क्या आने वाली पीढ़ियाँ गोडावण को सिर्फ़ किताबों में देखेंगी?
Divendra Singh | Dec 26, 2025, 15:25 IST
थार रेगिस्तान का गोडावण आज विलुप्ति के कगार पर है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश, विशेषज्ञ समितियों की सिफ़ारिशें और ज़मीन पर संघर्ष- यह कहानी सिर्फ़ एक पक्षी की नहीं, बल्कि विकास और प्रकृति के बीच संतुलन की है।
राजस्थान के थार रेगिस्तान में सुबह का सूरज जब रेत के टीलों पर उतरता है, तो वह सिर्फ़ रोशनी नहीं फैलाता, वह स्मृतियाँ भी जगाता है। ये वही धरती है जहाँ कभी दूर क्षितिज पर एक विशाल, गंभीर और गरिमामय पक्षी दिख जाया करता था- गोडावण।
लंबी गर्दन, भारी शरीर और शांत चाल वाला यह पक्षी सदियों तक मरुस्थल की आत्मा रहा। ऊँटों के झुंड, चरवाहों की पदचाप और गोडावण की मौजूदगी, ये सब मिलकर थार की पहचान बनाते थे।
लेकिन आज वही थार, वही सूरज, वही रेत… और गोडावण लगभग ग़ायब।
आज अगर कहीं दिखता है तो वह भी कैमरा ट्रैप में, या फिर किसी संरक्षण रिपोर्ट के आँकड़ों में। खुले आकाश में उड़ता हुआ गोडावण अब एक दुर्लभ दृश्य है—इतना दुर्लभ कि उसे देख पाना सौभाग्य माना जाने लगा है।
जैसलमेर ज़िले के सांवता गाँव में रहने वाले सुमेर सिंह भाटी पेशे से ऊँटपालक हैं। लेकिन उनका जीवन सिर्फ़ पशुपालन तक सीमित नहीं है। थार के इस हिस्से में उन्हें लोग “चलता-फिरता वन रक्षक” भी कहते हैं।
जब भी किसी घायल हिरण, लोमड़ी या पक्षी की सूचना मिलती है, सुमेर सिंह सबसे पहले वहाँ पहुँचते हैं। कई बार वे अपने ऊँट पर घायल पक्षी को बैठाकर गाँव तक लाते हैं, फिर वन विभाग को सूचना देते हैं।
गोडावण उनके लिए सिर्फ़ एक पक्षी नहीं है। वह थार की आत्मा है।
सुमेर सिंह कहते हैं, “हमारे बुज़ुर्ग कहते थे कि अगर गोडावण दिख जाए तो समझो साल अच्छा जाएगा। बारिश भी होगी, चारा भी मिलेगा। आज हालत ये है कि बच्चे गोडावण को किताब में देखते हैं। हम नहीं चाहते कि ये पक्षी हमारे जीते-जी ख़त्म हो जाए। अदालतें आदेश दे रही हैं, काग़ज़ बन रहे हैं, लेकिन ज़मीन पर ये सब कब दिखेगा- यही डर है।”
उनकी चिंता सिर्फ़ भावनात्मक नहीं है, व्यावहारिक भी है। वे बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जिन क्षेत्रों को “प्रायोरिटी एरिया” कहा है, उनका स्पष्ट नक्शा गाँव वालों को अब तक नहीं दिया गया।
“अगर हमें साफ़-साफ़ बताया जाए कि कौन सा इलाका गोडावण के लिए सबसे ज़रूरी है, तो हम लोग खुद उसकी रखवाली करेंगे। यहाँ के लोग कभी इस पक्षी के दुश्मन नहीं रहे।”
गोडावण राजस्थान का राजकीय पक्षी है, लेकिन उसकी पहचान किसी सरकारी अधिसूचना से कहीं बड़ी है। वह लोकगीतों में है, कहावतों में है, और सबसे गहराई से—बिश्नोई समाज की आस्था में। बिश्नोई समुदाय के लिए प्रकृति की रक्षा धर्म है। पेड़ काटना पाप है, जीव-हत्या अक्षम्य अपराध।
इसी परंपरा को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में स्वीकार किया और माना कि गोडावण का संरक्षण केवल वन्यजीव नीति नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी है।
19 अप्रैल 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश दिया।
सरकार और ऊर्जा कंपनियों ने दलील दी कि सोलर और विंड प्रोजेक्ट रुक रहे हैं, और 2030 के जलवायु लक्ष्य खतरे में हैं।
2024 में सुप्रीम कोर्ट ने एक संतुलित रुख अपनाया। कोर्ट ने साफ़ कहा कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई और जैव-विविधता का संरक्षण, दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।
