कोरोना लॉकडाउन के बीच कुष्ठ रोगियों को भूली सरकार

राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम के तहत कुष्ठ रोगियों को दवाएं, ड्रेसिंग सामग्री और उचित देख-रेख करने का नियम है। लेकिन इस महामारी के दौर में सरकार से इस तरह की कोई मदद नहीं मिल रही है।

Shivani GuptaShivani Gupta   23 Jun 2020 12:28 PM GMT

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कोरोना लॉकडाउन के बीच कुष्ठ रोगियों को भूली सरकार

प्रयागराज के दारागंज स्थित साई बाबा कुष्ठ रोगी सेवा आश्रम में रहने वाले 50 वर्षीय विनय स्टोव के पास बैठकर अपने लिए चाय नहीं बना सकते। बारिश होने पर वह बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि उनके पैरों के तलवों में छाले निकल आते हैं। विनय को कुष्ठ रोग है और पिछले 20 वर्षों से वह इस बीमारी के साथ जी रहे हैं।

विनय कहते हैं, "जब मैं चलता हूं तो मेरे पैर में छाले पड़ जाते हैं। बारिश के मौसम में अगर मैं बाहर निकलूं हैं तो पैरों में सूजन आ जाता है। मुझे कपड़े पहनने और भोजन चबाने में भी दिक्कत होती है। दुर्भाग्यवश, यह बीमारी आपको कब्र तक ले जाती है।"

कुष्ठ एक तरह का संक्रामक त्वचा रोग है, जो हाथ-पैरों की उंगलियों और नसों को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है। बार-बार चोट लगने से वह बेढंगी हो सकता है और यहां तक कि हाथ-पैर की उंगलियों को हमेशा के लिए नुकसान भी हो सकता है।


स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार, राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम के तहत कुष्ठ रोगियों को सहायक दवाएं, ड्रेसिंग सामग्री और उचित देख-रेख करने का प्रावधान है। हालांकि जब गांव कनेक्शन की टीम ने प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में रहने वाले इन रोगियों से संपर्क किया, तो उन्होंने बताया कि उन्हें सरकार से इस तरह की कोई मदद नहीं मिल रही है। लॉकडाउन ने उनके लिए बड़ी समस्या खड़ी कर दी है।

पैरों में कुष्ठ की समस्या का सामना कर रहे विनय ने बताया कि पहले डॉक्टर हर शनिवार को हमें देखने आते थे। वे हमें दवाइयां और रुई देते थे। लेकिन लॉकडाउन के दौरान हमें कोई देखने नहीं आया। हमारे हाथों और पैरों में घाव है और इसी कारण हमें रोजाना ड्रेसिंग करने की जरूरत पड़ती है।

भारत में हमेशा से ही कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की बड़ी आबादी रही है। 2018 में प्रकाशित नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 30 मिलियन लोग कुष्ठ रोग संबंधी समस्या से ग्रसित हैं।

भारत स्थित 750 कुष्ठ कॉलोनियों में लगभग 2 लाख लोग रहते हैं। बीमारी के बारे में बनी कई गलत धारणाओं के कारण इन्हें असल समाज से दूर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इनमें से कई कॉलोनियों में न तो शौचालय की व्यवस्था है, न पीने के पानी की और न ही आने-जाने के लिए उचित सड़कें हैं। इसके अलावा लोग भी आमतौर पर इन रोगियों से बचते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें सार्वजनिक परिवहन में समस्याओं का सामना करना पड़ता है।


विनय की तरह इस आश्रम में 23 अन्य ऐसे मरीज हैं जो कई सालों से साईं बाबा कुष्ठ रोग सेवा आश्रम में रह रहे हैं। इनमें से कुछ की आयु 50 तथा कुछ की आयु 60 के आसपास है। वहीं कुछ पिछले 20 साल, कुछ 25 साल से तो कुछ 40 साल से इस बीमारी के साथ जी रहे हैं।

इनमें से कई मरीज पूरी तरह से ठीक हो गए हैं। हालांकि ठीक होने के बावजूद बीमारी का कुछ शेष भाग शरीर में विकृति के रूप में दिखाई देता है। कुष्ठ रोग सीधे रोगी के नर्वस सिस्टम पर अटैक करता है। इसमें रोगी को चलते या काम करते समय चोट महसूस नहीं होता, जो कि बाद में विकृति बनकर उभरता है।

