अब भी क्यों टीबी से सबसे ज़्यादा जूझ रहा है आदिवासी समुदाय?

Gaon Connection | Nov 03, 2025, 16:47 IST
भारत में टीबी का सबसे बड़ा बोझ जनजातीय समुदायों पर है - जहाँ बीमारी का प्रचलन गैर-जनजातीय आबादी से 1.5 गुना ज़्यादा है। संवैधानिक सुरक्षा के बावजूद स्वास्थ्य असमानता गहराती जा रही है।
Burden on the burdened: tuberculosis among Scheduled Tribes and non-Scheduled Tribes in constitutionally protected Scheduled and non-Scheduled areas of India
भारत में टीबी यानी क्षय रोग अब भी एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट बना हुआ है। दुनिया के कुल टीबी मामलों में से लगभग एक-चौथाई भारत में हैं। लेकिन इस बीमारी का सबसे बड़ा बोझ देश की अनुसूचित जनजातियाँ (Scheduled Tribes - STs) उठा रही हैं, जो न केवल भौगोलिक रूप से कठिन इलाकों में रहती हैं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से भी पिछड़ी हैं। हाल के आंकड़े बताते हैं कि टीबी के खिलाफ देशभर में जो प्रगति हुई है, उसका लाभ इन समुदायों तक समान रूप से नहीं पहुँच पाया है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019–2021) के आँकड़ों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हुआ कि भारत में जनजातीय समुदायों में टीबी का प्रचलन 416 प्रति एक लाख की दर से है, जबकि गैर-जनजातीय आबादी में यह 277 प्रति एक लाख है। यानी, जनजातीय समुदायों में यह रोग लगभग 1.5 गुना अधिक पाया गया। दिलचस्प बात यह भी है कि जहाँ कुछ अनुसूचित क्षेत्रों में यह दर अपेक्षाकृत कम — लगभग 330 प्रति एक लाख — रही, वहीं गैर-अनुसूचित ज़िलों में जहाँ 60 प्रतिशत या उससे अधिक जनसंख्या जनजातीय है, वहाँ यह दर 608 प्रति एक लाख तक पहुँच गई।

इस शोध में देशभर के 20 लाख से अधिक वयस्कों के आँकड़ों का अध्ययन किया गया। अनुसूचित क्षेत्र (जहाँ संविधान की पाँचवीं या छठी अनुसूची लागू है) और गैर-अनुसूचित जिलों की तुलना में पाया गया कि संवैधानिक रूप से संरक्षित होने के बावजूद जनजातीय समुदाय अब भी टीबी के ख़तरे से सबसे अधिक प्रभावित हैं।

इस असमानता के कई कारण हैं। पहाड़ी या जंगलों में बसे जनजातीय इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएँ अब भी सीमित हैं। अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की दूरी इतनी ज़्यादा है कि समय पर जाँच और इलाज नहीं हो पाता। गरीबी और कुपोषण इन समुदायों को और अधिक संवेदनशील बना देते हैं। कई इलाकों में लोग आज भी पारंपरिक उपचार पद्धतियों पर निर्भर हैं और टीबी के लक्षणों को साधारण खाँसी या कमजोरी समझकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

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अध्ययन से यह भी पता चला कि जनजातीय पहचान स्वयं एक स्वतंत्र जोखिम कारक है। अन्य सामाजिक-आर्थिक कारकों को ध्यान में रखने के बाद भी अनुसूचित जनजातियों में टीबी की संभावना लगभग 1.5 गुना ज़्यादा पाई गई। पुरुषों, वृद्ध व्यक्तियों, धूम्रपान या शराब सेवन करने वालों, अस्वच्छ ईंधन इस्तेमाल करने वाले घरों और मधुमेह जैसी पुरानी बीमारियों से जूझ रहे लोगों में भी संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है।

मध्य प्रदेश का सहरिया समुदाय इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहाँ टीबी की दर 1500 प्रति एक लाख तक पहुँच गई है — यानी राष्ट्रीय औसत से कई गुना अधिक। छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों में भी जनजातीय इलाकों में बीमारी का बोझ लगातार बढ़ रहा है।

भारत सरकार ने इस असमानता को दूर करने के लिए कई कदम उठाए हैं। राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (NTEP) के तहत 2005 से ट्राइबल एक्शन प्लान लागू है, जिसका उद्देश्य जनजातीय क्षेत्रों में जागरूकता बढ़ाना और मरीजों को उपचार के लिए प्रोत्साहित करना है। सरकार ऐसे मरीजों को ₹750 की प्रोत्साहन राशि भी देती है ताकि वे नियमित दवा लें और इलाज बीच में न छोड़ें। फिर भी, ज़मीनी हकीकत यह है कि इन पहलों का प्रभाव सीमित है।

संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूचियाँ जनजातीय समुदायों को भूमि और संसाधनों पर अधिकार देती हैं, लेकिन स्वास्थ्य सुरक्षा के क्षेत्र में ये अधिकार अब भी अधूरे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, शिक्षा का निम्न स्तर और सामाजिक भेदभाव जैसे कारण इन समुदायों को पीछे धकेलते रहते हैं।

अध्ययन का निष्कर्ष साफ है — भारत में टीबी केवल एक स्वास्थ्य चुनौती नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का सवाल है। जब तक जनजातीय और हाशिए पर बसे समुदायों को इस लड़ाई के केंद्र में नहीं रखा जाएगा, तब तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य अधूरा रहेगा। संवैधानिक सुरक्षा तभी सार्थक होगी जब वह ज़मीनी स्तर पर स्वास्थ्य समानता में बदले।

टीबी की इस जंग में भारत ने काफी दूरी तय की है, लेकिन मंज़िल अब भी दूर है। जो लोग सबसे अधिक बोझ उठा रहे हैं, उन्हें सबसे पहले राहत मिलनी चाहिए — तभी यह स्वस्थ भारत बन पाएगा।

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