मधुबनी पेंटिंग कलाकारों की जिंदगी की छिपी परतों को उघारता कोरोना लॉकडाउन

यह काम ऐसा नहीं है कि लॉकडाउन खत्म होते ही दुकान खोल कर कमाई शुरू हो जाए। ऑर्डर आने, पेंटिंग बनने और पैसा मिलने तक डेढ़-दो महीने और लग जायेंगे। किसी का भी परिवार तीन-चार महीने ऐसे नहीं चल पायेगा।

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मधुबनी पेंटिंग कलाकारों की जिंदगी की छिपी परतों को उघारता कोरोना लॉकडाउन

- अविनाश कर्ण

परिवार में बची अकेली सदस्य 55 वर्षीय शकुंतला देवी उन हज़ारों गुमनाम कलाकारों में से एक हैं जिनका खर्च मिथिला पेंटिंग (अथवा मधुबनी पेंटिंग) बेच कर चलता है। जितवारपुर में रहने वाली शकुंतला के पति का वर्षों पहले देहांत हो चुका है। कोई भी संतान नहीं होने से वह अब घर में अकेली ही बची हैं। पेंटिंग करके उसे रिश्तेदारों या लोकल बिचौलियों के हाथों बेच कर वह अपना खर्चा चलाती हैं। हालांकि इस तरह की बिक्री से उन्हें पेंटिंग का न्यूनतम मूल्य ही मिल पाता है।

शकुंतला बड़ी सहजता से कहती हैं, "कोरोना की वजह से जिन लोगों के पास पैसे हैं उन्हें भी आज इसकी जरुरत है और जिनके पास नहीं है उन्हें तो अभाव है ही। बाहर नहीं निकल पाने की वजह से मैं पेंटिंग नहीं भेज पा रही हूँ और काम का ऑर्डर भी इसी वजह से नहीं मिल पा रहा है। जब तक कोई मांग नहीं करता है तब तक अपनी पूंजी लगाने का क्या मतलब है। इसलिए खाली वक़्त में घर के काम ही करती हूं।"

"मोदी जी ने उपेंद्र महारथी संस्थान को कहा है कि वे कलाकारों से पेंटिंग खरीदें। लेकिन मुझे नहीं मालूम कि वे कब तक और किससे पेंटिंग खरीदेंगे। फिलहाल ये तो हमारे लिए एक भरोसा ही है। जब लॉकडाउन खुलेगा तभी तो कोई पटना जा कर संस्थान से अपनी पेंटिंग बेच पायेगा। वैसे भी गांव में किसका पेट भरता है?" शकुंतला जी की बातों में निराशा साफ झलकती है।


कोरोना से पहले कमाई की स्थिति के बारे में उन्होंने बताया कि उनकी कमाई का कुछ भी निश्चित नहीं रहता। किसी महीने 500 रुपये तो कभी 5000 तक और कभी तो कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन जब मांग अधिक रहती है तो खाना-पीना सब छूट जाता है। ऐसे में कभी-कभी कुछ भी खा कर दिन-रात पेंटिंग करती हूं।

शकुंतला देवी से मेरा परिचय करवाने वाले 45 वर्षीय कलाकार संजीव कुमार झा जिन्हें लोग 'गोलूजी' के नाम से भी जानते हैं, मिथिला चित्रकला के तांत्रिक शैली में पेंटिंग करते हैं। इन्हें तांत्रिक शैली का ज्ञान इनके पिता स्वर्गीय कृष्णानंद झा जी से विरासत में मिली है। गोलूजी ने इस शैली में समकालीन प्रभाव को अपना कर अपने पिता के विरासत को एक कदम आगे बढ़ाया है।

कोरोना के इनके जीवन पर प्रभाव और समकालीन स्थिति पर बात करते हुए गोलूजी कहते हैं, "मुझे इस तरह के अनिश्चितता का कुछ ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा है। वैसे भी मेरा जब मन करता है, तब पेंटिंग करता हूं। हां, लॉकडाउन की वजह से मेरा मन मुझे कुछ अन्य कार्य को करने को प्रेरित करता है। मैंने वर्षों बाद अपने खेत में फसल लगाया था। लेकिन लंबे अंतराल के बाद कृषि में आने से मैं भूमि को ज्यादा उपजाऊ नहीं बना पाया। फिर भी जो कुछ फसल आई थी उसे हाल के बे-मौसम आई बारिश ने तबाह कर दिया। आम से जो कुछ उम्मीद बची थी, ओलावृष्टि से हम उससे भी हाथ धो बैठे।"

कोरोना महामारी से पैदा हुए अनिश्चितताओं का कलाकारों के भविष्य पर प्रभाव के बारे में गोलूजी आगे कहते हैं, "भले डेढ़-दो महीने के बंदी का प्रभाव कुछ ख़ास नहीं पड़ा हो लेकिन ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्रों के कलाकार कुछ वक़्त बाद असहाय महसूस करेंगे, क्योंकि यह काम ऐसा भी नहीं है कि लॉकडाउन हटते ही दुकान खोल कर कमाई शुरू हो जाए। यहाँ अधिकतर कलाकार ऐसे हैं जो ऑर्डर आने के बाद ही कागज़-रंग पर पैसा खर्च कर पाते हैं। ऑर्डर आने, पेंटिंग बनने और पैसा मिलने तक डेढ़-दो महीने और लग जायेंगे। किसी का भी परिवार तीन-चार महीने ऐसे नहीं चल पायेगा। तब तो और भी नहीं जब वो पहले से अभावग्रस्त जिंदगी जी रहे हों।"


