किसान आंदोलन के 6 महीने पार्ट-2 : सुप्रीम कोर्ट की कमेटी बनी, संसद के 2 सत्र बीते, चुनावों में दिखा असर
Arvind Kumar Singh | May 26, 2021, 08:47 IST
किसान आंदोलन के 6 महीने पूरे होने पर देश वरिष्ठ पत्रकार, ग्रामीण और संसदीय मामलों के जानकार अरविंद कुमार सिंह का लेख... 2 भाग के लेख का ये दूसरा भाग है
लेख का पहला भाग- छह महीने में किसान शक्ति ने काफी कुछ दांव पर लगाकर ये इतिहास रचा है
संसद के बजट सत्र के पहले हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि 22-23 जनवरी को कृषि मंत्री नरेद्र सिंह तोमर ने जो ऑफर किया था, 'हम डिस्क शन के लिए तैयार हैं। अगर आप डिस्कोशन को तैयार हैं तो मैं एक फोन कॉल पर उपलब्ध हूं।
दरअसल 22 जनवरी को ऐसा लगने लगा था कि सरकार अब मांगों को स्वीकार कर लेगी और किसान घर लौट जाएंगे। सरकार ने 18 महीनों तक इन कानूनों पर रोक लगाने का प्रस्ताव दिया था लेकिन किसान संगठनों ने आपस में विचार कर तय किया कि अगर बाद में कानून यथावत रहा तो ऐसा आंदोलन फिर खड़ा करना कठिन होगा, इस नाते इसे माना नहीं। वे तीनों केंद्रीय कृषि कानूनों को पूरी तरह रद्द करने और सभी किसानों के लिए सभी फसलों पर लाभदायक एमएसपी के लिए कानून बनाने की अपनी मांग पर कायम रहे।
लेकिन अगर वार्ताओं को देखें तो 14 अक्टूबर की पहली बैठक में सरकार की ओर से केवल कृषि सचिव मौजूद थे। इस नाते किसानों ने चर्चा से इंकार कर दिया। 13 नवंबर से कृषि मंत्री के साथ बैठकों का दौर चालू हुआ। 8 जनवरी 2021 की बैठक में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने साफ कर दिया गया कि सरकार कानून रद्द करने पर तैयार नहीं है और वह इनमें संशोधन पर ही बातचीत करना चाहती है। किसानों को उनकी सलाह थी कि वे सुप्रीम कोर्ट जायें लेकिन किसान संगठनों ने इसे ठुकरा दिया।
22 जनवरी की आखिरी बैठक में किसानों ने समझ लिया कि सरकारी रणनीतियों थकाने, प्रताड़ित कतने औऱ बदनाम करने की है। सरकार को भी लगा था कि थक हार कर किसान लौट जाएंगे। इस कारण 11वें दौर की वार्ता के बाद किसान संगठनों की मांग के बावजूद वार्ता नहीं की गयी।
आंदोलन जारी रखने को अपनाए कई तरीके
नववर्ष को किसानों ने स्थानीय नागरिकों के साथ एक अलग अंदाज में मनाया। 18 जनवरी को महिला किसान दिवस मना तो 23 जनवरी को सुभाष चंद्र बोस जयंती मनायी गयी। बीच बीच में जिला स्तरीय धरना, रैलियों आदि के साथ जनजागरण अभियान भी चलता रहा। किसानों ने 14 फरवरी को पुलवामा हमले में शहीद जवानों के बलिदान को याद करते हुए देशभर में कैंडल मार्च व मशाल जुलूस व अन्य कार्यक्रम करने और 16 फरवरी को किसान मसीहा सर छोटूराम की जयंती मनायी।
8 फरवरी को दोपहर 12 से शाम 4 बजे तक देशभर में रेल रोको कार्यक्रम था। इस दौरान किसानों ने रेल यात्रियों को पानी, दूध और चाय भी पिलाया और अपने आंदोलन के बारे में बताया।
किसानों ने उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान समेत कई प्रांतों में महापंचायतें करके किसानों को अपने आंदोलन के साथ जोड़ा। वहीं गुजरात, कर्नाटक, पश्चिमी बंगाल और यहां तक कि केरल जैसे सुदूर दक्षिणी राज्यों से भी किसान आंदोलन के साथ जुड़े।
पश्चिम बंगाल में भी काफी बड़ी पंचायतें हुईं जिसमें किसानों ने काफी समर्थन दिया। इस तरह यह आंदोलन तमाम इलाकों में गांव गिरांव तक पसर गया।
इस आंदोलन के लिए खाने का सामान, पानी व अन्य सामानों को तमाम गांवों की पंचायतें भिजवा रही हैं। खाप पंचायतों ने रसद पहुंचाने के साथ लंगर भी चलाया और गुरुद्वारों ने तो आरंभ से ही मोर्चा संभाला था। आंदोलन से स्थानीय लोगों को जोड़ने के लिए गाजीपुर के आसपास की कॉलोनियों में रहने वाले गरीब बच्चों के लिए सावित्रीबाई फूले के नाम से एक अस्थाई पाठशाला भी खुल गयी। युवा किसान औऱ पूर्व सैनिक भी किसानों के साथ बड़ी संख्या में शामिल हुए। वहीं किसानों पर हुए मुकदमे की पैरवी करने के लिए अधिवक्ताओं का एक पैनल भी बना है।
