है। अब हम मासिक निर्यात की मात्रा बढ़ाकर 400 क्विंटल करने की योजना बना रहे हैं।"

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