इंसान मंगल पर, अमंगल धरती पर

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इंसान मंगल पर, अमंगल धरती परपानी भी हो रहा ब्रांडेड।

शनिवार अहमदाबाद के एक प्रचलित मल्टीप्लेक्स जाना हुआ। प्यास लगने पर पानी के लिए मेरी नज़रें इधर-उधर भटक रही थीं, यहां आमजनों के लिए पेयजल की कोई व्यवस्था नहीं थी और मजबूरन बोतलबंद पानी लेना पड़ा। बिल हाथ में आने पर मेरे होश उड़ गए। आधा लीटर पानी की बोतल 50 रुपए में? काउंटर पर मैंने कोई और दूसरा सस्ता ब्रांड का पानी मांगना चाहा, वो उपलब्ध नहीं था। यानी आप इस तरह की जगहों पर पानी के लिए तड़प रहे हों तो बेतहाशा कीमत चुकाकर पानी खरीदना होगा? या कहीं बोतलबंद पानी भी ब्रांड्स और स्टेटस सिंबल की चपेट में आ गया है?

मुझे एक पल यूं लगा कि मैं किसी रेगिस्तान में आ चुका हूं जो पानी के लिए त्राहि-त्राहि वाला इलाका होता है। पानी की बोतल पर हिमालय और इसकी तराई से पानी एकत्र करके 100 रुपए लीटर में बेचने की ये बात बकवास है। कहां वो दौर था जब नब्बे के दशक में नल, कुंए, हैण्डपम्प और बोरवेल का पानी लगभग सभी लोग निसंकोच पी लिया करते थे, होटल और ढाबों पर बोतलबंद पानी दिखता नहीं था। मैं 1997 में पहली बार दिल्ली गया था और चांदनी चौक पर सड़क किनारे बिकता पानी देखकर आंखें फटी की फटी रह गई थीं, दरअसल ये मेरे लिए शहरी माया का पहला अहसास और अनुभव था। पानी को बिकता देखना मुझ जैसे गाँव के लड़के के लिए बिल्कुल चौंकाने वाली बात थी। वास्तव में यह वही दौर था जब बड़े सुनियोजित तरीकों से बोतलबंद पानी के रूप में बाज़ारीकरण का एक तगड़ा तामझाम मैदान में उतरा और उसे ‘मिनरल वॉटर’ के नाम से जाना गया।

क्या हुआ जो अचानक मिनरल वाॅटर के नाम पर इतना हो-हल्ला होने लगा? अचानक से पीलिया, हिपेटाइटिस और पेयजल जन्य रोगों की चर्चाओं पर जोर पकड़ना शुरू हो गया। एक ज़माना था जब साफ़-सुथरी जगह और साफ़ सुथरे बर्तनों या घड़े में रखा पानी हम बगैर सोचे पी लिया करते थे। रेस्टॉरेंट या किसी ढाबे पर भोजन करने से पहले मिनरल वाॅटर की मांग नहीं करते थे, फिर अचानक हम अपनी सेहत को लेकर इतने ज्यादा गंभीर और भयभीत हो गए कि ज्यादा प्यास लगने और मिनरल वाॅटर न मिलने पर प्यासा ही रहना पसंद करने लगे, बाहर के पानी को छूने में भी भय होने लगा।

उस दौर में ऐसा क्या हुआ जो अचानक मिनरल वॉटर के नाम पर इतना हो-हल्ला होने लगा? अचानक से पीलिया, हिपेटाइटिस और पेयजल जन्य रोगों की चर्चाओं पर जोर पकड़ना शुरू हो गया। एक ज़माना था जब साफ़-सुथरी जगह और साफ़ सुथरे बर्तनों या घड़े में रखा पानी हम बगैर सोचे पी लिया करते थे। रेस्टॉरेंट या किसी ढाबे पर भोजन करने से पहले मिनरल वॉटर की मांग नहीं करते थे, फिर अचानक हम अपनी सेहत को लेकर इतने ज्यादा गंभीर और भयभीत हो गए कि ज्यादा प्यास लगने और मिनरल वॉटर न मिलने पर प्यासा ही रहना पसंद करने लगे, बाहर के पानी को छूने में भी भय होने लगा। मेरा दावा है कि वर्तमान दौर में जितने भी युवा और बुजुर्ग हैं इन्होंने 15 साल पहले तक मिनरल वॉटर को छुआ तक नहीं होगा और ऐसे में एक सवाल उठना बेहद लाज़मी है कि 15 साल पहले कितने लोग हेपेटाइटिस या पीलिया के शिकार हुए, या कितने लोग आए दिन दस्त और हैजे से ग्रस्त रहे?

