मानेसर: आर्थिक सुस्ती की मार झेल रहे दिहाड़ी और ठेके के मजदूर

ऑटोमोबाइल सेक्टर में आई आर्थिक सुस्ती का सबसे अधिक असर मजदूरों पर पड़ा है। ऑटोमोबाइल सेक्टर के हब मानेसर में मजदूरों की नौकरियां जा रही हैं और वे दिहाड़ी करने पर मजबूर हैं।

Daya SagarDaya Sagar   25 Sep 2019 1:27 PM GMT

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मथुरा के प्रेमवीर (25 वर्ष), मारुति कार की छत बनाने वाली कंपनी केजीपीएल, मानेसर में 8800 रूपये महीने की पगार पर क्वालिटी चेकिंग का काम करते थे। प्रेमवीर की निगरानी में ही गाड़ियों के पार्ट्स फैक्ट्री से बाहर निकलते थे। लेकिन तीन महीने पहले प्रेमवीर को ही फैक्ट्री से निकाल दिया गया।

खुद प्रेमवीर के शब्दों में, "मैं नहा-धो कर एक दिन ड्यूटी के लिए फैक्ट्री पहुंचा तो गेट पर ही मुझे रोक लिया गया। गॉर्ड ने कहा कि आज से आप मत आइएगा। मेरे साथ 40-50 और लोगों को निकाला गया था।"

अब प्रेमवीर मानेसर के लेबर चौक पर मजदूरी ढूंढ़ने के लिए आते हैं। हफ्ते में एक या दो दिन ही उन्हें मजदूरी मिल पाती है। बाकी के दिन वह दोपहर तक लेबर चौक पर ही इंतजार करते हैं। मजदूरी ना मिलने पर पहले कुछ फैक्ट्रियों पर नौकरी ढूंढ़ने जाते हैं और अंत में वापिस अपने कमरे को लौट जाते हैं, जिसका किराया वह दोस्त से उधार मांग कर चुकता कर रहे हैं। प्रेमवीर के दोस्त देवेंद्र (21 वर्ष) ने बताया कि अब तक वे लगभग 400 फैक्ट्रियों की खाक छान चुके हैं लेकिन कहीं नौकरी नहीं मिली।

भारत की ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री पिछले कई महीनों से आर्थिक सुस्ती की मार झेल रही है। सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्यूफैक्चरर्स (SIAM-सियाम) के अनुसार, वाहनों की बिक्री में लगातार 9वें महीने गिरावट दर्ज की गई। मारुति, टोयोटा, टाटा, महिंद्रा समेत देश के बड़े कार निर्माता कंपनियों के कारों की बिक्री में लगभग 30 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई है।


सियाम के आंकड़े जो बताते हैं कि हर तरह की गाड़ियों की बिक्री और उत्पादन में कमी आई है


गाड़ियों की बिक्री कम हो रही है तो फैक्ट्रियों में उत्पादन भी कम हो रहा है। इसकी मार फैक्ट्रियों और उनके सहायक वेंडर कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों पर पड़ रही है। फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन (FADA- फाडा) के अनुसार, ऑटोमोबाइल सेक्टर में आई आर्थिक सुस्ती से 2019 में लगभग तीन लाख लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं। इसमें कुशल, अर्धकुशल और अकुशल तीनों तरह के मजदूर शामिल हैं। हालांकि इससे सबसे अधिक प्रभावित वे मजदूर हैं जो कॉन्ट्रैक्ट या रोज की दिहाड़ी पर फैक्ट्रियों में मजदूरी करते हैं।

मानेसर के लेबर चौक पर प्रेमवीर की तरह हजारों मजदूर मिले जो कि कुछ महीने पहले तक किसी फैक्ट्री में कॉनट्रैक्ट लेबर के तौर पर काम करते थे लेकिन आज वे दिहाड़ी मजदूरी करने पर मजबूर हैं। हालत इतनी खराब है कि चौक पर कोई भी एक मजदूर की तलाश में आता है तो उसे लगभग 50 लोग घेर लेते हैं और निवेदन करते हैं कि उन्हें ही काम पर ले चलें।

गांव कनेक्शन की टीम भी जब मानेसर के लेबर चौक पर पहुंचती है, तो उन्हें भी मजदूरों ने घेर लिया। वे पूछने लगे कि क्या काम है, कितने आदमियों की जरूरत है? जब रिपोर्टर कहता है कि उन्हें मजदूरों की जरूरत नहीं और वह एक खबर के सिलसिले में आया है तो वे निराश होकर सड़क किनारे बने फुटपाथ पर बैठ जाते हैं।


