लखीमपुर: लॉकडाउन में धड़ल्ले से फल-फूल रहा है कच्ची शराब का कारोबार

शराब माफियाओं ने गांव के बाजारों में उतारा कच्ची शराब का ब्रांड

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लखीमपुर: लॉकडाउन में धड़ल्ले से फल-फूल रहा है कच्ची शराब का कारोबार

- शिशिर शुक्ला

लखीमपुर के तराई क्षेत्र में शराब उत्पादन का अवैध कारोबार अपनी जड़ें जमाता जा रहा है। जगह-जगह कुटीर उद्योग की तरह कच्ची शराब बनाने और बेचने का धंधा फलफूल रहा है। इसकी रोकथाम के लिए आबकारी विभाग और पुलिस की कार्रवाई केवल कागजों तक ही सीमित रह जा रही है।

तराई में पूरी रात कच्ची दारू उगलने वाली भट्ठियां धधकती नजर आती हैं। रात का समय गुजरने के बाद एक-दो लीटर नहीं बल्कि सैकड़ों लीटर कच्ची शराब तैयार हो जाती है। तैयार हो चुकी कच्ची दारू की बिक्री अपने तय स्थान और समय पर होती है। उत्पादन के बाद झुग्गी-झोपड़ियों पर कच्ची शराब की बिक्री आम बात है।

जिले में लॉक डाउन के बीच शराब की दुकानों को पूरी तरह से बंद करा दिया गया है| लेकिन उसके बाद भी पुलिस की नाक के नीचे कच्ची शराब का काला कारोबार तेज है| लगातार भट्टियों में आग धधक रही है| कुछ दिनों पहले प्रशासन ने दबिश देकर भारी मात्रा में लहन और कच्ची शराब बरामद की थी| इतना ही नहीं एसएसबी ने भी तकरीबन 200 लीटर बिक्री के लिए तैयार पैकिंग की हुई दारु बरामद की।

वर्ष 2016 में आई क्रोम डेटा ऐनालिटिक्स ऐंड मीडिया (क्रोम डीएम) की सर्वे रिपोर्ट के खुलासे चौंकाने वाले थे। इसमें बताया गया कि गांव-देहात के लोग दवाओं के मुकाबले नशे की चीजों पर ज्यादा पैसा खर्च करते हैं। ग्रामीण भारत में एक व्यक्ति इलाज पर करीब 56 रुपए खर्च करता है जबकि शराब पर 140 रुपए और तंबाकू पर 196 रुपए। यानी ईलाज पर खर्च के मुकाबले नशे की चीजों का खर्च तीन गुना ज्यादा है।

ग्रामीण क्षेत्रों में जिस पेय पदार्थ को देसी दारू के नाम पर बेचा जाता है उसे एथेनॉल भी कहते हैं। ये गन्ने के रस, ग्लूकोज़, शोरा, महुए का फूल, आलू, चावल, जौ, मकई जैसे किसी स्टार्च वाली चीज़ को सड़ा कर तैयार किया जाता है। थोड़े पैसे की लालच में इस एथेनॉल को और नशीला बनाने के लिए इसमें मेथनॉल और स्प्रीट मिलाते हैं। इन चीजों के मिलने से फॉर्मिक एसिड बनती है जो मानव शरीर के लिए बहुत खतरनाक होती है और जहर की तरह काम करती है।

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