बाढ़ के बाद: फिर से बसने की आस में बाढ़ प्रभावित

'बाढ़ के बाद' के हालात को जानने-समझने के लिए गांव कनेक्शन की टीम देश के अलग-अलग हिस्सों का दौरा कर रही है। इसी क्रम में टीम बिहार के मधुबनी जिले के नरूआर गांव पहुंची, जो बाढ़ की वजह से सबसे अधिक प्रभावित गांवों में से एक है।

Daya SagarDaya Sagar   8 Nov 2019 10:25 AM GMT

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"मेरा गांव उसरारपुर, नरुआर में पड़ता था, जो कि अब नहीं रहा!"

"नहीं रहा, मतलब?"

"नहीं रहा, मतलब पूरी बस्ती खत्म हो गई। टोले में कुल 59 घर थे, सब के सब बाढ़ में बह गए। हमारे बाप-दादा ने सालों की मेहनत और बचत के बाद ये घर बनवाए थे, लेकिन अब कुछ नहीं बचा। हम रातों-रात सड़क पर आ गएं।"

बिहार के मधुबनी जिले के नरुआर गांव के सुनील मंडल (24 वर्ष) बाढ़ में जमींदोज हो चुके अपने घर को दिखाते हुए बताते हैं। वह इतना सब कुछ एक ही सांस में बोल जाते हैं, जैसा कि उन्हें यह सब रटा हुआ हो। उनकी आवाज में दुःख के साथ-साथ गुस्से का दोहरा भाव दिखता है, जो कि बाढ़ में सब कुछ खो जाने और सरकार से उचित मदद ना मिलने की वजह से उपजा है।

नरुआर गांव, जो हाल बाढ़ के बाद था, वही अभी भी है। कुछ खास नहीं बदला है।

बिहार साल 2019 में बाढ़ से सबसे अधिक प्रभावित राज्य रहा, जहां के 28 जिलों के 1.19 करोड़ लोग बाढ़ से प्रभावित हुए। बिहार राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक इस बाढ़ में 166 लोगों की जान गई, वहीं अरबों की चल-अचल की संपत्ति, पशुधन और उपज का नुकसान हुआ। बाढ़ के गुजर जाने के तीन महीने के बाद भी यहां के लोगों की जिंदगी पटरी पर वापस आते नहीं दिख रही है और लोग पुनर्वास व मुआवजे के लिए भटकने पर मजबूर हैं। आपको बता दें कि बिहार सरकार के मानदंडों के अनुसार प्त्येक बाढ़ पीड़ित को 6000 रुपये के तात्कालिक मदद के साथ-साथ उनके घर, खेत, पशुओं और अन्य संपत्तियों के हुए नुकसान का आकलन के बाद क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान है।

'बाढ़ के बाद' के हालात को जानने-समझने के लिए गांव कनेक्शन की टीम देश के अलग-अलग हिस्सों का दौरा कर रही है। इसी क्रम में टीम बिहार के मधुबनी जिले के नरूआर गांव पहुंची, जो बाढ़ की वजह से सबसे अधिक प्रभावित गांवों में से एक है।

13-14 जुलाई, 2019 की रात इस गांव के लिए एक काली रात बन गई थी, जब गांव के पास कमला नदी पर बना तटबंध अचानक से टूट गया और हजारों लोगों के जान पर बन आई। रात में आई इस अचानक की बाढ़ से किसी तरह लोगों ने अपनी जान बचाई लेकिन पानी की धार इतनी तेज थी कि तटबंध के पास बसे उसरारपुर टोले के सभी 59 घर और सरकारी स्कूल सैलाब में बह गए।

नरुआर गांव के पास टूटा हुआ तटबंध, जिसके मरम्मत के लिए सरकार ने अभी तक कोई कदम नहीं उठाया है। गांव वालों का कहना है कि तटबंध ना बनने की वजह से अक्टूबर में नदी का पानी फिर से गांव में घुस आया था, जो कि अभी भी खेतों और गांव में ठहरा हुआ है।

ये सभी 59 घर अभी-अभी नए बने थे। कई घर तो पूरी तरह से बने भी नहीं थे कि सैलाब ने इन्हें पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। उसरारपुर टोला निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की एक छोटी सी बस्ती है, जहां के लोगों ने अपने जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए दो दशक पहले ही दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े शहरों का रुख करना शुरु किया था।

