किसान आंदोलन पंजाबी अस्मिता का भी प्रतीक, लेकिन किसानों का संदेश: 'किसान का कोई धर्म नहीं होता, किसानी खुद ही एक धर्म'

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ, दिल्ली में पिछले हफ्ते किसान जमे हैं लेकिन पंजाब ये आंदोलन पिछले दो महीने से चल रहा था, इस आंदोलन को पंजाब के आम लोगों, गायकों,नेताओं और खिलाड़िओं का व्यापक समर्थन मिला है, किसानों की इस लड़ाई को पंजाब की अस्मिता से भी जोड़कर देखा जा रहा है... जानिए कैसे...

Daya SagarDaya Sagar   3 Dec 2020 12:47 PM GMT

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किसान आंदोलन पंजाबी अस्मिता का भी प्रतीक, लेकिन किसानों का संदेश: किसान का कोई धर्म नहीं होता, किसानी खुद ही एक धर्म

- दया सागर/अरविंद शुक्ला

"धरती का सीना चीर कर जब इंकलाब उठता है,

इतिहास बदल जाता है, जब पंजाब उठता है।"

हरियाणा और पंजाब की सीमा पर स्थित शंभू बॉर्डर, जो क्रमशः अंबाला और पटियाला जिले की सीमाओं को जोड़ता है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लाए गए नए कृषि कानूनों के विरोध में यहां दो महीने से धरना चल रहा था। यहीं पर पंजाब की सीमा में प्रदर्शनकारियों ने तीन कृषि कानूनों के खिलाफ मोर्चा खोल रहा था। यह प्रदर्शन क्रमिक था, कुछ लोग आते थे धरना देकर चले जाते थे, नए लोग आ जाते थे, लेकिन कुछ लोग वहीं पर डेरा डाले हुए थे। इस जगह पर एक मंच बना हुआ था और मंच के पीछे पंजाब की अहमियत बताता यह बैनर लगा था।

जिस बैनर पर गुरुमुखी भाषा में (जिसमे आम बोलचाल की भाषा में पंजाबी भी कहते हैं) ये जोशीली पंक्तियां लिखी थीं उसके नीचे गुरु गोविंद सिंह, शहीद भगत सिंह, शहीद ऊधम सिंह, बाबा साहेब अंबेडकर की तस्वीरें लगी थीं। बैनर पर लिखे शब्दों और उनके अर्थ को वहां मौजूद स्थानीय पत्रकार और किसान हरिंदर सिंह (34 वर्ष) ने समझााया।

किसानों के दिल्ली कूच आंदोलन को कवर करने, पंजाब के किसानों को जमीनी मुद्दे समझने के लिए जब गांव कनेक्शन की टीम 26 नवंबर के तड़के 4 बजे शम्भू बॉर्डर पहुंची तो पंजाब का पहला पड़ाव शंभू मोर्चा ही था। लुधियाना निवासी हरिंदर सिंह थे तो पत्रकार लेकिन उससे पहले वो खुद को किसान और सबसे ऊपर पंजाबी कहते थे। उन्होंने बैनर पर लिखी दो लाइनों का मर्म समझाते हुए कहा कि दरअसल पंजाब हमेशा से ही देशव्यापी आंदोलनों का नेतृत्व करता आया है, फिर चाहे वो मुगलों के बर्बर शासन के खिलाफ हो या फिर अंग्रेजों के खिलाफ। 'जो गलत है, हम पंजाबी उसका विरोध करते हैं।"

शम्भू बॉर्डर मोर्चे के मुख्य बैनर पर गुरूमुखी पंजाबी में लिखी दो लाइन की कविता (फोटो- दया सागर)

कृषि कानूनों को किसान विरोधी बताते हुए देशभर के किसान संगठनों ने संयुक्त किसान मोर्चे के गठन हुआ था, जिसमें पंजाब की वो 31 किसान यूनियन भी शामिल हैं जो पिछले दो महीने से सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थीं। कहीं सुनवाई न होते देख संयुक्त किसान मोर्चे ने 26-27 नवंबर को दिल्ली कूच का ऐलान कर दिया था। पंजाब की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार भी कृषि कानूनों के विरोध में थी इसलिए पंजाब में किसान संगठनों को कोई दिक्कत नहीं थे लेकिन दिल्ली तक पहुंचने के लिए किसानों को हरियाणा से होकर गुजरना था जहां कि मनोहर लाल खट्टर (बीजेपी गठबंधन) सरकार की तमाम रुकावटों को पार करना था। 26 से लेकर 27 नवंबर तक हरियाणा के तमाम बॉर्डर पर लगी बैरिकेडिंग तोड़कर हजारों हजार किसान दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पहुंच गए थे जहां उनका आंदोलन जारी है।

