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जयपुर: त्रासदी के बीच सामाजिक भेद-भाव का सामना करते सब कुछ दांव पर लगाने वाले कोरोना योद्धा

गाँव कनेक्शन | Oct 03, 2020, 12:34 IST
"मैं आसपास जब किसी दुकान पर जाता हूं तो लोग कहते हैं कि यह कोरोना मरीजों की लाश जलाता है, इससे कोरोना फैल सकता है और मुझे सामान देने से मना कर देते हैं।"
corona warriors
- अवधेश पारीक, मो. अनीस

कोरोना महामारी की दस्तक के बाद हमारा समाज कई तरह की शब्दावलियों से पहली बार परिचित हुआ है। 'सोशल डिस्टेंसिंग' और 'क्वारंटीन' वर्तमान समय की हकीकत है। इसके अलावा हम 'कोरोना योद्धा' जैसे शब्द से भी परिचित हुए हैं, जिसका सरकारों से लेकर आम जनता हर किसी ने खूब इस्तेमाल किया है।

यह शब्द सरकारों और आम लोगों ने उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया जो कोरोना महामारी और पूर्ण लॉकडाउन के समय भी अपनी सेवाएं दे रहे थे ताकि आम जनता को किन्हीं दिक्कतों का सामना ना करना पड़े। इसमें डॉक्टर, नर्स, पैरामेडिकल स्टाफ, सफाई कर्मचारी, एम्बुलेंस ड्राइवर, श्मशान घाट के लोग, बैंक कर्मचारी, पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी आदि प्रमुख हैं। सरकार ने इन कोरोना योद्धाओं के लिए कई योजनाओं की भी घोषणा की थी। लेकिन महामारी के 6 महीनों के बाद इन कोरोना योद्धाओं को सरकारी उदासीनता के साथ-साथ सामाजिक भेदभाव का भी सामना करना पड़ रहा है।

लेकिन क्या यह शब्द सिर्फ सरकारी विज्ञापनों को सजाने के काम आया या जमीनी तौर पर इसकी कोई पहुंच है यह जानने के लिए गांव कनेक्शन की एक टीम राजस्थान की राजधानी जयपुर के आस-पास के इलाकों में पहुंची। कोरोना जंग में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से फ्रंटलाइन पर खड़े कुछ ऐसे ही कर्मचारियों से बात की जो किसी कोविड मरीज के अस्पताल जाने से लेकर किसी मृतक की अंतिम यात्रा तक इसमें शामिल रहें।

हम ने यह जानने की कोशिश की कि आखिर कोरोना योद्धा जैसे शब्द के उनकी जिंदगी में क्या मायने हैं और कोरोनाकाल में अब तक उन्होंने किस तरह के हालातों का सामना किया है?

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लॉकडाउन में छूटी नौकरी तो कोविड अस्पताल में मिली सफाई कर्मचारी की ड्यूटी

27 साल के राकेश कुमार राजधानी जयपुर के सबसे बड़े सरकारी कोविड अस्पताल राजस्थान यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंस (RUHS) में काम करते है। वह इससे पहले सीतापुरा इंडस्ट्रियल एरिया स्थित एक फैक्ट्री में काम करते थे।

राकेश बताते हैं, "लॉकडाउन के दौरान उनकी पुरानी नौकरी चली गई जिसके बाद पत्नी और घरवालों के तमाम विरोध के बावजूद मैंने यहां काम करना शुरू किया।"

वह आगे कहते हैं, "दिन में 12 घंटे की ड्यूटी के दौरान मैं कोविड वार्ड की सफाई से लेकर किसी मरीज की मौत होने पर उसको पैक करने तक का काम करता हूं।"

बकौल राकेश, मेरे साथ कई ऐसे कर्मचारी हैं जो पहले कहीं और काम करते थे लेकिन लॉकडाउन के बाद नौकरी छिन जाने से यहां काम करने आएं हैं।

वहीं कोरोना काल में अपने काम को लेकर किसी विशेष राहत पैकेज की बात से नाउम्मीदी जाहिर करते हुए कहते हैं, "साब, हम तो ठेकेदार के जरिए यहां लाए गए हैं, जब उसका मन करेगा लात मारकर निकाल देगा।"