मधुबनी जिले का रांटी गांव मिथिला चित्रकला की 'कचनी' यानि रेखा आधारित शैली के लिए विश्वप्रसिद्ध है। दो 'पद्मश्री' और राष्ट्रीय एवं राज्य पुरस्कारों से सम्मानित महिला कलाकारों के इस गांव में एक परिवार स्वर्गीय यशोदा देवी का भी है। यशोदा देवी के अस्तित्व पर आज समय की माटी के कई परत चढ़ चुके हैं। गिने-चुने लोग भी इस कलाकार को शायद ही याद करते हैं।

मेरा परिवार भी इन्हें केवल दो-तीन बातों से ही याद करता है- एक तो इन्होंने अमिताभ बच्चन के घर पर रह कर पेंटिंग किया था, जब उनका लड़का अभिषेक बच्चन अपने बाल्यावस्था में थे और जिन्होंने यशोदा जी की पेंटिंग पर रंग गिरा कर उसे ख़राब कर दिया था। कुछ मौका मिलने पर भी यशोदा जी अपने डर की वजह से कभी हवाई यात्रा नहीं की। अन्य बातें जो हमें उनकी याद दिलाती है वो ये कि अपने घर से अनाज को मोज़े में भर कर यशोदा जी एक बार हमारे घर आयीं थीं ताकि हम उसे पका कर उन्हें खाने को दें। मोज़े में अनाज भर कर लाने वाली बात पर कभी-कभी हम भले ही हंस पड़ते हैं। लेकिन उनकी तंगहाली और बुढ़ापे में पथरा चुकी आंखों को याद करते ही जहन से 'आह' निकल आती है।

किराये के एक कमरे वाली झोपड़ी में यशोदा देवी अपनी भांजी कमला देवी के साथ रहा करती थीं। कारण था कि वह बाल-विधवा थीं जिन्हें अपने पति का चेहरा भी ठीक से याद तक नहीं था और उनकी भांजी यानि कमला जिनके दो बेटियों के जन्म देने के बाद पति ने दूसरी शादी कर ली था। दोनों मौसी-भांजी ने पेंटिंग से ही अपना जीवन यापन किया और हमेशा के लिए रांटी में ही बस गईं।

स्वर्गीय यशोदा देवी की उनकी पेंटिंग के साथ एक पुरानी तस्वीर

उनकी बड़ी बेटी ज्योति रानी भी मधुबनी पेंटिंग करती हैं। वह कोरोना महामारी से थोड़ा पहले की बात बताती हैं। कहती हैं, "सरकारी ऑफिस में करीब 6 करोड़ का फंड आया था। हमने रोड किनारे धूप में खड़े हो कर दीवालों पर पेंटिंग किया था, लेकिन डीएम सर का तबादला हो गया और हमारा पैसा फंस गया। जब हम ऑफिस से पैसे मांगने गए तो 'तबादला' कह कर टाल दिया गया। उन लोगों ने कहा नए डीएम सर का पुराने प्रोजेक्ट्स से कोई वास्ता नहीं है, फिर भी पैसे आएंगे तो आपको मिल जाएगा।"

मैंने हाल ही में अपने मधुबनी यात्रा के दौरान सड़क किनारे दीवालों पर ज्योति के कई चित्रों को देखा था। कलाकार को मेहनताना मिलने से पहले ही ये पेंटिंग्स धूप-बरसात से धूमिल हो रही हैं। शायद डीएम सर का फण्ड जब तक आए तब तक इनके पास यह साक्ष्य भी नहीं बचे कि किस दीवाल पर इन्होंने ने क्या चित्रित किया था।

वह बताती हैं, "राशन कार्ड नहीं बन पाया है। उधार मिलने में भी अब मुश्किल होने लगी है। शहर जा कर ट्यूशन भी नहीं पढ़ा सकते। गांव में कुछ-एक बमुश्किल से स्टूडेंट मिल रहे हैं जिनके लिए भी 500-1000 रुपये का फीस देना मुश्किल हो गया है। मान लीजिए गांव के लोगों को तकलीफ है। लेकिन बिहार के एक सिविल कोर्ट के जज जो सैकड़ों किलोमीटर दूर से अपने सुरक्षाकर्मियों के साथ मुझसे पेंटिंग लेने रांटी गांव आए थे, आने से पहले उनसे 5000 रुपये पर बात हुई थी। उनके पुलिस ने जिस अंदाज़ में मुझसे बात की, मैंने 4000 रुपये में सारा पेंटिंग दे दिया। मैं नहीं चाहती थी कि गांव के लोग मेरे यहां पुलिस देख कर कुछ गलत सोचें या मुझे कोरोना ग्रसित ही घोषित कर दें।"


ज्योति अपनी बात कहते-कहते अपने रोते हुए नवजात बच्चे को चुप कराने लगती हैं। मैं फ़ोन पर इसके आगे कुछ नहीं बोल पाता हूं। इसके आगे बस एक ही चीज़ समझ में आती है कि ख़बरों से अटे पड़े अपने मोबाइल की स्क्रीन को स्क्रॉल करते-करते हमने बातों कि गहराई में जाना छोड़ दिया है।

अविनाश कर्ण खुद मधुबनी पेंटिंग कलाकार हैं। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से फाइन आर्ट की पढ़ाई की है। ये लेखक के अपने विचार हैं।

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