अयोध्या विवादः 1885 में पहली बार कोर्ट में पहुंचा था मामला, जानिए उसके बाद से कब क्या हुआ?

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अयोध्या विवादः 1885 में पहली बार कोर्ट में पहुंचा था मामला, जानिए उसके बाद से कब क्या हुआ?

अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुना दिया है। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच ने विवादित जमीन पर राम जन्मभूमि न्यास के पक्ष में फैसला दिया। कोर्ट ने सरकार को एक ट्रस्ट बनाकर 3 से 4 महीने के भीतर विवादित जमीन को राम जन्मभूमि न्यास को सौंपने का आदेश दिया। वहीं, मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या में ही 5 एकड़ की जमीन दी जाएगी।

यह पूरा विवाद 1885 में पहली बार कोर्ट में आया, जब निर्मोही अखाड़े के महंत रघुबीर दास ने फैजाबाद जिला अदालत में एक याचिका दायर कर विवादित स्थल पर मंदिर बनाने की अनुमति मांग की थी। हालांकि कोर्ट ने अनुमति देने से इनकार करते हुए यह कहा था कि ऐसा करना भविष्य में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगों की बुनियाद डालना होगा।

सिविल कोर्ट में याचिका खारिज होने के बाद निर्मोही अखाड़े ने डिस्ट्रिक्ट जज चैमियर की कोर्ट में अपील की। विवादित स्थल का मुआयना करने के बाद डिस्ट्रिक्ट जज ने टिप्पणी की कि हिंदू जिस जगह को पवित्र मानते हैं वहां पर मस्जिद का बनना दुर्भाग्यपूर्ण था। लेकिन यह घटना 356 साल पहले की है, इसलिए अब मौजूदा हालत में बदलाव करना समाजिक सौहार्द के लिए नुकसानदायक होगा।

इसके बाद यह मामला आजादी तक शांत रहा। हालांकि 30 और 40 की दशक में शिया और सुन्नी में जमीन के मालिकाना हक को लेकर विवाद हुआ। यह विवाद इसलिए सामने आया क्योंकि बाबरी मस्जिद का निर्माण कराने वाला सेनापति मीर बाकी एक शिया था जबकि उस समय का शासन बाबर सुन्नी था। सुप्रीम कोर्ट ने आज सबसे पहले शिया पक्ष के दावे को खारिज किया।

देश के आजाद होने के वक्त ही यह मामला फिर से तब सुर्खियों में आया जब दिसंबर, 1949 में विवादित ढांचे के बाहर मस्जिद के केंद्रीय गुंबद में राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तियां स्थापित की गईं। तब यह कहकर प्रचार किया गया कि रामलला मंदिर में प्रकट हुए हैं और उन्होंने अपने जन्म स्थान पर खुद कब्जा किया है। कहा जाता है कि हिंदू पक्ष को तत्कालीन जिला प्रशासन से भी सहयोग मिला, जिससे वे यह सब करने में सफल रहे। तत्कालीन डीएम के.के. नायर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह का नाम आरएसएस से जोड़ा गया। बाद में नायर में जनसंघ के टिकट पर लोकसभा का चुनाव भी लड़े।

मूर्तियां स्थापित करने के बाद हिंदू पक्ष पूजा-पाठ की अनुमति मांगने लगा। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने सिविल अदालत में एक अपील दायर कर कहा कि जन्मभूमि पर स्थापित राम और अन्य मूर्तियों को हटाया न जाए और उन्हें दर्शन और पूजा के लिए जाने से रोका न जाए। लेकिन सिविल जज ने इस मामले में तत्कालीन यथास्थिति बनाए रखने का स्थगन आदेश दे दिया।

इसके दस साल बाद 1959 में निर्मोही अखाड़े ने मामले में प्रवेश किया। कोर्ट में दायर एक याचिका में जन्मस्थान का प्रबंधक होने का दावा कर अखाड़े ने पूजा और प्रबंधन के अधिकार की मांग की। इसके दो साल बाद 1961 में जवाबी कार्यवाही करते हुए सुन्नी वक्फ बोर्ड ने एक और मुकदमा दायर किया। इसमें मस्जिद पर सुन्नी वक्फ बोर्ड के मालिकाना हक की बात कही गई। जिला कोर्ट इस मामले से जुड़े सभी मुकदमों को एक साथ जोड़कर सुनवाई करने लगा।