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विदेश तक आंदोलन की गूंज
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टुडो ने किसानों से संबंधित मुद्दों पर टिप्पणी की। उनके बयान पर ओटावा औऱ नयी दिल्ली में कनाडा के अधिकारियों के साथ भारत ने विरोध जताया और कहा कि इससे भारत औऱ कनाडा के संबंधों को नुकसान पहुंचेगा।
मीना हैरिस ने भी भारत में किसानों पर हमलों के खिलाफ बोला। अमेरिकी सिंगर रिहाना और क्लाइमेट चेंज एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग ने किसान आंदोलन को लेकर ट्वीट किया। भारतीय विदेश मंत्रालय ने इसे बाहरी दखलंदाजी कह कर मामले को मोड़ने का प्रयास किया। इसके विरोध में कंगना ने ट्वीट कर आंदोलनकारी किसानों की तुलना आतंकियों से कर दी तो मामला और गरमा गया।
सरकार ने फिर कई सितारों की मदद से ट्विटर पर बयान जारी कराया विदेश मंत्रालय के स्टैंड का समर्थन किया। लेकिन इसके बावजूद इस आंदोलन को दुनिया के तमाम कोनों से समर्थन मिल रहा है।
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सुप्रीम कोर्ट और किसान आंदोलन
किसान सुप्रीम कोर्ट नहीं गए लेकिन किसान आंदोलन के बीच सुप्रीम कोर्ट भी आया। किसान आंदोलन को लेकर उसने सरकार को फटकार लगाई और कानूनों के अमल पर रोक लगा दी। इसके आदेश पर 12 जनवरी 2021 को नियुक्ति समिति ने 19 जनवरी को पहली और बाद में जो बैठक की उसमें डॉ. अशोक गुलाटी, शेतकरी संघटना के नेता अनिल घणावत और डॉ. प्रमोद जोशी शामिल हुए। लेकिन किसान संगठनों ने इसमें शिरकत करने से इंकार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने चार सदस्यीय समिति बनायी थी। लेकिन किसान नेता भूपिंदर सिंह मान ने सुप्रीम कोर्ट की समिति से खुद को अलग कर लिया। इसका भी मानसिक दबाव सिस्टम पर पड़ा।
जिन मांगों को लेकर किसान आंदोलन चला उसके मुददों का समाधान निकालने में सरकार ने अपेक्षित गंभीरता नहीं दिखायी। सुप्रीम कोर्ट ने जब इसे संज्ञान में लिया तो सरकारी कदमों में थोड़ी गति आयी। छठे दौर की बातचीत में सरकार ने जहां वायु गुणवत्ता प्रबंधन अध्यादेश, 2020 और विद्युत संशोधन विधेयक, 2020 की वापसी की मांग को मान लिया वहीं एमएसपी पर कृषि उपज की खरीद और मंडी प्रणाली जारी रहने का आश्वासन भी सरकार को देना पड़ा। लेकिन अभी इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट अपने द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्ट के तहत क्या फैसला लेता है, यह फैसला अभी आऩा है।
किसान आंदोलन और संसद
राज्यसभा में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भरोसा दिया कि एपीएमसी खत्म नहीं होगी। खुद 8 फरवरी 2021 को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव में राज्य सभा में नरेंद्र मोदी ने किसान आंदोलन पर काफी कुछ कहा। वे प्रकारांतर से कह गए कि यह बड़े किसानों का आंदोलन है जबकि हमारी नीतियां छोटे किसानों पर केंद्रित हैं। हमारी चिंता एक दो एकड़ जमीन वाले किसान हैं जिसके पास बैंक का खाता भी नहीं है ना वो कर्ज लेता है न कर्जमाफी का फायदा उसको मिलता है।
आम बजट किसान असंतोष को दूर करने का बेहतरीन मौका था, लेकिन मोदी सरकार इसमें भी सफल नहीं हो सकी। फिर भी बजट सत्र किसान असंतोष के साथ खेती की उपेक्षा पर केंद्रित रहा।
खेती के उपयोग में आने वाली वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ने और श्रम लागत, बीज, उर्वरक, कीटनाशकों, रसायनों से लेकर पेट्रोल और डीजल तक की महंगाई का मुद्दा उठा।
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एमएसपीगारंटी कानून बनाने में दिक्कत क्या है
किसानों ने अपने श्रम से भारत को चीन के बाद सबसे बडा फल औऱ सब्जी उत्पादक बना दिया है। चीन और अमेरिका के बाद भारत ही सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश है। लेकिन तीन कृषि कानूनों के बाद अगर एमएसपी की गारंटी बिना किसानों को बाजार में खड़ा कर दिया गया तो बड़े कारोबारी किसानों और उपभोक्ताओं की क्या दशा करेंगे, यह बात अब सबकी समझ में आ चुकी है।
