सिंघाड़े के आटे और पाउडर की मांग तेजी से बढ़ी, कई रोगों की है दवा

सिंघाड़े के अलावा सिंघाड़े के आटे की मांग भी पहले की तूलना में बढ़ी है। इसका प्रयोग कई प्रकार की दवाओं को बनाने में भी किया जाता है। थायराइड और घेंघा रोग को दूर करने में सिंघाड़े के आटे का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है।

Moinuddin ChishtyMoinuddin Chishty   8 July 2019 7:49 AM GMT

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सिंघाड़े के आटे और पाउडर की मांग तेजी से बढ़ी, कई रोगों की है दवा

सिंघाड़े का उत्पादन लगभग भारत के सभी राज्यों में होता है। सिंघाड़े के आटा और पाउडर की मांग में भी तेजी से इजाफा हुआ है। उत्तर प्रदेश में सिंघाड़े की खेती अवध के लखनऊ, बाराबंकी, रायबरेली, उन्नाव, सीतापुर और आसपास के जनपदों में मुख्य रूप से की जाती है। यह फसल तालाबों और जलाशयों में रोपकर तैयार की जाती है।

दवा बनाने के लिए भी उपयोग में आता है सिंघाड़ा

सिंघाड़े के अलावा सिंघाड़े के आटे की मांग भी पहले की तूलना में बढ़ी है। इसका प्रयोग कई प्रकार की दवाओं को बनाने में भी किया जाता है। थायराइड और घेंघा रोग को दूर करने में सिंघाड़े के आटे का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है।सिंघारे में आयोडीन की मात्रा अधिक पाई जाती है। इसलिए यह कई प्रकार की बीमारियों में मरीजों के लिए फायदेमंद है।

सिंघाड़े की खेती के लिए पट्टे पर लिया जाता है तालाब

नगराम, लखनऊ के किसान संजय कुमार बताते हैं कि गांव के अधिकतर तालाब ग्रामसभा की संपत्ति हैं। सिंघाड़े की खेती के लिए तालाबों को 7 से लेकर 8 महीने के लिए ग्राम सभा से पट्टे पर लिया जाता है। इसके लिए तालाब के क्षेत्रफल के अनुपात के आधार पर ग्रामसभा को पैसे देने पड़ते हैं। जिसमें एक तालाब का पट्टा 20 हजार से लेकर एक लाख रुपए तक का होता है।

सिंघाड़ा उत्पादक किसानों का कहना है कि अगर सरकार की तरफ से उनकी मदद की जाए तो सिंघाड़े की खेती से छोटे और सीमांत किसानों की आय में वृद्धि और माली हालत में सुधार लाया जा सकता है। सिंघाड़े की खेती को लेकर सरकार की तरफ से जो मदद मिलनी चाहिए, वह अभी तक किसानों को नहीं मिल पा रही। सरकार यदि गांवों के तालाबों की साफ-सफाई का पूरा ध्यान , तालाबों की मुख्य खरपतवार जलकुंभी को समय रहते नगर पंचायतें और ग्राम पंचायतें के माध्यम से निकलवा दे, तो सिंघाड़े का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।


जुलाई से शुरू हो जाती है सिंघाड़े की बुवाई

सिंघाड़े की बुवाई बरसात शुरू होते ही जुलाई से लेकर अगस्त के पहले सप्ताह में शुरू हो जाती है। बाकी फसलों के मुकाबले सिंघाड़े की नर्सरी बाहर कहीं उपलब्ध नहीं होती इसलिए यह बहुत ही मेहनत भरा काम होता है। ऐसे में गांव के कुछ विशेषज्ञ ही सिंघाड़े की इस फसल को तैयार करते हैं।

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मई और जून के महीने में ही गांव के छोटे तालाब, पोखरों और गड्डों में इसका बीज बोया जाता है, जिससे एक महीने में बेल के रूप में इसका पौधा तैयार किया जाता है। इसको निकालकर तालाब और तालों में डाला जाता और यह बेल के रूप में तालाब की सतह में फैल जाता है। उस समय सिंघाड़े की फसल को तमाम तरह की बीमारियों और कीट-पतंगों से भी खतरा रहता है। कीट पतंगो से बचाने के लिए समय-समय पर इसमें दवाएं और खाद का भी उपयोग किया जाता है।


व्रत में भी किया जाता है सिंघाड़े का उपयोग

सिंघाड़े की बेल में नवम्बर में फल आना शुरू हो जाता है। इसके बाद से इसे तोड़ने का काम शुरू हो जाता है। सिंघाड़े को जनवरी माह के बाद सूखने के लिए फैला दिया जाता है। इससे तैयार होने वाला आटा भी व्रत में खाने पीने की चीजों में प्रयोग होता है। (लेखक कृषि एवं पर्यावरण पत्रकार हैं)

   

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