यहां के लोग इन शहरों में मजदूरी और प्राइवेट नौकरी करते हैं। साल भर में जो बचा पाते हैं, वह घर बनवाने और उसको बेहतर करने में खर्च कर देते हैं। जैसा कि गांव की कमला देवी (43 वर्ष) रोते हुए बताती हैं, "घर बनाने में 6-7 लाख रुपये खर्च हुआ था। उनकी (पति की) पूरे जिंदगी भर की कमाई यही थी। लेकिन बाढ़ ने सब कुछ बहा दिया। रुपये-कपड़े, गहना-जेवर, टीवी-फ्रिज हमारे पास धीरे-धीरे सब कुछ हो गया था, लेकिन अब कुछ भी नहीं बचा।"

कमला देवी के लिए यह बाढ़ मुसीबतों का पहाड़ बनकर आई। रात में आई अचानक की बाढ़ उनके घर के साथ-साथ उनके ससुर को भी बहा कर ले गई। दिल्ली में रहकर ड्राइवरी करने वाले कमला देवी के पति फिर से कमाने के लिए वापिस दिल्ली लौट चुके हैं। फिलहाल वह अपनी सास और बेटे के साथ गांव के किनारे बने एक राहत शिविर (कैम्प) में रहती हैं, जहां के शौचालय में फिसलने से उनकी सास के पांव टूट गए हैं।

बिजली विभाग के चार बड़े कमरों में बने इस राहत शिविर में 59 परिवारों के दो सौ से अधिक लोग रहते हैं। हर घर से एक या दो लोग शहरों की तरफ फिर से पलायन कर गए हैं ताकि घर की रोजी-रोटी चल सके। सुरक्षा की चिंता से कई परिवारों ने अपनी बेटियों और बहुओं को रिश्तेदारों के वहां भेज दिया है। वहीं परिवार के कई बुजुर्ग और मरीज सदस्यों को भी रिश्तेदारों के यहां शरण लेनी पड़ी है ताकि किसी भी आपात स्थिति में उनसे वे निपट सकें।

टेंट और सरकारी भवन में रहने को मजबूर हैं बाढ़ विस्थापित

कमला देवी ने अपनी बड़ी बेटी को मायके भेज दिया है। वहीं मंजुला देवी को भी अपने बहु को उसके मायके भेजना पड़ा, क्योंकि वह गर्भवती थीं। मंजुला कहती हैं, "यहां पर कोई व्यवस्था नहीं है। चारों तरफ से सब खुला हुआ है। नदी की तरफ से ठंडी हवा आती है जो जच्चा-बच्चा को नुकसान करती। इसलिए मायके भेजना पड़ा।" उम्र के 63 बसंत पार कर चुकी मंजुला को उम्मीद नहीं है कि वह अपने पोते को फुरसत से कभी खिला पाएंगी।

बाढ़ से विस्थापित लोगों के लिए बने इस राहत शिविर में पुरुष और बड़े बच्चे बाहर बने काले पन्नी के टेंट में सोते हैं, जबकि महिलाओं और छोटे बच्चों को कमरों में एक साथ सोना पड़ता है। इन कमरों में परिवारों ने अपना एक-एक कोना ले रखा है, जहां पर वे अपना कपड़ा-लत्ता, राशन और बाढ़ में बचा पाए थोड़े से सामान तो रखते हैं। जैसे-जैसे ठंड करीब आ रही है, वैसे-वैसे इन लोगों की चिंता बढ़ती जा रही है कि ठंड में पन्नी के खुले टेंट में उनका गुजारा कैसे होगा?

बिहार सरकार की तरफ से राज्य के प्रत्येक बाढ़ प्रभावित परिवार को तात्कालिक सहायता के रुप में 6000 रुपये मिलने थे, जो कि नरुआर गांव के लोगों को भी मिला है। लेकिन इनके लाखों के नुकसान को देखते हुए यह 6000 रुपये नाकाफी लगते है।

जैसा कि गांव की कुसुम देवी (37 वर्ष) शिकायत भरी आवाज में कहती हैं, "जिनके घर में बाढ़ का थोड़ा सा पानी आया, उन्हें भी 6000 और जिनका पूरा घर ही उजड़ गया, उन्हें भी 6000? आप ही बताइए क्या यही सरकार का न्याय है? सरकार भी चाहती है कि छठ-दीवाली के सीजन में हम लोग अंधेरे में रहे, इसलिए हमको बसाने की अब तक कोई व्यवस्था नहीं की गई है।"

