क्या भारत की अपेक्षाकृत युवा आबादी कोरोना कोविड-19 से लड़ने के लिए एक वरदान है?

भारत की अनुकूल जनसांख्यिकीय परिस्थितियों को देखते हुए यह सुझाव दिया गया है कि चुनिन्दा तौर पर लॉकडाउन में छूट दी जा सकती है। इस लेख में घोष और पाल तर्क देते हैं कि कोविड-19 के खिलाफ भारत की लड़ाई में युवा आबादी का होना कोई रामबाण नहीं है। युवा आबादी और लॉकडाउन का समय रहते लागू किया जाना भारत के लोगों के खराब स्वास्थ्य, गुणवत्तापूर्ण जांच और गंभीर स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी का विकल्प नहीं है।

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क्या भारत की अपेक्षाकृत युवा आबादी कोरोना कोविड-19 से लड़ने के लिए एक वरदान है?

- शर्मिष्ठा पाल गिल्डफोर्ड और सुगाता घोष

इस बात पर आम सहमति है कि कोरोनावायरस महामारी (कोविड-19) 65 वर्ष या उससे अधिक आयु वाले व्यक्तियों को ज्यादा प्रभावित कर रही है। इस महामारी से सभी के मृत्यु् की संभावना 3.6 प्रतिशत की तुलना में 80 वर्ष से ऊपर के लोगों के मृत्यु की संभावना 15 प्रतिशत है। यह 70-79 आयु वर्ग के लिए 8 प्रतिशत और 60-69 वर्ष आयु वर्ग के लिए 3.6 प्रतिशत है।

अपेक्षाकृत बुजुर्ग जनसंख्या वाले देश इस महामारी से लड़ने के लिए बदतर स्थिति में है। कुछ जानकारों के समूह ने यह सुझाव दिया है कि भारत के अनुकूल जनसांख्यिकीय प्रोफ़ाइल को देखते हुए भारत में चुनिन्दा तौर पर लॉकडाउन में छूट दी जा सकती है। हालांकि हम यह बताना चाहते हैं कि कोविड-19 से होने वाली मौतों में आबादी की भेद्यता को प्रभावित करने वाले कारकों में से जनसांख्यिकी सिर्फ एक कारक है। स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की ताकत और सामान्य आबादी में स्वास्थ्य का आधार स्तर दो अन्य महत्वपूर्ण कारक हैं, जो मायने रखते हैं।

क्या समय रहते किया गया लॉकडाउन और युवा आबादी कोविड- 19 पर अंकुश लगाने के लिए पर्याप्त हैं?

जनसंख्याकिय दृष्टि से देखें तो कुछ यूरोपीय देश अपने एशियाई समकक्षों की तुलना में बुजुर्ग प्रतीत होते हैं। भारत में 65 वर्ष से अधिक आयु के केवल 6.18 प्रतिशत लोग हैं, इसलिए वह इस हिसाब से एक अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति पर है।

प्रधान मंत्री मोदी ने हालात बिगड़ने का इंतज़ार न करते हुए महामारी फैलने के प्रारंभिक चरण में ही 24 मार्च को देश में लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी। तब सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार देश में 500 से भी कम संक्रमण के मामले सामने आए थे और नौ मौतें हुईं थीं। प्रासंगिक सवाल यह है कि अपेक्षाकृत युवा आबादी वाले देश को महामारी से बचाने के लिए क्या लॉकडाउन पर्याप्त कदम है?

