जिस विकास की बात बिहार सरकार करती है, उस विकास को कोसी की जनता पहचान ही नहीं पा रही

बिहार: भले ही हर साल आने वाली बाढ़ के चलते तटबंध के भीतर की जमीन बाहर की तुलना में कुछ अधिक ऊंची हो गई हो, लेकिन यहां के लाखों लोगों के जीवन का स्तर नहीं उठ पाया है।

Hemant Kumar PandeyHemant Kumar Pandey   6 Sep 2020 6:04 AM GMT

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"यहां नल-जल वाला (ढांचा) बना दिया गया है, लेकिन पानी नहीं आया है और पक्की सड़क जो बनाया है, वह बनाते-बनाते ही टूटकर जर्जर हो गया। अप्रैल में बना था और अभी टूट गया। चलकर देख लीजिए न," बिहार के सुपौल जिले के नागेश्वर महतो कहते हैं।

वह कोसी तटबंध के भीतर मौजूद 380 गांवों में से एक मौजहा के रहने वाले हैं। नागेश्वर कोसी की एक धारा के किनारे राशन की दुकान चलाते हैं और इससे ही उनके घर का खर्चा चलता है। कहने को तो वे खेती भी करते हैं, लेकिन अधिकांश मौकों पर उनकी फसल को 'कोसी मैय्या' ही लील जाती है और सरकार की ओर से इसका कोई मुआवजा भी नहीं मिलता।

बीते कई वर्षों से वे अपनी दुकान पर बैठकर कोसी का उतार-चढ़ाव भी निहारते रहते हैं और तटबंध के भीतर की जिंदगी को भी करीब से देखते हैं। हालांकि, उनकी नजर से तटबंध की ऊंचाई इतनी अधिक है कि उन्हें उस पार स्थित सरकार नहीं दिखती है और न ही कोई उम्मीद की किरण।

नागेश्वर महतो का कहना है, "यहां हर साल बाढ़ आता है, कभी कम आता है और कभी ज्यादा। लेकिन इसके चलते कम से कम तीन महीने हमारा जीवन प्रभावित होता है।" उनके साथ दूसरे स्थानीय ग्रामीणों से बात करने पर यह साफ-साफ दिखता है कि भले ही यहां बाढ़ हर साल आता हो, लेकिन कोसी तटबंध के भीतर विकास आजादी के सात दशक बाद भी अब तक नहीं पहुंच पाया है और न ही यहां विधायक-सांसद ही पहुंचते हैं। अगर किसी तरह विकास पहुंच भी जाता है तो बिगड़े हुए रूप में ही। इसके सबूत यहां के सरकारी योजनाओं की स्थिति है।

नागेश्वर महतो

इस गांव के करीब स्थित मुख्य बाजार किशनपुर तक पहुंचने के लिए बरसात के दिनों में मौजहा सहित आस-पास के अन्य गांव के लोगों को नाव का ही एकमात्र सहारा होता है। यहां स्थित कोसी धार पर एक पुल पिछले दो साल से अधिक समय से निर्माणाधीन है। इसे कब तक पूरा किया जा सकेगा, इस बारे में भी स्थानीय लोग निश्चिंत नहीं हैं। इसके अलावा ग्रामीण सड़कें भी कई-जगह टूटी हुई हैं। इनकी भी ढंग से मरम्मत नहीं की जाती है, जिससे सड़कों की स्थिति लगातार खराब होती चली जाती है।

इस क्षेत्र में विकास के लिए दिसंबर, 2015 में विश्व बैंक ने बिहार कोसी बेसिन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की शुरूआत की थी। इसके लिए 250 मिलियन डॉलर की रकम आवंटित करने की योजना है। इसके तहत अब तक 37 पुलों का निर्माण किया गया है, जबकि साल 2022 तक कुल 58 पुलों को बनाने का लक्ष्य है। वहीं, पिछले पांच वर्षों में सड़क निर्माण का काम भी तय लक्ष्य का आधा ही हो पाया है। बाकी के काम दो साल में पूरे करने हैं। इसके अलावा इस परियोजना के अन्य कामों में भी लेटलतीफी दिख रही है।

बीती 28 तारीख को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वर्चुअल तरीके से पांच हजार से अधिक ग्राम पंचायतों में 33,717 करोड़ रुपये की 'हर घर नल का जल' और 'हर घर तक पक्की गली और नाली' योजनाओं का उद्घाटन किया था। इन ग्राम पंचायतों में मौजहा भी शामिल है लेकिन यहां के लोग सरकार के काम से खुश होने की जगह गुस्से में ही हैं।