नरुआर गांव में घरों का मलबा. गांव के लोग अभी भी अपने घरों को देखने जाते हैं। कई बार पानी या खेत में उन्हें अपने घर का कुछ खोया हुआ सामान मिल जाता है, जिससे उन्हें थोड़ी देर के लिए ही सही पर खुशी मिलती है।

दरअसल बिहार सरकार की तरफ से बाढ़ से विस्थापित परिवारों के लिए अभी तक पुनर्वास की कोई घोषणा नहीं की गई है। बिहार सरकार में वरिष्ठ मंत्री डा. प्रेम कुमार ने जमुई में आयोजित एक कार्यक्रम से इतर गांव कनेक्शन को बताया कि बाढ़ से हुए मकानों और खेतों के नुकसान का अभी आकलन और सर्वे कराया जा रहा है। सर्वे पूरा होते ही पीड़ित परिवारों और किसानों को उचित मुआवजा मिलेगा।

हालांकि प्रेम कुमार ने यह नहीं बताया कि प्रक्रिया कब तक पूरी होगी। उन्होंने उम्मीद जताई कि नवंबर के आखिरी तक कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद पुनर्वास और मुआवजे की प्रक्रिया शुरु हो जाएगी। सर्वे की बात राज्य आपदा प्रबंधन विभाग की वेबसाइट भी कहती है। लेकिन बाढ़ प्रभावितों ने किसी भी सर्वे पर अपनी अनभिज्ञता जताई।

गांव के बुजुर्ग जालंधर मंडल (65 वर्ष) ने बताया, "बाढ़ के तुरंत बाद डीएम, एसडीएम और अन्य अधिकारी कैम्प में आते भी थे लेकिन अब वे भी नहीं आते। सरकार की तरफ से हमें खाना बनाने के लिए पहले राशन मिला करता था लेकिन पिछले महीने वह भी बंद हो गया है। अब हमें सरकारी बिजली के अलावा सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिलती।"

गांव के ही ईशनाथ झा बताते हैं, "अभी तो हमें अखबार और खबरों के माध्यम से पता चलता है कि सर्वे के लिए टीमें गठित की जा रही है, जल्दी ही टीमें गांवों में जाकर सर्वे करेगी। लेकिन अभी तक कोई सर्वे वाला गांव में नहीं आया। व्यक्तिगत नुकसान को छोड़ दिया जाए प्रशासन ने अभी तटबंध की मरम्मत नहीं कराई है, जबकि जल संसाधन मंत्री संजय झा कई बार टूटे तटबंध पर आकर इसके मरम्मत का आश्वासन दे चुके हैं।"

कई ग्रामीणों ने तटबंध पर ही शरण ले ली है। उनके लिए अब यही घर है।

लंबे समय से बिहार बाढ़ पर काम करने वाले समाजसेवी और वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र कहते हैं, "बेशक इन लोगों का नुकसान बहुत अधिक है, लेकिन सरकार के पुरान रिकॉर्ड को देखते हुए नहीं लगता कि उनके नुकसान का मुआवजा मिल पाएगा। सरकार बाढ़ के बाद हर साल कहती है कि वह सर्वे कराकर पीड़ितों को मुआवजा और पुनर्वास देगी लेकिन हर बार उन्हें 6000 से अधिक कुछ नहीं मिलता।"

कुछ ऐसी ही बात कोसी नवनिर्माण मंच के महेंद्र यादव भी कहते हैं। कोसी बाढ़ पीड़ितों के लिए दशकों से काम करने वाले महेंद्र यादव गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "राहत, मुआवजा और पुनर्वास, यह सब प्रशासन की महज लफ्फाजी है। अधिकारी और मंत्री सर्वे का हवाला इसलिए देते हैं ताकि वे बता सकें कि कुछ काम हो रहा है। सच यह है कि 2008 के 70 फीसदी कोसी बाढ़ प्रभावितों को अभी तक पुनर्वास और मुआवजा नहीं मिल पाया है जबकि उनके लिए वर्ल्ड बैंक से भी पैसा आया था। इसी तरह 2017 में भी भयानक बाढ़ आई थी, तब के पीड़ित आज भी भटक रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि 2019 के बाढ़ पीड़ितों को भी कुछ मिल पाएगा। हालांकि हम अपने संगठन की तरफ से आन्दोलन कर प्रशासन पर दबाव बनाएंगे और पीड़ितों को मुआवजा दिलाने की पूरी कोशिश करेंगे।"