किसान संगठन इसी कारण एमएसपी पर खरीद की गारंटी का जो नया कानून चाहते है उसकी गूंज कश्मीर से कन्याकुमारी तक पहुंच गयी है। जिन वस्तुओं को किसान खरीदता है उस पर एमआरपी तो उसके उत्पादों पर एमएसपी भी क्यों स्वीकार्य नहीं।
एमएसपी पर सरकारी खरीद का आकलन अगर साढे 14 करोड़ किसानों की भूजोतों के लिहाज से किया जाये तो पता चलता है कि सरकारी एकाधिकार के दौर में भी एमएसपी पर खरीद चंद राज्यों और दो फसलों तक सीमित है। लेकिन अगर निजी क्षेत्र को भी खरीद का लाइसेंस देने के बाद किसान कहां खड़ा होगा इसका उनको अंदाज है इसी नाते एमएसपी पर खरीद की वैधानिक गारंटी की मांग लोकप्रिय हुई है।
खुद 29 जनवरी 2021 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने अभिभाषण में 10 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों पर अपने भाषण का फोकस रखा और किसानों की आमदनी दोगुनी होने की बात की। लेकिन बिना खरीद पर गारंटी दिए यह संभव है क्या।
किसान संगठन औऱ कई राजनीतिक दल भी तीनों क़ानूनों को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीद की गारंटी का कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। किसान आज साठ के दशक वाले नहीं है। उनको अपने हित के कानूनों की समझ भी है और गैर हितैषी कानूनों की भी। वे चाहते हैं कि एमएसपी से कम दाम पर खरीदने को दंडनीय अपराध घोषित करने वाला कानून बनाया जाए। इस आंदोलन के पहले राज्य सभा में उत्तर प्रदेश से सांसद और भाजपा किसान मोरचा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष विजयपाल सिंह तोमर ने अपने गैर सरकारी संकल्प पर 2019 में यह मांग की थी कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि फसलों को एमएसपी से कम कीमत पर खरीदा या बेचा न जाये। इसका उल्लंघन करने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाए।
किसान आंदोलन से राजनीतिक लाभ हानि
पंजाब के नगर निकायों के चुनाव से लेकर उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों में भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा। राष्ट्रीय लोकदल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक नयी शक्ति के रूप में उभरा है। हरियाणा, पंजाब औऱ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को अपनी राजनीतिक गतिविधियां ग्रामीण इलाकों में करना कठिन हो रहा है। उऩके नेता गांवों में जाने से कतरा रहे हैं।
भाकियू की मुजफ्फरनगर में 29 जनवरी को हुई विशाल किसान पंचायत के बाद राष्ट्रीय लोक दल ने किसान पंचायत बुलाने का सिलसिला शुरू किया औऱ तमाम विशाल पंचायतें कर आंदोलन को सहयोग दिया। अरसे बाद इस आंदोलन ने जाटों और विभिन्न तबकों के साथ मुसलमानों को भी एक मंच पर ला खड़ा किया है।
2013 के दंगों के बाद यह ताकत बिखरी थी। पिछले करीब डेढ़ दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा का जो असर तेजी से बढ़ा था उस पर असर साफ दिख रहा है। सहारनपुर से लेकर शाहजहांपुर तक की करीब 100 विधान सभा सीटों पर इस आंदोलन का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा रहा है। जबकि तराई के जिलों में सिख किसान इस आंदोलन का मजबूत हिस्सा बने हुए है।
अगर इस आंदोलन के राष्ट्रीय नहीं क्षेत्रीय स्वरुप को देखें तो पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजनीति का आधार किसान हैं। इस कारण अधिकतर दल कृषि कानूनों के खिलाफ एकजुट हैं। हरियाणा में बरोदा उपचुनाव में कृषि कानूनों का मुद्दा मुखरता से उठा था और यह सीट भाजपा को हारनी पड़ी।
भाजपा की सहयोगी जजपा का किसान आधार भी आंदोलन ने डगमगा दिया है और उसके तमाम नेता इस किसान आंदोलन के साथ हैं।
नोट- अरविंद कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार, ग्रामीण और संसदीय मामलों के जानकार है। ये उनके निजी विचार हैं।