असिंचित क्षेत्र में भी बेहतर उत्पादन देती है ये फसल, छुट्टा जानवर व नीलगाय भी नहीं पहुंचाते हैं नुकसान
Divendra Singh | Oct 26, 2018, 08:30 IST
ओमेगा-3 से भरपूर इस फसल की बुवाई में न ज्यादा मेहनत लगती है और न ही सिंचाई में पानी, फसल तैयार होने पर 4000 से 4500 प्रति कुंतल दाम मिलता है..
लखनऊ। किसान अभी तिलहनी फसलों में से एक अलसी की बुवाई कर सकते हैं। बिना किसी ज्यादा मेहनत और अतिरिक्त खर्च के किसान इससे अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।
अलसी में ओमेगा-3 पाया जाता है जिसका उपयोग दवाई, तैलीय उत्पाद आदि बनाने में होता है। अलसी की खेती पर शोध कर चुके चंद्र शेखर आज़ाद कृषि विश्वविद्यालय के डॉ. आरएल श्रीवास्तव बताते हैं, "अलसी की बुआर्ई के लिए उपयुक्त समय अक्टूबर-नवम्बर होता है, लेकिन अभी भी इसकी बुवाई कर सकते हैं। ये फसल ऐसी जगहों के लिए ज्यादा उपयोगी है जहां पानी की कमी है।"
देश में अलसी की खेती लगभग 2.96 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में होती है जो विश्व के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत है। अलसी क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में द्वतीय स्थान है, उत्पादन में तीसरा और उपज प्रति हेक्टेयर में आठवं स्थान रखता है। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, राजस्थान व उड़ीसा अलसी के प्रमुख उत्पादक राज्य है। मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश में देश की अलसी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत खेती होती है।
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डॉ. श्रीवास्तव आगे बताते हैं, "इसकी बुवाई में गहराई रखनी चाहिए, बुवाई के लिए दोपहर के बाद का समय उपयुक्त होता है। एक हेक्टेयर में 30 किलो तक बीज लगता है अगर कतारों के बीच की दूरी 30 सेमी तथा पौधों के बीच दूरी चार से पांच सेमी रखी जाए तो पैदावार अच्छी होती है।"
हमारे देश में तिलहन में अलसी एक ऐसी फसल है जिसे किसान कम पानी में ले सकते हैं। इस फसल में न तो कोई कीटनाशक लगता है और न ही प्रतिकूल वातावरण का कोई असर पड़ता है। छुट्टा जानवर और नीलगाय इस फसल को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। किसान दो सिंचाई में एक हेक्टेयर में 20 कुंतल से ज्यादा उपज ले सकता है।
अन्य फसलों की अपेक्षा इसमें मेहनत 30 प्रतिशत कम और लागत आधे से भी कम आती है। एक हेक्टेयर में 10 हजार लागत और 20 कुंतल से ज्यादा पैदावार होती है। अलसी के पौधे से निकलने वाले तने के रेशे की मांग देश और विदेशों में बहुत ज्यादा है इसके बीज में 33 से 45 प्रतिशत तेल, 20 से 30 प्रतिशत प्रोटीन, चार से आठ प्रतिशत रेशा पाया जाता है।
अखिल भारतीय अलसी अनुसन्धान के राष्ट्रीय परियोजना समन्यवक डॉ पी के सिंह बताते हैं, " घटते जल स्तर की वजह से किसानों का रुझान अलसी की खेती की तरफ बढ़ा है। वर्ष 2016-17 में 46 प्रतिशत इजाफा हुआ है। 76 प्रकार की प्रजातियां विकसित की गयी हैं जिनमें पदमनीय, शारदा, जेएलएस-73 जेएलएस-66, जेएलएस-67, जेएलएस-95, इंद्रा अलसी-32, कार्तिकेय, दीपिका मुख्य हैं जो कम पानी में किसानों को बेहतर उपज देती हैं।"
