मानसून 2019: सामान्य से 10 फीसदी अधिक बारिश, फिर भी नुकसान

Daya SagarDaya Sagar   9 Oct 2019 11:06 AM GMT

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मानसून 2019: सामान्य से 10 फीसदी अधिक बारिश, फिर भी नुकसानमानसून 2019: ‘जलवायु परिवर्तन से उपजे हालात से लड़ना सीखना होगा’ (फोटो संदर्भ - बिहार बाढ़, अभिषेक वर्मा, ग्राफिक्स- फराज हुसैन)

बुंदेलखंड के ललितपुर जिले के किसान मठोले अहिरवार (63 वर्ष) इस साल फिर परेशान हैं। लेकिन इस बार उनकी परेशानी की वजह सूखा नहीं बल्कि हद से ज्यादा हुई बारिश है। सितंबर महीने की आखिरी में हुई बारिश से उनकी चार एकड़ की उड़द की फसल बर्बाद हो गई। लगातार कई सालों से सूखे का कहर झेल रहे बुंदेलखंड के हजारों किसानों की दलहनी फसल सितंबर के इस बारिश से बर्बाद होने की कगार पर है।

भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के अनुसार इस बार सितंबर में सामान्य से 50 फीसदी अधिक बारिश हुई। सितंबर में इतनी अधिक बारिश लगभग एक सदी बाद हुई है। इससे पहले 1917 में सितंबर में सामान्य से 65 प्रतिशत अधिक बारिश हुई थी। भारतीय उपमहाद्वीप में बनी भौगोलिक परिस्थितियां और जलवायु परिवर्तन को इसका प्रमुख कारण माना जा रहा है।

इस साल बिहार, असम, महाराष्ट्र, पूर्वी उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और केरल सहित देश भर के कई हिस्सों में बाढ़ आई। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस साल 22 राज्यों के 357 जिलों के 25 लाख लोग बाढ़, बारिश और भूस्खलन से जुड़ी आपदाओं से प्रभावित हुए। इन आपदाओं में 1874 लोगों की जान गई, जबकि तीन लाख से अधिक घर क्षतिग्रस्त हुए वहीं 14.14 लाख हेक्टेयर फसलों को भी नुकसान हुआ।

बाढ़ से डूबें खेत और मछली मारता किसान (फोटो- अभिषेक वर्मा)

कम समय में अत्यधिक बारिश होने की वजह से बाढ़ की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। मौसम वैज्ञानिक और पर्यावरणविद इसे नई सामान्यता (न्यू नॉर्मल) कह रहे हैं। उनका मानना है कि जलवायु परिवर्तन के इस दौर में ऐसी घटनाएं साल दर साल बढ़ती रहेगी और हमें इसके लिए तैयार रहना होगा। ऐसे आपदाओं से बचने के लिए आपदारोधी बुनियादी ढाचों (Climate Resilient Infrastructure) के निर्माण की भी बात की जा रही है।

रिकार्ड तोड़ मानसूनी बारिश

साल 2019 के मानसूनी सीजन में सामान्य से दस फीसदी अधिक बारिश हुई। पच्चीस साल के बाद यह पहला मौका है जब मानसून सीजन में सामान्य से दस प्रतिशत अधिक बारिश हुई है। इससे पहले 1994 में ऐसा देखने को मिला था। वहीं 1931 के बाद यह पहला मौका है जब जून में सामान्य से कम बारिश होने के बाद भी कुल मानसूनी बारिश सामान्य से 10 प्रतिशत अधिक हुई हो। इस साल वायु साइक्लोन की वजह से देर से मानसून प्रवेश किया था और जून में सामान्य से 30 फीसदी कम बारिश हुई थी।

इस साल कुल 88 सेंटीमीटर बारिश हुई। देश के 36 मौसम उपक्षेत्रों में से दो में सामान्य से बहुत अधिक बारिश, जबकि 10 में सामान्य से अधिक बारिश हुई। वहीं 19 मौसम उपक्षेत्रों में सामान्य बारिश, जबकि 5 उपक्षेत्र ऐसे भी रहे जहां सामान्य से कम बारिश हुई।

सबसे अधिक मानसूनी बारिश मध्य और दक्षिण भारत में हुई। मध्य भारत में सामान्य से 29 फीसदी जबकि दक्षिण भारत में सामान्य से 16 फीसदी अधिक बारिश हुई। हालांकि कई क्षेत्र ऐसे भी रहें जो इस रिकॉर्ड तोड़ मानसूनी बारिश में भी पानी के लिए तरसते रहे। पूर्वोत्तर भारत का हाल कुछ ऐसा ही रहा। असम और बंगाल में बाढ़ आने के बावजूद पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में सामान्य से 12 फीसदी कम बारिश हुई।

इस साल अलग-अलग राज्यों में कुछ इस पैटर्न पर हुई बारिश (फोटो स्त्रोत- आईएमडी)