इसके बाद मामला एक विशेषज्ञ समिति को सौंपा गया।
इस समिति में शामिल थे:
राजस्थान
इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। वरिष्ठ वन्यजीव विशेषज्ञ सुमित डूकिया, जो पिछले कई वर्षों से गोडावण संरक्षण में लगे हैं, कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट के 2021 के आदेश में प्रायोरिटी और पोटेंशियल एरिया की दो कैटेगरी थीं। पोटेंशियल एरिया बहुत बड़ा था, जिसे पावर कंपनियों ने अव्यावहारिक बताना शुरू कर दिया। फिर मामला उलझता चला गया। अब 2024 में सारी कैटेगरी हटाकर ‘रिवाइज़्ड प्रायोरिटी एरिया’ बनाया गया है। काग़ज़ पर ये संतुलन लगता है, लेकिन असली परीक्षा ज़मीन पर होगी।”
वे आगे बताते हैं कि आबादी को लेकर भी भ्रम है, “ऑफिशियल आंकड़ा कोई नहीं है। मेरा व्यक्तिगत आकलन है कि जंगली गोडावण की संख्या 90–100 से ज़्यादा नहीं है। जो 60 से ज़्यादा पक्षी कैप्टिव ब्रीडिंग में हैं, उन्हें अलग से देखना होगा। अगर खुले मैदान नहीं बचे, तो छोड़े गए पक्षी भी नहीं बचेंगे।”
सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं
ओवरहेड बिजली लाइनें
गोडावण भारी शरीर के कारण ऊँची उड़ान नहीं भरता। उसकी आँखें किनारों पर होती हैं, सामने की पतली तारें दिखाई नहीं देतीं। टक्कर सीधी मौत बन जाती है।
धीमी प्रजनन दर
साल में सिर्फ़ एक अंडा। एक वयस्क की मौत मतलब कई वर्षों का नुकसान।
आवास का विनाश
घास के मैदान अब सोलर पार्क, विंड टर्बाइन और खनन में बदल रहे हैं।
आवारा कुत्ते और लोमड़ियाँ
अंडों और चूजों के लिए बड़ा खतरा।
अगर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश सख़्ती से लागू हों, अगर Power Corridor सिर्फ़ काग़ज़ पर न रहें, अगर गाँव वालों को साझेदार बनाया जाए, तो शायद थार की सुबहें फिर से गोडावण की छाया देख सकें।
सुमेर सिंह भाटी की आख़िरी बात बहुत सीधी है, “हम विकास के ख़िलाफ़ नहीं हैं। लेकिन अगर विकास में सब कुछ ही खत्म हो जाए, तो फिर बचता क्या है?”
लंबी गर्दन, भारी शरीर और शांत चाल वाला यह पक्षी सदियों तक मरुस्थल की आत्मा रहा। ऊँटों के झुंड, चरवाहों की पदचाप और गोडावण की मौजूदगी, ये सब मिलकर थार की पहचान बनाते थे।
लेकिन आज वही थार, वही सूरज, वही रेत… और गोडावण लगभग ग़ायब।
आज अगर कहीं दिखता है तो वह भी कैमरा ट्रैप में, या फिर किसी संरक्षण रिपोर्ट के आँकड़ों में। खुले आकाश में उड़ता हुआ गोडावण अब एक दुर्लभ दृश्य है—इतना दुर्लभ कि उसे देख पाना सौभाग्य माना जाने लगा है।
जैसलमेर ज़िले के सांवता गाँव में रहने वाले सुमेर सिंह भाटी पेशे से ऊँटपालक हैं। लेकिन उनका जीवन सिर्फ़ पशुपालन तक सीमित नहीं है। थार के इस हिस्से में उन्हें लोग “चलता-फिरता वन रक्षक” भी कहते हैं।
सुमेर सिंह और बाकी ग्रामीणों के प्रयासों से थार मरुस्थल में गोडावण का स्मृति स्थल भी बनाया गया है।
जब भी किसी घायल हिरण, लोमड़ी या पक्षी की सूचना मिलती है, सुमेर सिंह सबसे पहले वहाँ पहुँचते हैं। कई बार वे अपने ऊँट पर घायल पक्षी को बैठाकर गाँव तक लाते हैं, फिर वन विभाग को सूचना देते हैं।
गोडावण उनके लिए सिर्फ़ एक पक्षी नहीं है। वह थार की आत्मा है।
सुमेर सिंह कहते हैं, “हमारे बुज़ुर्ग कहते थे कि अगर गोडावण दिख जाए तो समझो साल अच्छा जाएगा। बारिश भी होगी, चारा भी मिलेगा। आज हालत ये है कि बच्चे गोडावण को किताब में देखते हैं। हम नहीं चाहते कि ये पक्षी हमारे जीते-जी ख़त्म हो जाए। अदालतें आदेश दे रही हैं, काग़ज़ बन रहे हैं, लेकिन ज़मीन पर ये सब कब दिखेगा- यही डर है।”