वो आगे बताते हैं, "अलसी के रकबे में पिछले दो वर्षों में लगातार इजाफा हो रहा है। धान के बाद 11 मिलियन हेक्टेयर खेत खाली रहते हैं। उन क्षेत्रों के लिए किसान उतेरा पद्यति अपना सकते हैं। जब धान बालियों पर रहे उस समय अलसी का बीज फैला देते हैं इसे उतेरा पद्यति कहते हैं।"
अलसी का महत्व ओमेगा-3 की वजह से बढ़ रहा है, ये अलसी से मिलता है जो कि मस्तिष्क के विकास के लिए बहुत उपयोगी है। इसके अलावा ओमेगा-3 बॉडी टॉनिक, हेल्थ टॉनिक, बच्चों के विकास तथा कैंसर में बहुत उपयोगी है।
अलसी के लिए काली दोमट चूना युक्त अच्छे जल निकास वाली भूमि उपयुक्त पाई गई है। इसके लिए न क्षारीय भूमि न अम्लीय भूमि हो। तीन ग्राम सेरेमान या थायरम से बीजोपचार करें। बावस्टीन 1.5 ग्राम 2.5 ग्राम थायरम या टापसिन एम 2.5 ग्राम प्रति किलो के हिसाब से बीजोपचार करना चाहिए।
सिंचित अलसी के लिए 2.5 टन नाडेप कम्पोस्ट व 400 ग्राम पीएसबी कल्चर या 1.5 टन वर्मी कम्पोस्ट एवं 400 ग्राम पीएसबी कल्चर डालकर अलसी फसल के किसान बिना रासायनिक खाद डाले भरपूर उत्पादन ले सकते हैं।
अलसी की फसल को स्थिति अनुसार बारानी में 16 किलो नाइट्रोजन, 8 किलो स्फुर तथा 4 किलो पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिए। उतेरा पद्धति में 6.8 किलो नाइट्रोजन, 4 किलो स्फुर तथा 2 किलो पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिए। सिंचित अलसी में 24 किलो नाइट्रोजन, 2 किलो स्फुर तथा 6 किलो पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिए। सिंचित अवस्था में बुआई के समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा दें तथा शेष मात्रा प्रथम सिंचाई पर दें। गंधक की कमी हो तो 8 किलोग्राम प्रति एकड़ अथवा सिंगल सुपर फास्फेट खाद से स्फुर की मात्रा की पूर्ति करें।
अलसी की बारानी, उतेरा और सिंचित फसल बोई जाती है। जलवायु के अनुरुप अलसी की विभिन्न जातियां विकसित की गई हैं।
सिंचित अलसी में दो सिंचाई पर्याप्त होती है जो बुवाई के 35 और 65 दिन बाद देने से अलसी फसल का भरपूर उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। बोने के 35 से 40 दिन बाद तक फसल को खरपतवारों से मुक्त रखना जरूरी है। खरपतवार नियंत्रण के लिए चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए 2.4 डी सोडियम साल्ट 200 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ एवं सकरी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिए आइसो प्रोटूरान 300 ग्राम प्रति एकड़ 200 से 250 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
अलसी की फसल मे देरी से बुवाई करने पर कलिका मक्खी का प्रकोप बहुत अधिक होता है, जिससे कभी-कभी बहुत ही कम उपज मिलती है। प्रौढ़ मक्खी फूल की कलियों में अंडे देती है। इसकी इल्ली कली के भीतर जननांगों को खा जाती है, जिससे अलसी फसल में प्रजनन नहीं होता है तथा कली बिना बीज बने ही सूख जाती है।
अलसी में गेरुआ रोग से अधिक हानि होती है। गेरूआ रोग में पत्तियों पर चमकीले पीले रंग के चूर्णी धब्बे दिखाई देते है जो शीघ्र ही सभी पत्तियों पर फैल जाते हैं। तने पर कत्थई या काले रंग के चकत्ते दिखाई देते हैं। इनके कारण पौधे सूखने लगते हैं तथा कभी-कभी पूरी फसल नष्ट हो जाती है। बुवाई पूर्व बीज थायरम या मोनोमान द्वारा उपचारित करें।