मानेसर के लेबर चौक पर दिहाड़ी मजदूरों की भीड़. यह आम नजारा है


गुरूग्राम से सटा इंडस्ट्रियल मॉडल टाउनशिप (आईएमटी), मानेसर ऑटोमोबाइल सेक्टर का हब माना जाता है। यहां पर मारुति सुजुकी, हीरो मोटो कॉर्प और होंडा के मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट के अलावा एक हजार से अधिक छोटे-बड़ी सहायक वेंडर कंपनियां हैं, जो गाड़ियों के पार्ट्स बनाती हैं। इन फैक्ट्रियों में लाखों की संख्या में मजदूर काम करते हैं। लेकिन आज-कल लगभग सभी फैक्ट्रियों में उत्पादन का काम मंदा पड़ चुका है और मजदूरों को निकाला जा रहा है।

बिहार के रोहतास जिले के रहने वाले 48 साल के फार्रूख अहमद मानेसर के ऑटोमोबाइल फैक्ट्रियों में पिछले छः साल से काम कर रहे हैं। अनुभव होते-होते वह सुपरवाइजर पद तक पहुंच गए थे। उनकी तन्ख्वाह भी 18 हजार रुपये प्रतिमाह तक हो गई थी। आमदनी ठीक हो गई थी तो वह अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को भी मानेसर ले आए थे। किराये के दो छोटे कमरों में अपना घर-परिवार बसा लिया था।

लेकिन अगस्त महीने में कॉन्ट्रैक्टर ने उन्हें यह कहकर नौकरी से आने से रोक दिया कि अभी काम कम है। डेढ़-दो महीने बाद जब काम फिर से बढ़ेगा तो उन्हें वापस बुला लिया जाएगा। फार्रूख भी अब लेबर चौक पर दिहाड़ी मजदूरी की तलाश में आते हैं। कहते हैं, "हफ्ते में एक या दो ही दिन काम मिल पाता है। काम नहीं मिलता है तो दूसरी फैक्ट्रियों में नौकरी मांगने चला जाता हूं। दस-पंद्रह दिन और काम नहीं मिलेगा तो बिहार वापस लौट जाऊंगा।"

फार्रूख अहमद ने बताया कि उनके साथ मानेसर में काम करने वाले कई साथी वापस अपने गांव को लौट चुके हैं। इसकी पुष्टि मजदूरों को ठेका लेने वाले कॉन्ट्रैक्टर रवि यादव करते हैं।


फार्रुख अहमद और उनके साथियों को एक हफ्ते से काम नहीं मिला


मारूति प्लांट के ठीक सामने एक टपरी पर चाय पी रहे रवि यादव बताते हैं, "एक समय था जब मेरे पास दर्जन भर फैक्ट्रियों का काम और लगभग 500 की संख्या में मजदूर थे। लेकिन अभी सिर्फ 150 के पास ही मजदूर रह गए हैं। काम है नहीं तो कुछ मजदूर वापस गांव चले गए तो कुछ दिल्ली, मुंबई, सूरत और लुधियाना जैसे शहरों में दूसरे काम की तलाश में निकल गए।"

रवि कहते हैं, "मजदूरों को मैनेज करना बहुत मुश्किल हो रहा है। किसी तरह उन्हें सांत्वना देता हूं। मांगने पर उधारी भी देता हूं। उन्हें समझाता हूं कि कुछ दिन रूक जाओ या घर घूम कर आओ, दीवाली तक फिर से काम मिलने लगेगा।" रवि को डर है कि एक बार मजदूर चले जाएंगे तो मांग बढ़ने पर फिर वापस नहीं मिलेंगे।

2002 से मानेसर में काम कर रहे मुजफ्फरपुर के जिया उर रहमान कहते हैं कि पिछले तीन महीने में लेबर चौक पर मजदूरों की संख्या दोगुनी हो गई है। वह यह भी बताते हैं कि चौक पर आने वाले 90 फीसदी मजदूरों को काम नहीं मिल पा रहा और वे निराश होकर वापस लौट जा रहे हैं।

ऑटोमोबाइल सेक्टर में सुस्ती को देखते हुए केंद्र सरकार ने अगस्त महीने के आखिरी में कुछ सुधारों की घोषणा की थी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 24 अगस्त को वाहनों पर मिलने वाले डिप्रेशियसन को 15 फीसदी से बढ़ाकर 30 फीसदी कर दिया। इसके अलावा उन्होंने गाड़ियों की खरीद पर लोन लेने की प्रक्रिया को आसान बनाते हुए वाहनों के खरीद पर लगने वाले रजिस्ट्रेशन फीस में बढ़ोतरी को भी जून, 2020 तक टाल दिया।