कहीं किसी जानकार के पास आंकड़े हैं, जिसमें ये जानकारी मिले की 90 के दशक के 15 साल पहले और 15 साल बाद पेयजल की वजह से कुल कितनी मौतें हुई? तय है, आंकड़ें यदि मिल जाएं तो मेरी बात का मतलब सबको समझ आ जाएगा, कई लोग आंकड़ों के इंतज़ार किए बगैर भी मैं क्या कहना चाह रहा, अर्थ समझ लेंगे। अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर पीने के पानी को लेकर भय की शुरुआत कहां से हुई और क्यों हुई? क्यों अचानक हम शहरी भारतीय अपनी सेहत को लेकर अति से ज्यादा फिक्रमंद होते चले गए? क्या वाकई मिनरल वॉटर आपकी सेहत को बेहतर करने में मददगार साबित हुए या इनकी गुणवत्ता पर जिम्मेदारी के साथ भरोसा किया जा सकता है? मुझे नहीं लगता कि हमें ज्यादा भरोसा करना चाहिए।

अब जब मिनरल और बोतलबंद पानी पर बात हो ही रही है तो ‘एक्वाफिना’ का भी जिक्र किया जाए। ‘एक्वाफिना’ पेप्सिको कंपनी द्वारा तैयार किए जाने वाले बोतलबंद पानी का एक ब्रांड है। यूएसए टुडे (USA Today) में 2007 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पहली बार बताया गया था कि पेप्सिको को अपने ब्रांड ‘एक्वाफिना’ के लेबल पर लिखे दावे जैसे ‘प्राकृतिक स्रोत का पानी’ को बदलना होगा। अपने उत्पाद को दूसरे से बेहतर बताने की प्रतिस्पर्स्धा के चलते उत्पादों के लेबल पर भ्रामक शब्दों का इस्तेमाल कर उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करना आम बात है। ‘कॉर्पोरेट अकाउंटेबलिटी इंटरनेशनल’ नामक संस्थान के भारी विरोध पर पेप्सिको को अपने उत्पाद के लेबल पर साफ लिखना पड़ा कि ‘एक्वाफिना’ का पानी साधारण नल से भरा गया है ना कि इसे किसी प्राकृतिक स्रोत से लिया।

भारी विरोध और जांच के बाद पेप्सिको ने निर्णय़ लिया कि लेबल पर पीडब्ल्यूएस (Public Water Source) लिखा जाएगा। लोगों का विरोध कोका-कोला के दासानी ब्रांड वाले मिनरल वॉटर पर भी देखने को मिला। चूंकि व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा में इन बड़ी कंपनियों को बना रहना था इसलिए फिर ग्राहकों को अलग तरह से अपने ब्रांड्स की ओर लुभाया गया। किसी ने रिवर्स ओस्मोसिस की बात की, तो किसी ब्रांड ने 3000 फीसदी ज्यादा ऑक्सीजन का दावा किया और किसी अन्य ब्रांड ने माइक्रोन्युट्रिएंट्स से भरपूर मिनरल वॉटर की बात कर बाज़ार में अपनी पैठ बनानी शुरू करी तो किसी ने हिमालय के पानी की बात करके और स्थानीय बाज़ार के हिसाब से छोटे प्लेयर्स (छोटे व्यवसायी) भी मैदान में कूद गए।

बोतलबंद पानी के अलावा प्लास्टिक के छोटे पाउच में भी इसका धंधा होने लगा। इस तरह के पाउच का कोई माई-बाप नहीं, कोई मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपायरी नहीं फिर भी डरे सहमे लोग इसका उपभोग करते हैं। अब तो हालात ये हैं कि 15 रुपए से लेकर 100 रुपए प्रति लीटर का बोतल बंद पानीबाज़ार में बिक रहा है और इसका उपभोक्ता भी हमेशा खुशी से इसे पी रहा। ये तो खुद उपभोक्ता खुद जाने कि उसे कौन-कौन से मिनरल्स मिल रहे, और वो हिपेटाइटिस या पीलिया से कितना सुरक्षित हैं। हम मंगल ग्रह पर चले गए लेकिन पृथ्वी पर सबको साफ पानी नहीं पिला पा रहे, सारा अमंगल इधर हीहो रहा। भगवान ही जानें, हो क्या रहा..।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

                           

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