30 साल की सपना कोविड अस्पताल में काम करने को मजबूरी बताते हुए कहती हैं, "जब यहां काम शुरू किया उसके बाद बच्चों को बीमारी से बचाने के लिए मैंने उन्हें पीहर (मायके) में छोड़ दिया है। "

बीच में बच्चों की पढ़ाई को लेकर वह कहती है कि वो तो अब छूट सी गई है। ऑनलाइन एजुकेशन को लेकर वह कहती हैं कि ऑनलाइन क्लास में बच्चों को पास बैठकर पढ़ाना पड़ता है, नहीं तो वे नहीं पढ़ते हैं। लेकिन अब 12 घंटे की नौकरी करनी पड़ती है तो पता ही नहीं चलता कि आज उन्होंने व्हाट्सएप्प (ऑनलाइन पढ़ाई) पर क्या सीखा?

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मृतकों को श्मशान घाट ले जाने वाले एंबुलेंस ड्राइवर समीर

28 साल के समीर खान मंसूरी जयपुर नगर निगम में एंबुलेंस ड्राइवर हैं जो शहर के अस्पतालों से कोविड मृतकों को अंतिम संस्कार की उचित जगह पर ले जाते हैं।

समीर बताते हैं, "जब मैं सुबह घर से निकलता हूं तो दिन कैसा होगा इसके बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। सुबह निकलने के बाद यह नहीं पता होता है कि वापस घर कितने बजे पहुंचेंगे।"

कोरोना काल के बीते कुछ दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि ऐसा भी दिन बीता है जब मैंने एक दिन में 15-20 लाशें जयपुर के अलग-अलग अस्पतालों से अंतिम संस्कार की जगह पहुंचाई हैं।

निगम की ओर से कोरोना को लेकर दी जाने वाली सुरक्षा उपकरणों पर समीर बताते हैं कि हमें पीपीई किट और मास्क, गल्बस सब मिलते हैं और जब हम अस्पताल पहुंचते हैं तो उससे पहले पहन लेते हैं।

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श्मशान घाट में अंतिम संस्कार करते दुर्गेश और भोला

45 साल के दुर्गेश कुमार आदर्श नगर शमशान घाट में पिछले 10 साल से मृतकों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। राख से सना मास्क लगाए वह बताते हैं, "कोरोना काल में मैंने एक दिन में 40 लाशें जलाई हैं, जो दर्द और दु:ख मैंने महसूस किया है, वह शायद कोई और नहीं कर सकता है।"

आगे वह कहते हैं कि कुछ ही महीनों में इतने कोविड मृतकों का अंतिम संस्कार करने के बाद अब ऐसे लगता है जैसे अब मुझे पता ही नहीं है कि डर नाम की चीज क्या होती है!

कोरोना योद्धा शब्द सुनकर दुर्गेश हंसते हुए कहते हैं, "अरे साब, हमें तो यहां आज तक कोई एक फूल तक देने नहीं आया। मुझे नहीं पता कौन है कोरोना योद्धा? सुबह 7 से शुरू हुआ दिन कब खत्म होगा हमें तो इसका भी पता नहीं चलता।"

आखिर में जाते हुए दुर्गेश पीछे मुड़कर कहते हैं कि एक बात और, रात को जब मैं सोता हूं तो आजकल नींद में भी एंबुलेंस की सायरन की आवाज सुनाई देती है। लॉकडाउन के दिनों में दुकान वाला सामान देने से मना कर देता था !