"तीन-चार महीने पहले इस सड़क को बनाया गया था, अभी ई-रोड का हाल जर्जर हो गया है। इस पर गाड़ी चलने लायक नहीं है। इसके उद्घाटन में अधिकारी लोग आए हुए थे। उनको कहे कि सर आगे चलकर सड़क देख लिया जाए तो उन्होंने कहा कि हम देखने के लिए कहां आए हैं, पदाधिकारी आएंगे तो उनको दिखाइएगा। वे लोग एक जगह खड़ा होकर वार्ड सदस्य का फोटो ले लिए और वापस चले गए।"

पेशे से किसान जगदीश महतो गुस्से और नाराजगी के मिले-जुले भाव में ये बातें कहते हैं। वह आगे कहते हैं कि उन्होंने इसकी शिकायत प्रखंड विकास पदाधिकारी से भी की थी, लेकिन अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। जगदीश हमारे पास उस वक्त पहुंचे थे जब नागेश्वर महतो से हमारी बात हो रही थी।

वहीं, जगदीश महतो इसकी भी जानकारी देते हैं कि जितनी लंबी सड़क का उद्घाटन किया गया, उससे आधे का निर्माण किया गया है, बाकी के हिस्से में मिट्टी भराई का भी काम नहीं किया गया। यह स्थिति तब है जब नीतीश कुमार की सरकार हर घर तक गली (सड़क) पहुंचाने की बात कह रहे हैं। लेकिन जमीनी स्थिति ये है कि यहां के लोगों को हर घर तक गली-नाली पहुंचने का काम कागजों पर अधिक जमीन पर कम दिख रहा है।

आधी बनी हुई सड़क

दूसरी ओर, सरकार के मुताबिक हर घर को नाली से भी जोड़ा जाना है। लेकिन मौजहा पंचायत में केवल सड़कें दिखी, इसके बगल में नालियां नहीं थी। इसकी जगह चार-पांच घरों के बीच एक सोखता (पानी सोखने के लिए बनाया गया ढांचा) बनाया गया है, जिसे चापाकल से भी नहीं जोड़ा गया है। इस बारे में ग्रामीणों का कहना है कि उन्हें इस बात की जानकारी भी नहीं है कि इसे क्यों बनाया गया? स्थानीय लोगों का कहना है कि सरकार यहां किस तरह का विकास कार्य करती है, हम लोगों को समझ में ही नहीं आता है।

यहां केवल विकास योजनाओं की यह स्थिति नहीं है बल्कि अन्य सरकारी मदद और योजनाओं के फायदे भी यहां तक पहुंचने से पहले दम तोड़ते हुए ही पहुंचते हैं। अगस्त के पहले हफ्ते में राज्य आपदा प्रबंधन मंत्री लक्ष्मेश्वर राय ने कहा था कि 10 अगस्त से पहले सभी बाढ़ पीड़ित परिवारों को 6,000 रुपये की राहत राशि भेज दी जाएगी। लेकिन बाढ़ पीड़ित होने के बावजूद यहां के कई लोगों के बैंक खाते में यह रकम अब तक नहीं पहुंची है।

नाली की जगह सोखते का निर्माण किया गया है

नागेश्वर महतो कहते हैं, "अभी तक यहां पर किसी तरह की सहायता नहीं पहुंची है। यहां कोई पल्ली (पॉलिथीन/तिरपाल) नहीं मिला और न ही चूड़ा मिला। अप्रैल से सरकार जो चावल, गेहूं और दाल दे रही है, वह भी दो बार (जून और अगस्त) ही मिला है। इसके अलावा बिचला (बाकी महीनों का) कहां गया, इसका कोई पता नहीं। दाल भी नहीं मिला। पूछने पर जवाब मिला कि ऊपर से ही नहीं मिला।'

वहीं, कोरोना महामारी से बचाव के लिए बिहार सरकार ने हर घर में साबुन और मास्क बांटने का दावा किया था। लेकिन नागेश्वर की मानें तो उनके इलाके में इसका भी वितरण नहीं किया गया है।

इन बातों के अलावा सरकारी योजनाओं के बारे में सवाल किए जाने पर नागेश्वर महतो का कहना है, "कोसी के अंदर कुछ भी नहीं आता है, आता भी है तो सही रूप से नहीं आता है। कोई भी गरीब को फायदा नहीं है।"