कृषि कानून लागू तो पूरे देश में हैं और कई जगह इसका व्यापक विरोध भी हो रहा है लेकिन जिस तरह से पंजाब और हरियाणा ने मोर्चा खोला है, वह इतिहास में दर्ज हो जाएगा। नए कानूनों का विरोध पंजाब में ही क्यों सबसे ज्यादा है इस सवाल के जवाब में हरिंदर सिंह कहते हैं,"अभी देश के किसानों को पंजाब की जरूरत है। मोदी सरकार के तीन काले कानूनों का विरोध अभी से नहीं किया गया, तो यह देश मे 'किसान' नाम के 'कौम' को ही मिटा देगा और खेती-किसानी भी प्राइवेट हाथों में चला जाएगा। इसलिए जरूरी है कि इन कानूनों का विरोध हो और एक जिंदा कौम होने के नाते हम पंजाबी शुरू से ही इसका विरोध कर रहे हैं।"

26 नवंबर से 28 नवंबर के पंजाब और हरियाणा के इस यात्रा के दौरान हमने सैकड़ों युवा, बुजुर्ग और महिला किसानों से बात की। सभी लोग हाल ही में पास हुए तीनों कृषि कानूनों को 'काला कानून' कह रहे हैं और इसके खिलाफ उनमें काफी रोष है।

महिलाओं को डर है कि इन 'काले कानूनों' से उनकी आने वाली पीढ़ी प्रभावित होगी और उनके बच्चे अपने ही खेतों में खेतिहर मजदूर बनकर रह जाएंगे। वहीं युवाओं की यह चिंता है कि अगर खेती-किसानी को भी सरकार प्राइवेट हाथों में दे देगी तो फिर बेरोजगारी के इस दौर में उनके हाथ में क्या रह जाएगा।

इस आंदोलन में बच्चे, बुजुर्ग, युवा, महिलाएं सभी शामिल हैं।

आंदोलन में शामिल लोग कृषि कानूनों के साथ-साथ कई ऐसे मुद्दों का भी जिक्र करते हैं और यह बताते हैं कि कैसे आजादी के बाद से ही पंजाब की उपेक्षा की गई है। उनकी बातों में पंजाब को विभाजित कर उसे कमजोर करने, पंजाब का पानी दूसरे राज्यों को देने, 1984 में हुए सिख दंगों में इंसाफ न मिलने, पंजाबी भाषा को तवज्जो न देने का रोष साफ दिखता है। आंदोलन में शामिल कई लोग खुद मानते हैं कि ये पंजाब की अस्मिता की भी लड़ाई है।

दिल्ली की तरफ बढ़ रहे लुधियाना जिले के युवा किसान परविंदर सिंह (29 वर्ष) कहते हैं, "देश में आजादी के बाद से ही लगातार पंजाब के साथ उपेक्षा होती आ रही है। पहले पंजाब को देश के विभाजन के दौरान बांटा गया और उसका एक बड़ा और प्रमुख हिस्सा पाकिस्तान को दे दिया गया। इसके बाद पंजाब को तीन हिस्सों (हिमाचल, हरियाणा, पंजाब) में बांटकर उसे और कमजोर कर दिया गया। बाद में हमारा पानी भी हमसे छीन लिया गया और इसे हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान सहित अन्य हिस्सों में बांटा जाने लगा। चौरासी (1984) के दंगों में हमारे साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में अत्याचार हुआ।"

"अभी पंजाब की जब अधिकांश आबादी खासकर युवा जब खेती पर निर्भर है, तो सरकार काले कानून लाकर खेती-किसानी को भी कब्जाना चाहती है। यह हमारे खिलाफ एक साजिश है। इसलिए सारे पंजाबी दिल्ली कूच कर रहे हैं, ताकि हम दिल्ली को अपनी ताकत का एहसास करवा सकें," परविंदर आगे कहते हैं।