महेंद्र यादव इन तमाम अनियमितताओं के लिए सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति और प्रशासन के भ्रष्टाचार को दोष देते हैं। इसके अलावा वह मानते हैं कि नेताओं और अधिकारियों को लगता है कि वह राहत और मुआवजा देकर बाढ़ पीड़ितों पर एहसान कर रहे हैं, उन्हें खैरात बांट रहे हैं। जबकि ऐसा नहीं है। राहत, मुआवजा और पुनर्वास बाढ़ पीड़ितों का अधिकार है। जब तक सरकार और प्रशासन अपनी इस सोच को नहीं बदलेगी, तब तक नियम बनाने से और पटना में बड़े-बड़े ऐलान करने से कुछ नहीं होने वाला।"

बच्चों को अपने स्कूल के फिर से बनने का इंतजार

प्रधानाचार्य जगदीश प्रसाद के साथ गांव के स्कूल के बच्चे। बच्चों का स्कूल बाढ़ में एकदम बर्बाद हो गया, जिसके पुनर्निर्माण को लेकर अब तक कुछ नहीं हुआ है।

नरुआर गांव से लौटते वक्त हमें गांव का प्राथमिक स्कूल दिखा। बाढ़ ने स्कूल को भी नुकसान पहुंचाया है और पूरा भवन मलबे में तब्दील हो चुका है। बच्चों की पढ़ाई अब पास में बने सरकारी भवन 'बाढ़ सुरक्षा केंद्र' में होती है, जहां पर ना ब्लैक बोर्ड है और ना ही बच्चों की बैठने की सुविधा।

स्कूल के प्रधानाचार्य जगदीश प्रसाद ने खुद को असहाय बताया। वह बताते हैं कि अधिकारियों को कई बार बताया गया कि विद्यालय में फिर से निर्माण कार्य कराये जाने की जरूरत है, लेकिन अभी तक एक भी ईट इधर-उधर नहीं हुआ। अगर जल्दी सब कुछ सही हो जाए तो बच्चों की पढ़ाई प्रभावित नहीं हो।

वह कहते हैं, "बाढ़ के बाद पूरी की पूरी व्यवस्था ही चरमरा गई। विद्यालय धीरे-धीरे बेहतर हो रहा था। पक्के भवन, ब्लैक बोर्ड सब बन गए थे। 200 से अधिक बच्चे पढ़ने भी आते थे। लेकिन एक ही झटके में सब खत्म हो गया। कई दिन तो पढ़ाई भी बंद रही। अब 100 से भी कम बच्चे पढ़ने आते हैं। जिनका घर बर्बाद हो गया, कुछ भी नहीं बचा, वह भला पढ़ने का क्या ही सोचेगा।"

दरअसल यह विद्यालय उसरारपुर टोले में ही पड़ता है। इसलिए टोले के छोटे बच्चे इस विद्यालय में पढ़ने जाते थे। लेकिन अब स्कूल की दूरी बाढ़ प्रभावितों के लिए बसाये गए कैम्प से काफी दूर हो गई है। दूरी की वजह से कैम्प के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। शुरुआत में कैम्प में भी विद्यालय के एक अध्यापक जा कर पढ़ाते थे लेकिन अब उनका भी जाना बंद हो गया है।

अब कैम्प के बच्चे सिर्फ परीक्षा देने स्कूल जाते हैं। राहत कैम्प में रहने वाली कक्षा सातवीं की छात्रा चांदनी कुमारी ने बताया कि उसे नहीं पता कि उसका परीक्षा कैसा गया। हालांकि चांदनी यह जरुर कहती है कि वह अपने स्कूल के दोस्तों को जरुर याद करती है जिनके साथ वह दोपहर की छुट्टी में खेला करती थी। बगल में खड़ी आर्ची कुमारी भी उन दिनों को याद कर मुस्कुरा देती है।

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