स्रोत: https://en.wikipedia.org/wiki/2020_coronavirus_pandemic_in_Europe#Statistics_by_country;

https://data.worldbank.org/indicator/sp.pop.65up.to.zs

हम चार यूरोपीय देशों की तुलना से शुरुआत करते हैं: जर्मनी, इटली, स्पेन और यूके (यूनाइटेड किंगडम), जिनमें से सभी में बुजुर्ग आबादी तुलनीय है। लेकिन वहां संक्रमित मामलों और मौतों के मामलों की स्थितियां काफी अलग हैं। तालिका 1 इन देशों में लॉकडाउन की तारीख और लॉकडाउन की शुरुआत में संक्रमण और मौतों की कुल संख्या को दर्शाता है।

स्पष्ट रूप से, लॉकडाउन लागू करने के संदर्भ में 55 मौतों के साथ जर्मनी ने यूरोप में अन्य देशों की तुलना में बहुत ज्यादा सक्रिय था। स्पेन में 191, ब्रिटेन में 281 और इटली में 366 मौतों के बाद वहाँ के अधिकारियों ने लॉकडाउन का निर्णय लिया। अंतिम दो कॉलम 10 अप्रैल 2020 तक संक्रमण और मौतों की कुल संख्या को दर्शाते हैं, जो जर्मनी को छोड़कर सभी देशों में विनाशकारी परिणाम को उजागर करता है, तब भी जब कि इनमें से तीन में से दो देशों में जर्मनी की तुलना में कम आयु वाली आबादी अधिक थी।

इसकी तुलना में, भारत के आंकड़े वास्तइव में बहुत अच्छे प्रतीत होते हैं। भारत सरकार के सामने प्रमुख समस्या जांच सुविधाओं की गुणवत्ता और कमी की है। 11 अप्रैल तक भारत में प्रति 10 लाख व्यक्ति केवल 133 जांचें हुईं हैं जो बहुत कम है, जबकि 8 अप्रैल 2020 तक जर्मनी में प्रति 10 लाख 15,850 लोगों की जांच की गई।

जांच के महत्वपूर्ण आंकड़ों के बिना भारतीय स्वास्थ्य अधिकारी लगभग आँख बंद करके जीवन-मृत्यु का निर्णय कर रहे हैं। यह कम रिपोर्ट किए गए आंकड़ों की व्याख्या करता है। ऑक्सफोर्ड कोविड -19 ट्रैकर के अनुसार भारत आधिकारिक आंकड़ों और महामारी पर सरकारी प्रतिक्रियाओं के संदर्भ में अन्य देशों से आगे और शीर्ष पर रहा है, लेकिन लॉकडाउन नियमों के कार्यान्वयन के गंभीर प्रश्न अभी भी बने हुए हैं।

130 करोड़ आबादी वाले देश को बंद करने की अपनी चुनौतियां हैं, खासकर जब यहां अशिक्षा, गरीबी, धार्मिक विश्वास और देश में प्रचलित सामाजिक मानदंड मौजूद हैं। समस्या तब और भी बदतर हो जाती है जब संकट के लिए सत्ता में कुलीन वर्ग द्वारा अपनाए गए अवैज्ञानिक दृष्टिकोण को जिम्मेसदार ठहराया जाता है।

यूरोपीय देशों के अनुभव से सबक

संकट से निपटने के यूरोपीय अनुभव से हम क्या सबक सीख सकते हैं? निश्चित रूप से आबादी में बुजुर्गों का एक बड़ा हिस्सा होना कम से कम आंशिक रूप से कई यूरोपीय देशों में आश्चर्यजनक रूप से उच्च संक्रमित मामलों एवं मृत्यु दर की सफाई देता है।

वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों से पता चलता है कि 2018 तक जर्मनी में बुजुर्ग आबादी की हिस्सेदारी के मामले में इटली से ज्यादा भिन्न नहीं हैं। लेकिन जर्मनी कुल मौतों की संख्या को सीमित करने में कई गुना अधिक सफल रहा है।

यदि हम स्पेन या इंग्लैंड को देखते हैं तो उनकी तस्वीर और भी आश्च र्यजनक है। दोनों देशों में जर्मनी की तुलना में कुल आबादी में बुजुर्ग आबादी का अनुपात कम है, लेकिन जर्मनी की तुलना में इन दोनों देशों में मौतों की संख्या काफी ज्यादा है। यह सभी आंकड़े इस बात की प्रबल संभावना की ओर संकेत करते हैं कि भले बुजुर्ग होना इस महामारी की प्रचंडता के पीछे का एक महत्वपूर्ण कारक है परंतु अन्य कारक जैस जल्दी एवं प्रभावी लॉकडाउन, लोगों का सामान्य स्वास्थ्य और मौजूदा स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