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात को भी स्वीकार किया कि गोडावण का संरक्षण सिर्फ़ प्रशासनिक नीति नहीं, बल्कि लोक परंपरा और नैतिक जिम्मेदारी का विषय है।
उनकी चिंता सिर्फ़ भावनात्मक नहीं है, व्यावहारिक भी है। वे बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जिन क्षेत्रों को “प्रायोरिटी एरिया” कहा है, उनका स्पष्ट नक्शा गाँव वालों को अब तक नहीं दिया गया।
“अगर हमें साफ़-साफ़ बताया जाए कि कौन सा इलाका गोडावण के लिए सबसे ज़रूरी है, तो हम लोग खुद उसकी रखवाली करेंगे। यहाँ के लोग कभी इस पक्षी के दुश्मन नहीं रहे।”
राज्य पक्षी नहीं, लोक स्मृति
इसी परंपरा को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में स्वीकार किया और माना कि गोडावण का संरक्षण केवल वन्यजीव नीति नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी है।
जब अदालत ने मरुस्थल की आवाज़ सुनी
- राजस्थान और गुजरात के गोडावण क्षेत्रों में
- नई ओवरहेड पावर लाइनों पर रोक
- मौजूदा लाइनों पर Bird Flight Diverters
- जहाँ संभव हो, बिजली की लाइनों को भूमिगत करने का निर्देश
सरकार और ऊर्जा कंपनियों ने दलील दी कि सोलर और विंड प्रोजेक्ट रुक रहे हैं, और 2030 के जलवायु लक्ष्य खतरे में हैं।
विकास की दौड़ इसी तरह चलती रही, तो गोडावण सिर्फ़ तस्वीरों, किताबों और लोककथाओं तक सीमित रह जाएगा।
2024: संतुलन की कोशिश
इसके बाद मामला एक विशेषज्ञ समिति को सौंपा गया।
इस समिति में शामिल थे:
- Wildlife Institute of India (WII)
- वरिष्ठ पक्षी विज्ञानी
- पावर ग्रिड और ऊर्जा विशेषज्ञ
- केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि
राजस्थान और गुजरात के लिए क्या तय हुआ
- 14,013 वर्ग किलोमीटर को Priority Conservation Area
- Priority Area में नई ओवरहेड लाइन पर पूरी रोक
- केवल तय Power Corridor से लाइनें
- 33 kV की 80 किमी लाइनों को तुरंत भूमिगत
- 66 kV और उससे ऊपर की लाइनों का पुनः डिज़ाइन या री-रूट
- 740 वर्ग किलोमीटर Priority Area
- नालिया ग्रासलैंड को संरक्षित क्षेत्र
- राजस्थान से फर्टाइल अंडों द्वारा आबादी बढ़ाने की योजना
- अलग-अलग Power Corridors
क्या इससे वाकई गोडावण बचेगा?
समिति ने राजस्थान में 14,013 वर्ग किलोमीटर को Priority Conservation Area घोषित करने की सिफ़ारिश की।
वे आगे बताते हैं कि आबादी को लेकर भी भ्रम है, “ऑफिशियल आंकड़ा कोई नहीं है। मेरा व्यक्तिगत आकलन है कि जंगली गोडावण की संख्या 90–100 से ज़्यादा नहीं है। जो 60 से ज़्यादा पक्षी कैप्टिव ब्रीडिंग में हैं, उन्हें अलग से देखना होगा। अगर खुले मैदान नहीं बचे, तो छोड़े गए पक्षी भी नहीं बचेंगे।”
गिरती संख्या की डरावनी कहानी
- 1969 में: 1260 गोडावण
- 2017 में: लगभग 150
- 2025 में: अनुमान 100 से भी कम
विलुप्ति के प्रमुख कारण
गोडावण भारी शरीर के कारण ऊँची उड़ान नहीं भरता। उसकी आँखें किनारों पर होती हैं, सामने की पतली तारें दिखाई नहीं देतीं। टक्कर सीधी मौत बन जाती है।
धीमी प्रजनन दर
साल में सिर्फ़ एक अंडा। एक वयस्क की मौत मतलब कई वर्षों का नुकसान।
आवास का विनाश
घास के मैदान अब सोलर पार्क, विंड टर्बाइन और खनन में बदल रहे हैं।
आवारा कुत्ते और लोमड़ियाँ
अंडों और चूजों के लिए बड़ा खतरा।
क्या अभी भी उम्मीद बाकी है?
सुमेर सिंह भाटी की आख़िरी बात बहुत सीधी है, “हम विकास के ख़िलाफ़ नहीं हैं। लेकिन अगर विकास में सब कुछ ही खत्म हो जाए, तो फिर बचता क्या है?”