इंडियन एसोसिएशन ऑफ डर्मेटोलॉजिस्ट, वेनेरोलॉजिस्ट और लेप्रोलॉजिस्ट (IADVL) समूह के सदस्य संतोष राठौड़ कहते हैं कि ऐसे रोगियों को हम 'सर्वाइवर्स ऑफ लेप्रोसी' (बीमारी को हरा देने वाला) कहते हैं।


रोगियों के लिए ड्रेसिंग सामग्री की अनुपलब्धता के बारे में बात करते हुए संतोष ने कहा, "यदि किसी मरीज को घाव या अल्सर होता है, तो उनके घाव भरने के लिए रोज ड्रेसिंग की आवश्यकता होती है। यदि ऐसा नहीं होता, तो घाव और अधिक गंभीर हो जाते हैं।"

'शुरुआत एक ज्योति आशा की' संस्था के संस्थापक अभिषेक शुक्ला कहते हैं कि कुष्ठ रोगियों के बारे में शायद ही किसी को चिंता होती हो। लॉकडाउन के दौरान अभिषेक और उनकी टीम इन रोगियों को दवा और ड्रेसिंग सामग्री वितरित करने का कार्य कर रही है। अभिषेक ने बताया, "हम इन मरीजों को एंटीबायोटिक्स, पैरासिटामोल, ट्यूब, स्पिरिट, बैंडेज और कॉटन उपलब्ध कराते हैं।"

अभिषेक को एक रोगी पर प्रति किट 500 रुपये का खर्चा आता है जो कि 15 दिनों तक चलती है। 'शुरुआत एक ज्योति आशा की'एक गैर-लाभकारी संगठन है जो तीन साल से झुग्गियों और सड़कों पर रहने वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करने का कार्य कर रहा है।


उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया कि दारागंज आश्रम के इन 23 रोगियों के अलावा, करैलबाग क्षेत्र में लगभग 50 रोगी हैं, जिन्हें लॉकडाउन के कारण आवश्यक दवाएं नहीं मिल पा रही हैं। वहीं प्रयागराज के संगम क्षेत्र में कोड़ीखाना, परेड रोड में भीऐसे कई आश्रम हैं, जहां इन मरीजों को दैनिक सुविधा की चीजें और ड्रेसिंग सामग्री तक के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कई अन्य जगहों पर भी स्थिति और खराब है।

अभिषेक और उनकी टीम ड्रेसिंग सामग्री के साथ ऐसे लगभग 70 रोगियों की मदद कर रही है। वहीं सरकार इसका एक परसेंट भी नहीं कर रही, अभिषेक कहते हैं।

लेकिन जब गाँव कनेक्शन ने जिला कुष्ठ अधिकारी, प्रयागराज के डॉ. वी शेखर से बात की तो उन्होंने कहा, "हम अपने कुष्ठ कॉलोनियों में रहने वाले कुष्ठ-विकलांग रोगियों को बराबर पट्टी, रूई, सेवलॉन और लोशन प्रदान कर रहे हैं।"


जब हमने उन्हें दारागंज आश्रम में रोगियों के बारे में जानकारी दी, तो उन्होंने इस तथ्य से इनकार किया कि उन्हें ड्रेसिंग सामग्री नहीं मिल रही है। इसके बजाय, उन्होंने कहा कि महीने में एक या दो बार डॉक्टर इन कॉलोनियों का दौरा करते रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान इन रोगियों के लिए कोई भी सेवा प्रभावित नहीं हुई है।

अभिषेक से जब हमने दोबारा इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा, "जमीन पर केवल 10 से 20 प्रतिशत काम हो रहा है। जो काम सरकार को करना चाहिए था वो हम कर रहे हैं। अगर सरकार अपना काम कर रही होती, तो हमारे जैसे लोगों को ऐसे महामारी के समय आगे आने की जरूरत नहीं पड़ती।"

उन्होंने आगे कहा, "लॉकडाउन ने ऐसे मरीजों की और दुर्दशा कर दी है। अन्य क्षेत्रों में ऐसे कई मरीज हैं जिन्हें मदद की तत्काल आवश्यकता है।"