1984 में जब देश में राजीव गांधी की सरकार थी तब विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने विवादित स्थल का ताला खोलने और मंदिर के निर्माण के लिए आंदोलन करना शुरु कर दिया। इस बीच 1 फरवरी 1986 को फैजाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने विवादित स्थल पर हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत दे दी। ताला खोल दिया गया।

जुलाई, 1989 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर मुकदमे को फैजाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से स्थान्तरित कर हाईकोर्ट में त्वरित सुनवाई की मांग की। हाईकोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर सुनवाई शुरु की।

मंदिर निर्माण के लिए देश भर में माहौल बनाने का मकसद लेकर सितंबर 1990 में बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने एक रथयात्रा शुरु की। इस रथयात्रा के शुरु होने के बाद देश में कई जगह साम्प्रदायिक दंगे हुए। बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी को बिहार में ही गिरफ्तार कर लिया। लेकिन कारसेवक अब रुकने वाले नहीं थे। मुलायम सिंह यादव सरकार के तमाम प्रतिबंधों के बाद भी 30 अक्टूबर को लाखों कार सेवक अयोध्या पहुंच गए और मस्जिद के गुंबद पर चढ़कर हंगामा करना शुरु किया। कारसेवकों को रोकने के लिए पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी, जिसमें 16 कारसेवकों की मौत हो गई।

दिसंबर, 1992 में विश्व हिंदू परिषद ने फिर से कारसेवा का ऐलान किया। इस बार राज्य में कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी। 6 दिसंबर, 1992 के दिन कारसेवक बाबरी मस्जिद पर चढ़ गए और ढाचे को गिरा दिया। इस मामले में लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सहित कई बीजेपी नेताओं पर अभी भी मुकदमा चल रहा है।

30, सितंबर 2010 को अयोध्या मामले में पहला बड़ा फैसला आया। इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने 2-1 की बहुमत से विवादित भूमि को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के बीच 3 हिस्सों में बांटने का आदेश दिया। हालांकि कोई भी पक्ष इस फैसले को लेकर संतुष्ट नहीं था और सभी पक्ष इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए।

9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर स्टे लगाते हुए मामले की सुनवाई शुरु की। 21, मार्च 2017 को तत्कालीन चीफ जस्टिस जेएस खेहर ने संबंधित पक्षों से अदालत के बाहर समाधान का सुझाव दिया। लेकिन किसी भी समझौते पर संबंधित पक्षों में बात नहीं बनी। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई चलती रही

जनवरी, 2019 में मामले को नए सिरे से सुनने के लिए सुप्रीम कोर्ट 5 न्यायाधीशों की एक बेंच का गठन किया, जिसकी अध्यक्षता चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को सौंपी गई। 26, फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से मध्यस्थता का सुझाव दिया। इसके लिए एक कमेटी का भी गठन हुआ। लेकिन एक बार फिर मध्यस्थता पर बात नहीं बनी।

मध्यस्थता के फिर से विफल होने पर सुप्रीम कोर्ट ने 6 अगस्त, 2019 से फिर से मामले की सुनवाई शुरु की। इस बार मामले के जल्द निपटारे के लिए रोज सुनवाई की बात कही गई।

16 अक्टूबर, 2019 तक मामले की सुनवाई पूरी हो गई और जजों ने फैसला सुरक्षित रखते हुए कोर्ट ने 17 नवंबर, 2019 से पहले फैसला सुनाने की घोषणा की।

9 नंवंबर, 2019 को इस मामले में ऐतिहासिक फैसला आया।

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अयोध्‍या फैसला: मस्जिद के लिए मिलेगी दूसरी जगह, रामजन्मभूमि न्यास को मिलेगी विवादित जमीन



   

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