केंद्र सरकार ने सरकारी विभागों द्वारा वाहनों की खरीद पर लगे प्रतिबंध को भी हटा दिया और यह आश्वासन दिया कि बीएस-4 वाहन 31 मार्च, 2020 के बाद भी सड़कों पर चलती रहेंगी। 20 सितंबर को सरकार ने कंपनियों पर लगने वाले कार्पोरेट टैक्स में भी राहत देने की घोषणा की और उसे 30 फीसदी से घटाकर 22 फीसदी पर कर दिया। सरकार को भी उम्मीद है कि इन राहतों के बाद दीवाली के त्योहारी सीजन में मांग बढ़ेगी और उद्योग में उत्साह लौटेगा।




सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्यूफैक्चरर्स (सियाम) के अध्यक्ष राजन वढेरा का मानना है कि सरकार अगर ऑटोमोबाइल पार्ट्स पर लगने वाली जीएसटी की दरों में कटौती करती तो ऑटोमोबाइल सेक्टर को अधिक उत्साह मिलता। वर्तमान में ऑटोमोबाइल सेक्टर के 60 फीसदी कलपुर्जों पर 28 फीसदी तो 40 फीसदी कलपुर्जों पर 18 फीसदी की जीएसटी लगता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर लगातार सरकार से 18 फीसदी की एकसमान जीएसटी दर की मांग करता आ रहा है।

हालांकि राजन वढेरा को भी उम्मीद है कि सरकार के इन कदमों से ऑटोमोबाइल सेक्टर में आई सुस्ती कम होगी और दीवाली के त्योहारी सीजन में गाड़ियों की बिक्री बढ़ेगी। फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन (FADA- फाडा) के अध्यक्ष आशीष हर्षराज काले भी सरकार के इन कदमों को ऑटोमोबाइल सेक्टर के लिए बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं।

वहीं योजना आयोग के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार प्रणब सेन का मानना है कि सरकार आर्थिक सुस्ती को दूर करने में गलत दिशा में प्रयास कर रही है। प्रणब सेन का कहना है कि सरकार ने अब तक के जो कदम उठाए हैं, वे सब उत्पादन बढ़ाने को लेकर हैं। लेकिन मांग बढ़ाने को लेकर सरकार ने अब तक कोई प्रयास नहीं किए हैं।

प्रणब सेन के मुताबिक, "जब तक सरकार ग्रामीण भारत से जुड़ी आधारभूत योजनाओं जैसे- मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना, सिंचाई परियोजना और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसी योजनाओं पर राशि नहीं खर्च करेगी, तब तक आम ग्रामीण की क्रय शक्ति मजबूत नहीं होगी और मांग में इजाफा नहीं होगा।" प्रणब सेन का मानना है कि ऐसी योजनाओं पर सरकार को अगर योजना राशि बढ़ाने की भी जरूरत पड़े तो इसमें हिचकना नहीं चाहिए।


कतार से खड़ी राजेश यादव की गाड़ियां, जिनके पहियों की रफ्तार भी आर्थिक सुस्ती का शिकार हो चुकी हैं


इन खबरों से बेखबर राजेश कुमार यादव को चिंता है कि वह अगले महीने अपने ट्रकों का किश्त और ड्राइवरों की तनख्वाह कैसे देंगे। राजेश यादव मानेसर इंडस्ट्रियल एरिया में ट्रॉन्सपोर्टर हैं जिनके पास लगभग 150 छोटी-बड़ी गाड़ियां हैं। उनके ट्रक नए कार से लेकर फैक्ट्रियों से निकलने वाले कबाड़ तक ढोते हैं लेकिन आर्थिक सुस्ती की मार से उनके ट्रकों के पहियों की रफ्तार धीमी पड़ चुकी है।

सड़क पर कतार से खड़े अपने ट्रकों को दिखाते हुए राजेश कहते हैं, "पहले 150 गाड़ियों में से 60 से 70 गाड़ियां सड़क पर रहती थी लेकिन अब सिर्फ 25 से 30 गाड़ियां ही रनिंग हैं। बाकी की गाड़ियां यहां लाइन से खड़ी हैं, आप भी देख सकते हैं।"

ड्राइवर से ट्रॉन्सपोर्टर बने राजेश ने अपने तीस साल के कारोबारी जीवन में ऐसी मंदी कभी नहीं देखी। उनके ही शब्दों में, "स्थिति बहुत ही खराब हो गई है। ड्राइवरों और क्लीनरों को घर से या कर्जा लेकर तन्ख्वाह देना पड़ रहा है। गाड़ियों की किश्त भी जमा पूंजी में से देनी पड़ रही है। अब इससे बुरा कुछ हो ही नहीं सकता।"