अलसी में ओमेगा-3 पाया जाता है जिसका उपयोग दवाई, तैलीय उत्पाद आदि बनाने में होता है। अलसी की खेती पर शोध कर चुके चंद्र शेखर आज़ाद कृषि विश्वविद्यालय के डॉ. आरएल श्रीवास्तव बताते हैं, "अलसी की बुआर्ई के लिए उपयुक्त समय अक्टूबर-नवम्बर होता है, लेकिन अभी भी इसकी बुवाई कर सकते हैं। ये फसल ऐसी जगहों के लिए ज्यादा उपयोगी है जहां पानी की कमी है।"
देश में अलसी की खेती लगभग 2.96 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में होती है जो विश्व के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत है। अलसी क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में द्वतीय स्थान है, उत्पादन में तीसरा और उपज प्रति हेक्टेयर में आठवं स्थान रखता है। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, राजस्थान व उड़ीसा अलसी के प्रमुख उत्पादक राज्य है। मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश में देश की अलसी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत खेती होती है।
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हमारे देश में तिलहन में अलसी एक ऐसी फसल है जिसे किसान कम पानी में ले सकते हैं। इस फसल में न तो कोई कीटनाशक लगता है और न ही प्रतिकूल वातावरण का कोई असर पड़ता है। छुट्टा जानवर और नीलगाय इस फसल को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। किसान दो सिंचाई में एक हेक्टेयर में 20 कुंतल से ज्यादा उपज ले सकता है।
अन्य फसलों की अपेक्षा इसमें मेहनत 30 प्रतिशत कम और लागत आधे से भी कम आती है। एक हेक्टेयर में 10 हजार लागत और 20 कुंतल से ज्यादा पैदावार होती है। अलसी के पौधे से निकलने वाले तने के रेशे की मांग देश और विदेशों में बहुत ज्यादा है इसके बीज में 33 से 45 प्रतिशत तेल, 20 से 30 प्रतिशत प्रोटीन, चार से आठ प्रतिशत रेशा पाया जाता है।
अखिल भारतीय अलसी अनुसन्धान के राष्ट्रीय परियोजना समन्यवक डॉ पी के सिंह बताते हैं, " घटते जल स्तर की वजह से किसानों का रुझान अलसी की खेती की तरफ बढ़ा है। वर्ष 2016-17 में 46 प्रतिशत इजाफा हुआ है। 76 प्रकार की प्रजातियां विकसित की गयी हैं जिनमें पदमनीय, शारदा, जेएलएस-73 जेएलएस-66, जेएलएस-67, जेएलएस-95, इंद्रा अलसी-32, कार्तिकेय, दीपिका मुख्य हैं जो कम पानी में किसानों को बेहतर उपज देती हैं।"
वो आगे बताते हैं, "अलसी के रकबे में पिछले दो वर्षों में लगातार इजाफा हो रहा है। धान के बाद 11 मिलियन हेक्टेयर खेत खाली रहते हैं। उन क्षेत्रों के लिए किसान उतेरा पद्यति अपना सकते हैं। जब धान बालियों पर रहे उस समय अलसी का बीज फैला देते हैं इसे उतेरा पद्यति कहते हैं।"
अलसी का महत्व ओमेगा-3 की वजह से बढ़ रहा है, ये अलसी से मिलता है जो कि मस्तिष्क के विकास के लिए बहुत उपयोगी है। इसके अलावा ओमेगा-3 बॉडी टॉनिक, हेल्थ टॉनिक, बच्चों के विकास तथा कैंसर में बहुत उपयोगी है।
भूमि का चुनाव व बीजोपचार
जैविक खाद
रासायनिक खाद
फसल पद्धतियां और प्रजातियां
अलसी की बारानी, उतेरा और सिंचित फसल बोई जाती है। जलवायु के अनुरुप अलसी की विभिन्न जातियां विकसित की गई हैं।