प्रयागराज के नैनी में कुष्ठ रोगियों के सामुदायिक अस्पताल, लेप्रोसी ट्रस्ट ऑफ इंडिया (टीएलएम) के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "इस अस्पताल में दारागंज के मरीजों का इलाज किया गया था, जिनमें से ज्यादातर मरीज अब ठीक हो गए हैं। लेकिन अगर उनमें से किसी मरीज को अल्सर होता है, तो उसे इलाज कराने खुद अस्पताल आना होता है। हम वहां नहीं जा सकते।"

आश्रम से अस्पताल की दूरी पूछने पर अधिकारी ने हमें बताया कि अस्पताल तक आने के लिए रोगी को तीन किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है जबकि अभिषेक के अनुसार यह दूरी 7 किलोमीटर है।


अभिषेक कहते हैं, "जब उनके पैरों में विकृति है तो वे कैसे यह दूरी तय कर सकते हैं और ऐसे में अस्पताल जाना उनके लिए किताना मुश्किल होगा? उनके पैरों में घाव है और बार-बार चलने से उस पर और चोट लगती है।"

कुष्ठ मिशन ट्रस्ट के एक अधिकारी ने हमें बताया कि उन्होंने रोगियों को अप्रैल माह में आटा, चावल, साबुन, आलू, प्याज सहित सूखा राशन वितरित किया था। वहीं जब हमने उनसे सवाल किया कि अब वह उनकी मदद के लिए क्या कर रहे हैं? इसके जवाब में अधिकारी ने कहा, "हम इसे उस फंड के आधार पर करते हैं जो हमें ओपीडी से मिलता हैं। इस समय हमारे काम को भी नुकसान हुआ है। हमें सामान्य ओपीडी से फंड नहीं मिल रहा है। जब ओपीडी काम नहीं कर रही है, तो हम खर्चों का प्रबंधन कैसे करेंगे?"

अधिकारी ने हमें यह भी बताया कि अब अस्पताल बंद है और उन्हें काम करने की अनुमति नहीं है।"हम कुष्ठ रोग से प्रभावित लोगों के लिए हमेशा उपस्थित हैं, बस हमें काम करने की अनुमति चाहिए। यहां यह एकमात्र ऐसा अस्पताल है जो कुष्ठ रोगियों के लिए काम कर रहा है। इसे राज्य और देश भर में कुष्ठ रोग के लिए सबसे बड़ा अस्पताल माना जाता है। लेकिन हमें तालाबंदी के दौरान काम करने की अनुमति नहीं दी गई है। हमें जैसे ही अनुमति मिलेगी हम काम शुरू कर देंगे।"


कुष्ठ रोगियों के लिए पिछले 15 सालों से काम कर रहे संतोष कहते हैं, "आमतौर पर कुष्ठ रोगियों का इलाज गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों द्वारा किया जाता है। मगर इस समय सभी स्वास्थ्य कर्मी कोरोना वायरस से पीड़ित मरीजों की देखभाल में लगे हैं इसलिए इन पर कोई ध्यान नहीं दे पा रहा है। कोरोना वायरस की वजह से अन्य रोगों से पीड़ित मरीजों को भी समय पर इलाज मुहैया नहीं हो पा रहा है।"

इन रोगियों के लिए आय का एकमात्र स्रोत 2,500 रुपये हैं जो उन्हें सरकार से पेंशन के रूप में मिलते हैं। इन पैसों से ये लोग ड्रेसिंग का समान नहीं ले सकते क्योंकि इतने पैसों में ही उन्हें घर का खर्च चलाना होता है।

कुष्ठ रोग से पीड़ित विनय बताते हैं, "कुछ समय पहले गंगा घाट पर आने वाले लोग उन्हें कुछ पैसे या चावल, आटा दे जाया करते थे। हम भिक्षुक हो गए हैं। हमारे हाथ-पैर काम नहीं करते। हम मजदूरी का काम भी नहीं कर सकते। हम काम करने बाहर नहीं जा सकते। इस महामारी ने हमारा रहा सहा भी हमसे छीन लिया है।"

अनुवाद- सुरभि शुक्ला

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