कोरोना लॉकडाउन संकट के बीच कैसा है राजस्थान के आदिवासी गांवों का जीवन?

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कोरोना लॉकडाउन संकट के बीच कैसा है राजस्थान के आदिवासी गांवों का जीवन?

- कमलेश शर्मा

कोरोना संकट में लॉकडाउन के बाद राजस्थान के जनजाति बहुल दक्षिणी जिलों में बड़ी संख्या में शहरों से प्रवासी मज़दूर अपने गाँव पहुँचे। लॉकडाउन के दो सप्ताह पूरे होने के बाद इन इलाकों में इस महामारी से जुड़े मामले सीमित तौर पर देखने को मिल रहे हैं जो सुकून की बात है।

मगर इन दूरस्थ और अभावग्रस्त गांवों के जनजीवन पर इस लॉकडाउन का असर मिला-जुला दिख रहा है। गांवों में जहाँ इस बीमारी को लेकर भय का माहौल है वहीं सोशल डिस्टेसिंग जैसे बचाव के तरीके भी के लोगों के व्यवहार में देखने को मिल रहे हैं।

दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी इलाके होली के त्योहार के बाद अचानक से खाली होने लगते हैं। मानसून आने तक लोग गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के शहरों और ग्रामीण इलाकों में जाकर दिहाड़ी मजदूरी का काम करते हैं। जब गाँव में पहली बारिश होती है तब लोग वापस अपने घरों तक पहुँचते हैं और खरीफ की फसल की तैयारी करते हैं।

इस साल की कहानी अलग है। होली के बाद बड़ी संख्या में लोग काम पर निकल गए थे। उनमें से करीब 70 प्रतिशत लॉकडाउन के बावजूद संघर्ष करते हुए अपने गाँव तक पहुच गए। जो लोग लॉकडाउन के पहले 5 दिनों में शहरों से या अपने काम की जगहों से नहीं निकल पाए, वे वही अटके हैं। गाँवों में कोरोना ही चर्चा में है लेकिन लोग अपने खेतों में बचा हुआ अपना काम समेट रहे हैं।

लॉकडाउन के साथ-साथ हुई आर्थिक सहायता की घोषणाओं को लेकर आदिवासी इलाकों में सबसे ज्यादा असमंजस है। सीमित बैंक सेवाओं के चलते लोग ग्राम पंचायतों और बैंक की ग्रामीण शाखाओं में आर्थिक सहायता की रकम निकालने के लिए जमा हो रहे हैं।


उदयपुर जिले के एक दूरस्थ गाँव में किराने की छोटी सी दुकान चलाने वाले रमेश कहते हैं, "गाँव में लोगों को लग रहा है कि कोरोना की वजह से जो आर्थिक सहायता उनके खातों में आई है अगर उन्हें जल्दी से नहीं निकलवाया तो वह राशि वापस सरकार के पास चली जाएगी। इस वजह से लोग पंचायतों में बैंक सेवा केन्द्रों पर आकर जमा हो रहे हैं।"

हालांकि यह भी एक तथ्य है कि लम्बे लॉकडाउन की वजह से घरों में नकद पैसा भी खत्म हो गया है। महुआ और अन्य फसलों की खरीद नहीं हो पा रही है, इस वजह से भी नकदी की कमी हो गई है, और दिहाड़ी भी नहीं मिल रही।

बैंक सेवा केंद्र के बाहर एक युवक अपनी गर्भवती पत्नी के साथ इंतज़ार करता मिला। युवक ने बताया कि वह आस-पास ही मजदूरी का काम करता है और नकद के लिए मजदूरी ही उसका सहारा है। लॉकडाउन के बाद पिछले 20 दिनों से उसे काम नही मिला है। उसकी पत्नी की देखभाल के लिए उसके पास नकद पैसा नहीं है। एक दिन पहले ही रात को मोबाइल पर सन्देश आया कि पत्नी के खाते में पांच सौ रुपये आये हैं।

दोनों सुबह ही घर से पैदल बैंक सेवा केंद्र पहुंचे तो पाया कि केंद्र का संचालक नहीं आया है। इस पर युवक ने अपने फ़ोन से उसे फ़ोन लगाया। उधर से संचालक ने जवाब दिया, 'इन्टरनेट नहीं है, कल आना।' इन इलाकों में बैंक सेवा केंद्र की अच्छी सुविधा है लेकिन कई बार नेटवर्क की दिक्कतों के चलते लोगों को अपने खातों से पैसा निकलने के लिए दो-तीन चक्कर लगाने पड़ते हैं।


गाँव में 60 वर्षीय तेजा का परिवार है। पत्नी, एक 20 साल की बेटी और उसकी एक साल की बेटी और तेजा का 16 साल का लड़का। होली से कुछ दिन पहले तक यह पूरा परिवार गुजरात के हिम्मतनगर में काम कर रहा था।