राजेश ने बताया कि उनकी लगभग 100 गाड़ियां किश्त पर हैं। इसके अलावा उनके पास 300 से अधिक ड्राइवर और क्लीनर हैं, जिसमें से वे पचास से अधिक को निकाल चुके हैं। उन्होंने यह भी बताया कि उनके पड़ोस में रहने वाले कई मजदूर अपने किराया का मकान छोड़ वापस गांव लौट चुके हैं।


काम के अभाव में ट्रक ड्राइवर लूडो खेलते मिले


आर्थिक सुस्ती का प्रभाव सिर्फ दिहाड़ी और कॉन्ट्रैक्ट मजदूरों पर ही नहीं बल्कि 'व्हाइट कॉलर जॉब' वाले इंजीनियरों और मैनेजरों पर भी पड़ा है। मारुति के लिए बम्पर बनाने वाली कंपनी मशीनो प्लास्टिक लिमिटेड में प्रोडक्ट इंजीनियर के पद पर काम करने वाले राम चौधरी ने तीन महीने पहले ही नौकरी छोड़ दी थी। उन्होंने अपना फील्ड ही बदल लिया और ऑटोमोबाइल सेक्टर से डिश और सेट टॉप बॉक्स बनाने वाली एक कंपनी की तरफ शिफ्ट हो गए।

राम कहते हैं, "मुझे पहले से अंदाजा लग गया था इसलिए मैंने नौकरी छोड़ दी, नहीं तो निकाल ही दिया जाता। मेरे साथ के कई इंजीनियर दोस्तों को बाद में निकाला गया। अभी भी कुछ दोस्त नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं।"

मानेसर से लगभग एक हजार किलोमीटर दूर गुजरात के अहमदाबाद में राम के दोस्त दीपक भी ऑटोमोबाइल सेक्टर में क्वालिटी इंजीनियर के पद पर तैनात हैं। अहमदाबाद में भी मारूति सुजुकी का मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट और उसकी सौ से अधिक सहायक फैक्ट्रियां हैं।

दीपक गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "अहमदाबाद की फैक्ट्रियों में रेगुलर कर्मचारियों को तो अभी तक नहीं निकाला गया है लेकिन ठेके और दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों को कम काम मिल रहा है। उनकी सैलरी भी कट की जा रही है।"

दीपक ने बताया कि मैनपॉवर को बैलेंस करने के लिए अधिकतर कंपनियों ने 12 घंटे की दो शिफ्ट को 8-8 घंटे की तीन शिफ्ट में बदल दिया है। इससे सभी मजदूरों को काम तो मिल जा रहा है लेकिन उन्हें 12 घंटे की जगह सिर्फ 8 घंटे की ही सैलरी मिल रही है।

मानेसर से सटे जयपुर-दिल्ली हाईवे पर हमें सैकड़ों कार ढोने वाले ट्रक खड़े मिले। इन ट्रकों से नई कारें और बाइक देश के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचती हैं। इन ट्रकों को चलाने वाली कंपनी आईटीवी एनआरवी लॉजिस्टिक प्राइवेट लिमिटेड के मैनेजर ने बताया कि उनकी 70 फीसदी से अधिक गाड़ियां यार्ड में ही खड़ी हैं, सिर्फ तीस फीसदी ही चल रही हैं।


कारों और बाइक को ढोने वाले ट्रक। इनकी भी रफ्तार धीमी पड़ चुकी है


वहीं खड़े ट्रक ड्राइवर मनमोहन तिवारी कहते हैं, "पहले जहां महीने में हम गुजरात, बंगाल और चेन्नई के तीन चक्कर लगाते थे वहीं अब सिर्फ एक चक्कर ही लगा पा रहे हैं। चक्कर कम होने से आमदनी भी कम हो गई है।"

मानेसर से लौटते वक्त हमने कुछ फैक्ट्रियों के मैनेजमेंट से भी बात करने की कोशिश की। कुछ ने बात की तो कुछ ने बात भी करने से मना कर दिया। कुछ ने स्वीकार किया कि काम कम होने से उन्होंने छंटनी की है तो कई कंपनियां छंटनी से इनकार करती हुई दिखीं। हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि अभी कोई नई भर्तियां नहीं चल रही हैं। जबकि इन कंपनियों के गेट के बाहर कई बेरोजगार युवा अपना बॉयोडाटा लेकर नौकरी की तलाश करते दिखे।

दरअसल कॉन्ट्रैक्ट और दैनिक मजदूरी पर काम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों को कंपनियां अपना कर्मचारी मानती ही नहीं हैं। उन्हें बस कंपनी की मांग और जरूरत के अनुसार कंपनी में भर्ती किया जाता है और जरूरत पूरा होने पर वापस निकाल दिया जाता है। इसलिए इन कंपनियों के अनुसार, 'मंदी के बावजूद कोई छंटनी नहीं हुई है।'

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