जर्मनी एक ऐसा देश है जो स्वास्थ्य पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 11.1 प्रतिशत खर्च करता है, जो यूरोप में मौजूदा स्वास्थ्य सेवा ढांचे के संबंध में सबसे आगे है। जर्मनी गंभीर देखभाल के बुनियादी ढांचे में भी सबसे आगे है, जहां गंभीर देखभाल बिस्तबरों की संख्या् प्रति 100,000 जनसंख्या पर लगभग 30 है। इटली में यह संख्या 12.5 है और यूके में, राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा (एनएचएस) के बावजूद यह आंकड़ा केवल 6.6 है।

स्पेन- इटली और ब्रिटेन के बीच है, लेकिन आंकड़े एक बार फिर यह उजागर करते हैं कि स्वास्थ्य पर खर्च कितना महत्वपूर्ण हो सकता है। इसके अलावा जर्मनी संदिग्ध कोरोनावायरस मरीजों के परीक्षण के मामले में सूची में सबसे ऊपर है, वर्तमान में वह प्रति दिन लगभग 100,000 परीक्षण करता है।

यह महत्वकपूर्ण है कि जर्मनी ने अपेक्षाकृत जल्दी ही तथा लोगों में हल्केग से लक्षण दिखने पर ही परीक्षण शुरू कर दिया था जिसका अर्थ है कि पुष्टि किए गए मामलों की कुल संख्या अन्य राज्यों की तुलना में वायरस के प्रसार की अधिक सटीक तस्वीर दे सकती है। इसके अलावा जर्मनी में आवश्यीकता से अधिक वेंटिलेटर हैं और वास्तव में उनमें से 80 को ब्रिटेन को उधार दिया है।

जर्मनी ने शोधकर्ताओं द्वारा संक्रमण दर का आकलन करने और वायरस के प्रसार को अधिक प्रभावी ढंग से मॉनिटर करने में सहायता करने के प्रयास में यूरोप में सबसे पहला बड़े पैमाने पर एंटीबॉडी परीक्षण निष्पारदित किया है। ये सभी तथ्ये यह प्रदर्शित करते हैं कि कैसे स्वास्थ्य देखभाल के एक सुदृढ़ बुनियादी ढांचे के साथ यहां तक कि अधिक बुजुर्ग आबादी वाला देश भी कोविड-19 के खतरे का मुकाबला दूसरों की तुलना में अधिक प्रभावी ढंग से कर सकता है।

ध्यान दें कि भारत में स्वास्थ्य सेवा के लिए आवंटित सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात एक प्रतिशत से केवल थोड़ा ही अधिक है। यहां न केवल जांच की कमी है, बल्कि वास्ताव में अस्पताल के बिस्तसर, गंभीर देखभाल बिस्त र और वेंटिलेटर की भी कमी है। देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा खराब है और निजी स्वास्थ्य सेवा महंगी है।

भारत में प्रति 1,000 व्यक्तियों पर केवल 0.8 डॉक्टर और 0.7 अस्पताल के बिस्तर (इटली में 4.1 डॉक्टरों और 3.4 अस्पताल के बिस्तर की तुलना में) हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की एक रिपोर्ट और भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की निराशाजनक स्थिति पर प्रकाश डालते हुए सरकार से संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को 2030 तक पूरा करने का आग्रह किया।

संक्रमित रोगी का खराब सामान्य स्वास्थ्य कोविड-19 मामलों में मौतों के एक प्रमुख कारक के रूप में उभरता है और भारत एवं जर्मनी इस मामले में अलग-अलग स्तर पर हैं। कुपोषण भारत में चिंता का एक सामान्य कारण है क्योंकि यह किसी भी संक्रमण से लड़ने की शरीर की क्षमता को कमजोर करता है।