गांव में परिवार के पास कोई साधन न होने की वजह से पूरा परिवार ही काम पर जा रहा था। होली से पहले तेजा ने अपनी पत्नी और बेटी को गाँव भेजा और खुद अपने बेटे के साथ काम करने के लिए हिम्मतनगर ही रुक गए। लॉकडाउन के होते ही तेजा ने अपने बेटे को भी गाँव भेज दिया और खुद वहीं रुक गए।

तेजा जहाँ काम करते हैं, उसकी मजदूरी नहीं मिली। इसलिए उसे वही रुकना पड़ा। परिवार की वर्तमान स्थिति संकट में है। दो दिन पहले एक साल की बच्ची जब बीमार हुई तो तेजा की पत्नी ने अपनी खड़ी गेहूं की फसल के चारे के बदले में 200 रुपये जुटाए और बच्ची का इलाज करवाया।


दूसरा परिवार 45 वर्षीय गौतम का है। दो साल पहले काम के दौरान एक दुर्घटना में अपना एक पैर गंवा चुके गौतम के लिए लॉकडाउन ने और मुसीबत को बढ़ा दिया है। पत्नी की मजदूरी से अब तक घर का खर्च चल रहा था।

गाँव में चलने वाले काम बन्द हो जाने की वजह से पिछले लगभग एक माह से उसकी पत्नी काम पर नहीं जा पाई है। महुआ और जंगली फल टिमरू बेचकर भी थोड़ा पैसा घर में आ जाता था लेकिन आस-पास के बाज़ार बंद है तो इनका भी कोई खरीदार नहीं है।

गौतम के परिवार को अभी आस-पड़ोस के लोग कुछ राशन देकर मदद कर रहे हैं, लेकिन उसकी पत्नी दबी आवाज में कहती हैं, "कब तक इसके भरोसे चलेंगे?"

कुछ सुकून देने वाला भी है गाँव

कोरोना के संकट के समय में यहाँ के युवा इस महामारी से जुड़ी भ्रांतियों के निवारण और नयी तरह की पहल करने का काम भी कर रहे हैं। उदयपुर जिले की सीमा पर बसे 60 घरों की बस्ती मोबी में रहने वाले शंकर ने होली पर अपने घर पर एक छोटे से किराना स्टोर की शुरुआत की। इससे पहले वह बिजली के खंभे खड़े करने का काम करता था।

दो साल पहले काम करते हुए शंकर के साथ दुर्घटना हो गई और अब वह ज्यादा शारीरिक मेहनत वाला काम नहीं कर सकते। कोरोना संकट के इस दौर में शंकर अपनी दुकान के जरिये मोबी गांव के लगभग 60 परिवारों के लिए न केवल किराना और आधारभूत राशन जरूरतों की पूर्ति कर रहे हैं बल्कि कोरोना से जुड़ी सही जानकारियों को गांव वालों तक पहुँचाने में भी अहम रोल निभा रहे हैं।

दसवीं पास शंकर का कहना है कि उन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग सहित कोरोना से जुड़ी सभी सावधानियों को सोशल मीडिया के जरिये समझा और अब गाँव के बाकी परिवारों तक पहुँचा रहे हैं। शंकर जरूरतमंद परिवारों को उधार राशन भी उपलब्ध करा रहे हैं।


इस तरह केरपुरा गाँव के 15 युवा, जो ज्यादातर प्रवास पर जाकर मजदूरी करते हैं, लॉकडाउन की वजह से गाँव में हैं और अपने गाँव के परिवारों को इस बीमारी से बचाव के हरसंभव कोशिश कर रहे हैं। अब तक गाँव में कोरोना से बचाव के लिए कीटाणुनाशक के छिड़काव करने की जिम्मेदारी इन्हीं लोगों ने संभाल रखी है।

कई जगहों पर बैंकिंग सेवाओं के सीमित हो जाने की वजह से लोगों को पैसा निकालने में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, वहीं एक युवा गौतम पिछले 15 दिनों से नियमित सुबह से शाम तक अपनी पंचायत के सैकड़ों परिवारों को बैंक खातों से पैसा निकलने के लिए बैंक सेवा केंन्द्र खोल कर तत्परता से सेवाएं दे रहा है।


गौतम बताते हैं, "इलाके में सारे प्राइवेट ई-मित्र और बैंक सेवा केंद्र बंद हैं, इस वजह से पंचायत में संचालित हो रहे केंद्र पर लोगों की काफी आवाजाही है। लॉकडाउन के बाद केंद्र पर करीबन 70 -100 से ट्रांजेक्ट्शन रोजाना हो रहे। प्रतिदिन औसतन 2 लाख रुपयों का लेनदेन हो रहा है और लॉकडाउन की वजह से होने वाले दैनिक लेन-देन की संख्या करीब 30 प्रतिशत तक बढ़ गयी है। ऐसे में ग्रामीणों के लिए यह सेवा एक बड़ी सुविधा बन गई है।"

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