पाकिस्तानी सीमा से सटे जिले गुरदासपुर जिले से आए किसान। फोटो- दया सागर

पंजाब में एक मुद्दा भाषा का भी है। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म करने के बाद सितंबर महीने में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर रिऑर्गेनाइजेश एक्ट की शक्तियों का उपयोग करते हुए हिंदी समेत पांच भाषाओं (उर्दू, कश्मीरी, डोगरी, हिंदी और अंग्रेजी) को राज भाषा का दर्जा दिया था। जम्मू में पंजाबियों की बड़ी आबादी रहती है, वहां के व्यवासियों में भी पंजाब का दबदबा है बावजूद इसके पंजाबी को शामिल न करना पंजाब के लोगों को नागवार गुजरा था।

पंजाब की सियासत को समझने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, "हमने सुना था कि उस वक्त अकाली (शिरोमणी अकाली दल) जो एनडीए में शामिल थे, के मुखिया प्रकाश सिंह बादल ने इस पर ऐतराज जताया था लेकिन सरकार ने उसकी अनुसनी की। सरकार जब कृषि कानून लाई तो देश के बड़े किसान नेताओं में शामिल बादल से राय तक नहीं ली गई। इसलिए कई ऐसे फैक्टर हैं तो इस आंदोलन में कृषि कानूनों के साथ काम कर रहे हैं।"

गांव कनेक्शन ने अपनी इस यात्रा के दौरान जितने भी लोगों से बात की, उन्होंने पंजाबी में ही अपनी बात रखना उचित समझा। कई लोग ऐसे भी थे, जिन्हें पंजाबी के साथ-साथ हिंदी भी आता था और कई लोग जो हिंदी में मीडिया से बात भी कर रहे थे, लेकिन उन्हें पीछे से कहा जाता था कि अगर उन्हें पंजाबी आती है, तो वे हिंदी क्यों बोल रहें?


शहीद सरकार उद्धम सिंह, जिन्होंने जलियावाला बाग नरसंहार (1919) के बदला लेने के लिए लंदन जाकर जनरल डायर की हत्या की थी, संगरुर जिले के रहने वाले थे। 26 नवंबर को दिल्ली कूच के दौरान पंजाब के संगरुर और हरियाणा के जींद को जोड़ने वाले खनौरी बॉर्डर पर 5000 (किसानों और स्थानीय पुलिसकर्मियों के मुताबिक) से ज्यादा ट्रैक्टर ट्राली में हजारों हजार किसान डेरा डाले हुए थे। इस रूट से जो जत्थे दिल्ली कूच कर रहे थे उनमें महिलाओं और बुजुर्गों की संख्या काफी थी। यहां बाचतीत के दौरान कई लोगों ने न सिर्फ ऊधम सिंह का जिक्र किया बल्कि ये भी बताया कि पंजाबी कौम जब कुछ ठान लेती है तो जान की बाजी लगाकार भी उससे पूरा करती है।

संगरूर के खनौरी बॉर्डर पर खड़े लगभग मानसा जिले के 65 वर्षीय किसान जसवंत सिंह से जब पूछा जाता है कि हरियाणा से लेकर दिल्ली तक पूरे रास्ते में कई जगहों पर पुलिस द्वारा बैरिकेडिंग कर रोका जा रहा है, तो वे किस तरह दिल्ली कूच करेंगे? इसके जवाब में जसवंत सिंह कहते हैं, "कोई भी बाधा आए, वे लोग दिल्ली पहुंच कर ही रहेंगे। पीएम मोदी सहित पूरे इंडिया को भी पता लगना चाहिए कि पंजाबी क्या चीज हैं। हम पंजाबियों ने अंग्रेजों से लड़कर गुरूद्वारा रकाब सिंह साहिब (चांदनी चौक, दिल्ली) के अधिकार को हासिल किया था तो फिर यह सब कोई बड़ी बात नहीं है।"

चाहे युवा हो या बुजुर्ग, महिला हो या पुरूष, सभी किसान बार-बार अपनी बातों से अपने पंजाबी, सिख या जट्ट (जाट) होने का हवाला देते हैं, ताकि इससे आंदोलन की ताकत और दृढ़ चरित्र का अंदाजा लगाया जा सके।