2017 में 15 प्रतिशत भारतीय लंबे समय से पूर्णत: कुपोषित थे जो उस वक्त दुनिया की कुपोषित आबादी का लगभग 24 प्रतिशत हिस्सा था। भूख सूचकांक के मामले में भारत की रैंकिंग 2010 में 95 से फिसल कर 2019 में 102 हो गयी थी। इसके अलावा कोरोन वायरस संक्रमण पहले से उपस्थित स्वास्थ्य संबंधी स्थितियों के साथ पनपता है, जिसमें हृदय रोग, पुराने श्व्सन रोगों एवं मधुमेह प्रमुख हैं।

जर्मनी की तुलना में ऐसे भारतीय लोगों की संख्या अधिक हैं जो पहले से श्वसन संबंधी रोगों (दोगुना) तथा मधुमेह (चार गुना) से पीड़ित हैं। जबकि कोविड-19 की मृत्यु दर 3.6 प्रतिशत के आसपास है। पर यह मधुमेह वाले लोगों के लिए 7.3 प्रतिशत तक और पुराने पहले से श्वसन संबंधी रोगियों के लिए 6.3 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।

निश्चित रूप से, भारत की निराशाजनक स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण यह एक चिंता का विषय है। यदि भारत में इसका सामुदायिक फैलाव होता है तो इसकी स्वास्थ्य प्रणाली की गंभीर परीक्षा होगी और यहां तक कि यह चरमरा भी सकती है। कुछ राज्य, जैसे केरल की स्थिति बेहतर है, पर चिंताएं बड़े उत्तरी भारतीय राज्यों और कश्मीर के लिए बनी हुई हैं। पिछले अक्टूबर में धारा 370 के हटने के बाद से इंटरनेट की पहुंच की कमी और केंद्र पर कश्मीरियों के बढ़ते अविश्वास से कश्मीर में महामारी फैलने पर रोक लगाने के प्रयास बाधित हुए हैं।

ऐसे में अपेक्षाकृत 'युवा' आबादी वाले भारत के लिए क्या सबक हो सकते हैं?

जैसा कि जर्मनी ने अब तक दिखाया है कोविड-19 से लड़ रहे देशों के लिए बुजुर्ग आबादी अनिवार्य रूप से हानिकारक नहीं हो सकती है, बशर्ते वहां प्रभावित रोगियों का पता लगाने और जांच करने के लिए तेजी से कार्य किया जाता हो, प्रभावी ढंग से लॉकडाउन लगाया जाता हो और यदि वहां पहले से ही एक सुदृढ़ स्वास्थ्य ढाँचा हो।

लेकिन खराब सामान्य स्वास्थ्य, निराशाजनक स्वास्थ्य सुविधाओं तथा जांचों की गंभीर कमी वाले देश में युवा आबादी कुछ खास सहायक नहीं हो सकती है, भले ही वहाँ की सरकार जल्दी सक्रिय हो गई हो। महामारी की बढ़ती गंभीरता को देखते हुए केंद्रीय संसाधनों को तत्काल जारी करने की आवश्यकता है ताकि जांचों को केंद्रीयकृत करने के बजाय सभी राज्योंो में जांचों की संख्या् बढ़ाई जा सके और जब तक वैक्सीन उपलब्ध नहीं होती है तब तक गंभीर देखभाल सुविधाओं को बढ़ाने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य किया जाए। कुछ प्रारंभिक लाभ की स्थिति में होने के बावजूद भारत आने वाले संकट से निपटने के लिए तैयार नज़र नहीं आ रहा है।

लेखक परिचय: शर्मिष्ठा पाल गिल्डफोर्ड यूनाइटेड किंगडम स्थित सरे विश्वविद्यालय में वित्तीय अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। सुगाता घोष लंदन यूनाइटेड किंगडम स्थित ब्रूनेल विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं।

आईडियाज फॉर इंडिया से साभार

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