आईआईटी गांधीनगर के ड्रॉट मैप के अनुसार सामान्य से 10 फीसदी अधिक बारिश होने के बावजूद देश का लगभग एक चौथाई हिस्सा (25 फीसदी) अभी भी सूखे की मार झेल रहा है। इसमें पूर्वोत्तर भारत के कई राज्य, झारखंड, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र का मराठवाड़ा और विदर्भ शामिल है। 2000 के बाद से 19 साल में यह 18वां मौका है जब पूर्वोत्तर राज्यों में सामान्य से कम बारिश हुई है।

भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के पूर्व निदेशक डा. के. जे. रमेश हालांकि इसे अधिक चिंताजनक नहीं मानते। उनका कहना है कि पूर्वोत्तर राज्यों का बारिश औसत (LPA) इतना अधिक तय किया गया है कि दस प्रतिशत से कम बारिश भी इन राज्यों में अधिक चिंताजनक नहीं है।

उन्होंने कहा, "इस साल इतनी अधिक बारिश हुई है कि बेहतर प्रबंधन के जरिये देश भर के अधिकतर हिस्से की पेयजल और सिंचाई की समस्या को सुधारा जा सकता है। साथ ही साथ यह मानसूनी बारिश रबी की फसल में भी काफी सहयोगी साबित होगी।" हालांकि उन्होंने यह भी माना कि झारखंड और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में कम बारिश का होना चिंता का विषय है।

इंडियन ड्रॉट मैप के अनुसार भारत का एक चौथाई हिस्सा अभी भी सूखे की मार झेल रहा (फोटो स्त्रोत- आईआईटी गांधीनगर ड्रॉट मैप)

रिकॉर्ड तोड़ बारिश लेकिन मानसून का अनिश्चित पैटर्न

इस साल सामान्य से अधिक बारिश हुई लेकिन इसका पैटर्न काफी अनिश्चित सा रहा। भारत के दक्षिण पश्चिमी मानसून का पैटर्न रहा है कि जून के शुरुआती दिनों में भारत में प्रवेश करने के बाद जुलाई और अगस्त के महीने में यह अधिक बारिश करता है। वहीं सितंबर महीना मानसून के विदाई का समय होता है। 15 सितंबर तक मानसून भारतीय जमीन से वापिस चला जाता है।

लेकिन इस साल सितंबर में मानसून वापिस नहीं गया बल्कि इस महीने में पूरे देश भर में रिकॉर्डतोड़ बारिश हुई। आईएमडी को भी उम्मीद नहीं थी कि सितंबर में इतनी अधिक बारिश होगी, जैसा कि उन्होंने अपने आधिकारिक बयान में भी कहा है। डा. के. जे. रमेश इस बारे में कहते हैं कि आईएमडी मार्च-अप्रैल में ही मानसून का पूर्वानुमान लगाता है इसलिए पांच महीने बाद सितंबर की बारिश का पूर्वानुमान लगाना थोड़ा मुश्किल हुआ।

वहीं एक और प्रमुख मौसम एजेंसी स्काईमेट वेदर ने इस मानसून सीजन में सामान्य से सात प्रतिशत कम (93 फीसदी) बारिश होने का पूर्वानुमान लगाया था। स्काईमेट वेदर के प्रमुख मौसम विज्ञानी महेश पलावत कहते हैं कि उनकी टीम ने उम्मीद नहीं की थी कि भारतीय महासागर में बनने वाला इंडियन ओसियन डायपोल (आईओडी) इतना मजबूत होगा कि रिकॉर्डतोड़ बारिश की संभावना व्यक्त की जा सके।

गांव कनेक्शन को उन्होंने फोन पर बताया, "अल-नीनो हर बार इंडियन ओसियन डायपोल (आईओडी) के प्रभाव को खत्म कर देता है। इसके अलावा इंडियन ओसियन डायपोल का प्रभाव क्षेत्रीय होता है। लेकिन इस बार आईओडी इतना मजबूत था कि अल-नीनो उसके प्रभाव को कम नहीं कर पाया। इसके अलावा मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (एमजेओ) पूरे मानसून सीजन में चार बार आया जिसकी वजह से रिकॉर्ड तोड़ बारिश हुई।"

महेश पलावत आगे कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन मानसून पर असर डाल रहा है, इस वजह से कम समय में अधिक बारिश हो रही है। उन्होंने यह भी बताया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम की भविष्यवाणी करना भी काफी मुश्किल हो रहा है। उन्होंने कहा इस साल सारे 'वेदर फोरकॉस्टिंग मॉडल' फेल रहे, जिसमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, यूरोप के मॉडल प्रमुख हैं।