किसान आंदोलनकारी दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर 27 नवंबर से डेरा डाले हैं। बहुत सारे किसान टिकरी बॉर्डर (दिल्ली-रोहतक) पर अपनी मांगों को लेकर हाईवे जाम किए हुए हैं। किसानों का साफ कहना है कि केंद्र सरकार सभी तीन कृषि कानूनों को वापस ले और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) निर्धारण को लेकर एक कठोर कानून बनाए नहीं तो वे दिल्ली का घेराव कर उसका 'हुक्का पानी' बंद कर देंगे।

सिंघू बॉर्डर पर भी लगातार पंजाब के बड़े-बड़े किसान नेता, गायक, खिलाड़ी और अन्य व्यक्ति किसानों को संबोधित करते हैं, जिससे इनका उत्साह बना रहे। ऐसे ही एक गायक और लेखक बब्बू मान हैं, जो इस आंदोलन से शुरू से जुड़े हुए हैं और सोशल मीडिया पर लगातार पंजाब के युवाओं, वकीलों, लेखको, डॉक्टरों, पत्रकारों को इस आंदोलन से जुड़ने की अपील करते रहे हैं।

27 नवंबर को वह भी किसानों के बीच सिंघु बॉर्डर पहुंचे और कहा, "यह लंबी लड़ाई है और हो सके यह लड़ाई एक हफ्ते, एक महीने या एक साल चले। इसके लिए हमें तैयार रहना होगा क्योंकि हमारा यह एक हफ्ता, एक महीना या एक साल हमारे आने वाले पीढ़ियों के भविष्य को निर्धारित करेगा।" गांव कनेक्शन से जुड़े पंजाब के स्थानीय पत्रकार संदीप सिंह ने बताया कि बब्बू सिंह मान जैसे लेखको-गायकों के जुड़ने से ना सिर्फ पंजाबी युवा बल्कि अमेरिका, कनाडा और यूरोप में रहने वाले पंजाबी मूल के लोग भी इस आंदोलन से जुड़े हैं और अपना समर्थन दे रहे हैं।


28 नवंबर को पूर्व क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह ने भी संबोधित किया। रणजीत सिंह के सिख राज को याद करते हुए उन्होंने कहा कि उनके राज में सिर्फ 16 प्रतिशत ही सिख थे, लेकिन उन्होंने जाति, धर्म और लिंग से परे होकर सबका ख्याल रखा। राजा का यही कर्तव्य होता है लेकिन वर्तमान राजा (सरकार) ऐसा करता हुआ नहीं दिख रही है। उन्होंने अपने क्रिकेटर मित्र और कांग्रेस के नेता नवजोत सिंह सिद्धू से अपील की कि वे एक नई पार्टी का गठन करे, जिसका पूरा पंजाब समर्थन करेगा।


इस आंदोलन पर अलगाववादी और खलिस्तानी होने के भी आरोप लग रहे हैं। गांव कनेक्शन की टीम को भी दो जगहों पर खलिस्तान के समर्थन में नारे लगाते हुए छिटपुट समूह (2-8 लोग तक) मिले, लेकिन उनकी संख्या काफी सीमित थी। और ज्यादातर किसान संगठन ने ऐसे किसी संगठन को उनकी जानकारी में आऩे से इनकार भी किया।

भारतीय किसान यूनियन, तरणताल जिले के पदाधिकारी बलिंदर सिंह कहते हैं, "किसान का कोई धर्म नहीं होता, किसानी खुद एक धर्म है। इसलिए इस आंदोलन पर किसी एक धर्म, जाति या समाज का नाम देना गलत होगा। हम किसान हैं और हमें इन कानूनों से डर लग रहा है, पूरा मामला बस यही है। लाखों लोगों में अगर किसी एक-दो लोगों ने भावुक होकर या किसी दूसरे मकसद से कुछ बोल दिया हो, तो उस पर पूरे आंदोलन पर सवाल नहीं उठाना चाहिए।"

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महिलाएं बोलीं -'हम घरों में ताले लगाकर आये हैं, जब तक मोदी सरकार क़ानून वापस नहीं लेगी तब तक पंजाब वापस नहीं लौटेंगे'


   

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