मनरेगा योजना का जिक्र करने पर वे आगे कहते हैं, "रोजगार के लिए यहां गरीब मर गया। कोई रोजगार नहीं मिलता है। बाहर से जो आया है, उसको भी कोई काम नहीं मिला। पांच-छह हजार रुपये वह सब बैठकर के खाया है। अब तीन हजार-चार हजार बस वालों को देकर किसी तरह पंजाब-दिल्ली जाने लगा। यहां मनरेगा को कोई नहीं जानता, कागज पर जानता है लेकिन हकीकत में कोई नहीं जानता।"

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सुपौल जिले में इस साल अब तक मनरेगा के तहत कुल सात लाख में से सक्रिय 1.92 लाख सक्रिय कामगारों को केवल 30 दिनों का ही रोजगार मिल पाया है। कोसी क्षेत्र के अन्य जिलों-सहरसा, मधेपुरा के भी करीब-करीब इसी तरह के आंकड़े हैं।

निर्माणाधीन पुल और नदी पार करने के लिए उपलब्ध नाव

वहीं, अगर मनरेगा के तहत काम दिखता है तो उसमें भ्रष्टाचार के होने की भी शिकायत सामने आती है। सुपौल के रामलोचन सिंह का कहना है कि मनरेगा के तहत एक सड़क पर मिट्टी भराई का काम हुआ था लेकिन इस पर मिट्टी कम डाला गया था, जिससे ये एक साल पहले कट गया।

वह आगे कहते हैं, "इसके चलते हमें खेत की ओर जाने में काफी दिक्कत होती है। हमने मुखिया जी से कहा तो उन्होंने कहा कि बन जाएगा....बन जाएगा। लेकिन उसके बाद बाढ़ आ गया। हमने जब नाव की मांग की तो यह भी नहीं दिया। एसडीओ को भी बोले थे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुआ।"

कोसी तटबंध के भीतर हमें भ्रष्टाचार का जो रूप दिखता है, वह इसलिए भी वीभत्स दिखता है क्योंकि यह केवल योजनाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि, लोगों की अपनी मजदूरी से इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है।

रामेश्वर सुतियार मल्लाह हैं। वे साल में छह महीने नाव पर लोगों को नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे तक लोगों को पहुंचाते हैं। उनके साथ दो अन्य मल्लाह भी काम करते हैं। रामेश्वर सुतियार का कहना है, "पिछले तीन साल से उनकी मजदूरी नहीं मिली है। इस पर अब कह रहे हैं कि पिछले दो साल का मजदूरी केवल एक को मिलेगा। इस पर हम लोगों ने इसका विरोध किया। हम लोगों के खाते में अब तक पैसा नहीं आया है।"

वहीं, रामेश्वर के एक अन्य साथी रामचंद्र महतो एक दूसरी तरह की प्रशासनिक लापरवाही से जूझ रहे हैं। वह हमें नदी किनारे एक टूटी हुई नाव के पास ले जाते हैं और अपनी परेशानी बताते हैं। वह कहते हैं, "यह नाव एक साल से टूटा हुआ है। सीओ को कहते हैं तो वे बोलते हैं कि आज भेजेंगे, कल भेजेंगे। लेकिन कोई इसको देखने के लिए नहीं आता है, न ही इसे जमा करने दे रहा है।" रामचंद्र आगे बताते हैं कि इस नाव का 1.25 लाख रुपये बांड उनके नाम से ही बना हुआ है। अगर ये यहां से चोरी होता है तो ये रकम हमें ही भरना होगा।


आखिर में जब हम कोसी तटबंध पर खड़े होकर दोनों ओर देखते हैं तो एक ओर टीन की छत वाली कच्ची मकानें दिखती हैं। बड़े-बड़े जलाशय, कोसी की धारा नजर आती है। दोपहर की तेज धूप से चमकते हुए बालू के ढेर दिखते हैं।

वहीं दूसरी ओर, पक्के मकान दिखते हैं, चौड़ी सड़कें दिखती है, क्षेत्र का विकास होता हुआ दिखता है। वही विकास जो तटबंध के भीतर या तो पहुंच नहीं पाता या बिगड़े हुए रूप में पहुंचता है। भले ही हर साल आने वाली बाढ़ के चलते तटबंध के भीतर की जमीन बाहर की तुलना में कुछ अधिक ऊंची हो गई हो, लेकिन यहां के लाखों लोगों के जीवन का स्तर नहीं उठ पाया है।

(हेमंत कुमार पाण्डेय स्वतंत्र पत्रकार पत्रकार हैं।)

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