30 साल के भोला पासवान श्मशान में ही एक छतरी के नीचे रहते हैं और कोविड मृतकों का अंतिम संस्कार पिछले 5 महीनों से कर रहे हैं।

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कोरोना को लेकर भोला बताते हैं, "हम मृतक के साथ ही हमारी पीपीई किट उसी आग में जला देते हैं क्योंकि मृतक के आने से लेकर अंतिम संस्कार तक यह डर लगा रहता है कि कहीं हमें यह बीमारी ना लग जाए।"

लॉकडाउन के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं, "लॉकडाउन में जब मैं आसपास किसी दुकान पर जाता था तो लोग कहते थे यह कोरोना मरीजों की लाश जलाता है, इससे कोरोना फैल सकता है और मुझे सामान देने से मना कर देते थे।" भोला कहते हैं कि कई बार तो उन्हें यह बात छिपानी पड़ती है कि वह लाश जलाते हैं।

आपको बता दें कि राजस्थान सरकार की ओर से जयपुर नगर निगम लावारिस और कोविड मृतकों का अंतिम संस्कार श्रीनाथ गौसेवा ट्रस्ट द्वारा आदर्श नगर श्मशान में किया जाता है, जिसमें सरकार की ओर से एक अंतिम संस्कार पर 5000 रूपये दिए जाते हैं। ट्रस्ट यह काम पिछले एक साल से कर रहा है।

वहीं बीते 8 सितंबर को राजस्थान सरकार की तरफ से चिकित्सा विभाग ने मानवीय संवेदनाओं को ध्यान में रखते हुए कोरोना मृतक के अंतिम संस्कार को लेकर नई गाइडलाइन जारी की थी जिसके बाद अब मृतक के अंतिम संस्कार के लिए शव उनके परिजनों को सौंपा जा सकता है।

राज्य सरकार की इस आदेश के बाद अब श्मशान और कब्रिस्तान में कोरोना मृतकों की संख्या पहले से कम हुई है।

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लॉकडाउन में कुछ काम नहीं मिला, तो मृतकों का अंतिम संस्कार करने लगा

आदर्श नगर श्मशान घाट में एक छतरी के नीचे अंतिम संस्कार करने वाले 34 साल के सलीम और 46 साल के सत्यनारायण खड़े हैं। लॉकडाउन के दौरान काम-धंधा चौपट होने के बाद गुजारा करने के लिए वे भी यह काम करने लगे हैं।

सलीम बताते हैं, "वह पहले बैटरी रिक्शा चलाते थे लेकिन लॉकडाउन के बाद बाजार सूना पड़ा था और कहीं काम था नहीं तो यहां श्मशान पर काम शुरू कर दिया और तब से गुजारा श्मशान भरोसे ही हो रहा है।"

जलती कोविड मरीज की चिता पास उसके परिजनों द्वारा दिए कपड़े छांटते हुए सत्यनारायण कहते हैं, "जब अमीर लोग इस बीमारी से नहीं बच रहे तो हम क्यों डरें और अगर इसका इलाज कभी मिलेगा भी हमें लगता है कि हम तो शायद ही करा पाएंगे।"

सत्यनारायण यहां आने से पहले शादियों में बर्तन धोने और कैटरिंग का काम करते थे लेकिन 5 महीनों से यहां कोविड मृतकों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं।

आगे वह जोड़ते हैं, "जब शादियां नहीं हो रही है तो हमारे ठेकेदार ने कहा अब इतने लोगों की जरूरत नहीं है। मैंने सुना कि यह काम करने से लोग कतरा रहे थे और इसमें पैसे भी मिल रहे थे तो पेट पालने के लिए मैंने यह काम शुरू कर दिया।"

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कब्रिस्तान में कोरोना मृतकों को मिट्टी देते साबिर और शाहिद

32 साल के साबिर कुरैशी और 38 साल के शाहिद खान शास्त्री नगर कब्रिस्तान में कोरोना मृतकों को दफनाने का काम शुरूआती दिनों से कर रहे हैं।

साबिर बताते हैं, "कोविड के कारण जब रोज सैकड़ों मौतें हो रही थी तो हमनें लाशों के साथ अमानवीय बर्ताव के कई वीडियो देखे थे। लेकिन हम दफनाने के दौरान नैतिकता के साथ सभी गाइडलाइन का पालन करते हैं।"

वहीं शाहिद बताते हैं कि कोरोना काल में उन्होंने ना सिर्फ मृतकों को दफनाया बल्कि जिंदगी और मौत दोनों को बेहद करीब से देखा है। बकौल शाहिद हम हर कब्र के पास परिवार जनों से एक पेड़ लगाने की भी गुजारिश करते हैं।

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