आपदारोधी बुनियादी ढाचों के निर्माण पर जोर

इस साल रिकॉर्ड तोड़ बारिश हुई तो इससे जुड़ी आपदाओं मसलन बाढ़, आकाशीय बिजली और भूस्खलन से रिकॉर्ड तोड़ लोग प्रभावित हुए। 2019 में ऐसी आपदाओं से 1874 लोगों की जान गई, जबकि तीन लाख से अधिक घर क्षतिग्रस्त हुए। बिहार और महाराष्ट्र में बाढ़ आने का प्रमुख कारण बांधों का टूटना रहा। इसलिए कई पर्यावरणविद् इन आपदाओं से बचने के लिए लोग आपदारोधी बुनियादी ढाचों के निर्माण की बात कर रहे हैं।

इस साल तटबंधों के टूटने से बाढ़ की भयावहता और बढ़ गई (तस्वीर- अभिषेक वर्मा)

पिछले दो दशक से आपदारोधी बुनियादी ढाचों के क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्था 'सीड्स' के संस्थापक सदस्य अंशु शर्मा कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन के इस दौर में चूंकि अत्यधिक बारिश, बाढ़, भूस्खलन और भूकंप सामान्य होते जा रहे हैं तो हमें इसके लिए तैयार भी रहना होगा। हमें ऐसे आपदारोधी मकानों, स्कूलों, इमारतों, तटबंधो, पुलों और अन्य बुनियादी ढाचों का निर्माण करना होगा जो कि प्राकृतिक आपदाओं से कम से कम प्रभावित हो।"

अंशु शर्मा इसके लिए इंजीनियरों नहीं बल्कि मिस्त्रियों को ट्रेनिंग देने की बात करते हैं, जो कि असल में किसी निर्माण कार्य को अंजाम देते हैं। वह कहते हैं कि 8 से 10 प्रतिशत अधिक धन लगाकर कहीं अधिक मजबूत और आपदारोधी मकान बनाया जा सकता है।

भारत ने आपदा रोधी बुनियादी ढांचों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए विकसित एवं विकासशील देशों को साथ लाकर एक गठबंधन किया है जिसे आपदा रोधी बुनियादी ढांचे के लिए गठबंधन (सीडीआरआई) कहा जा रहा है। यह गठबंधन इसलिए किया जा रहा है ताकि सदस्य देशों को प्राकृतिक आपदा के बाद स्थिति से निपटने में मदद की जा सके। ये देश हर साल किसी ना किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होते रहते हैं और उनका बुनियादी ढांचा बहुत जल्द नष्ट हो जाता है।

संयुक्त राष्ट्र में इस गठबंधन की औपचारिक शुरुआत करते हुए पीएम मोदी ने कहा, "जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बेहतर ढांचे का निर्माण आवश्यक है। हमें शुरू में ही सर्वश्रेष्ठ ढांचा बनाना चाहिए ताकि हमें संकट आने पर ही बेहतर ढांचा न बनाना पड़े। भारत आज इस मुद्दे की गंभीरता के बारे में सिर्फ बातें करने नहीं आया है बल्कि एक व्यवहारिक रूख और खाका पेश करने भी आया है।''

बाढ़ से टूटते घर, ढहते मकान (फोटो-अभिषेक वर्मा)

'एक्शन ऐड' के ग्लोबल क्लाइमेट लीड, हरजीत सिंह भी कहते हैं कि अब बातों का समय नहीं बल्कि एक्शन लेने का समय है। गांव कनेक्शन से फोन पर बात-चीत में वह कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नीतियां तो बनती हैं लेकिन उस पर अमल नहीं होता। कहीं यह गठबंधन भी ऐसा साबित ना हो। इसलिए हमें इन नीतियों को नीचे के अधिकारियों और कर्मचारियों तक पहुंचना होगा, जहां पर असल में काम होना है। उन्हें सही ट्रेनिंग दिया जाए और आपदा रोधी ढाचों के लिए अलग से बजट आवंटित किया जाए। इसके अलावा हमें किसी भी नीति का निर्माण जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए ही करना होगा।"

हरजीत सिंह कहते हैं, "यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है। हमें बस हर परिस्थितियों के लिए खुद को तैयार रखना पड़ेगा। जैसा कि मानसून आने पर हमारे ड्रेनेज सिस्टम और स्टोरेज सिस्टम दोनों को दुरुस्त होना चाहिए ताकि कम या अधिक बारिश होने की स्थिति में हालात को संभाला जा सके और बाढ़ या सूखे की स्थिति उत्पन्न ना हो। इसके अलावा तटबंधों के निर्माण में भी क्लाइमेट चेंज और उसके भयंकर परिणामों का ध्यान रखना होगा ताकि बाढ़ की स्थिति में वे आसानी से ना टूटे।"

गौरतलब है कि इस साल बिहार और महाराष्ट्र में तटबंधों के टूटने से बाढ़ की भयावहता और बढ़ गई थी। हरजीत सिंह बारिश के 'अर्ली वार्निंग सिस्टम' को भी मजबूत करने की बात करते हैं, ताकि किसान और अन्य लोग भी इसके लिए पहले से ही तैयार कर सकें। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस साल बारिश और बाढ़ से 14.14 लाख हेक्टेयर फसलों को नुकसान हुआ है।

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