पत्रकार और पत्रवाहक की भूमिका एक जैसी है, एक नहीं

Dr SB Misra | Jan 29, 2017, 14:37 IST
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देश और समाज के संचालन में चार स्तम्भ यानी विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता की भूमिकाएं निर्धारित तो हैं लेकिन व्यवहार में एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण होता दिखता है। ऐसी हालत में टकराव की स्थिति आती है और शक्ति सन्तुलन बिगड़ने लगता है।

विधायिका में किनका वर्चस्व है यह महत्वपूर्ण है। आजादी के पहले राजनीति में केवल संघर्ष था और इसमें पत्रकारों का वर्चस्व था। आजादी के बाद राजनीति लाभकर हो गई और इस में वकीलों, अध्यापकों और धनकुबेरों का बोलबाला रहा। अब स्वार्थी बाहुबलियों का वर्चस्व है।

विधायकों और सांसदों की कोई योग्यता निर्धारित नहीं होती, वे विधान कैसे बनाएंगे। पहले सोच थी कि राजनीति भद्र पुरुषों का काम है लेकिन संविधान के अनुसार कोई भी पढ़ा लिखा या अनपढ़ राजनीति कर सकता है। ऐसे निरक्षर नेताओं के बनाए विधान की समीक्षा जब न्यायपालिका करेगी तो खामियां पाएगी और टकराव होगा। दोषपूर्ण कानूनों को लागू करने का काम कार्यपालिका ने किया और अपने ढंग से व्याख्या की। एक समय आया जब आम आदमी कहने लगा कि नेता भ्रष्ट हैं, बाबू रिश्वतखोर हैं, न्याय बिकता है।

अनेक साहसी पत्रकारों ने हालात को उजागर करने का प्रयास किया, जोखिम उठाया और जान तक गंवाईं। बहुत से पत्रकारों पर भी इल्जाम लगने लगे कि वे ब्लैकमेलिंग करते हैं। जब पत्रकारों के पास वीडियोग्रॉफी जैसा सशक्त टूल आ गया तो पत्रकारों को लगा कि वे दोषी को सरे बाजार नंगा कर सकते हैं। यह प्रामाणिक पत्रकारिता के बजाय तहलका मचाने का टूल बन गया। टीवी पत्रकारों ने सोचा हम मीडिया ट्रायल करके समाज का भला कर देंगे और खोजी पत्रकारिता अपनी सीमाएं पार करने लगी। मीडिया में निरर्थक बहस और लच्छेदार विज्ञापनों के कारण समाचारों के लिए समय कम बचता है और 10 मिनट में कभी 100 तो कभी अधिक समाचार बांचे जाते हैं।

सोच भी नहीं सकते थे कि बड़े बड़े न्यायाधीश यौन शोषण और रिश्वत के जाल में फसेंगे या फिर राजनेता दलाली करते पकड़े जाएंगे। यह काम पत्रकारों ने बखूबी किया है। घोटालों के समाचार इतने आकर्षक हो गए कि रचनात्मक समाचारों की ओर से ध्यान हट सा गया। राजनेताओं और राजनैतिक पार्टियों ने अपने अखबार और अपने समाचार चैनल आरम्भ कर दिए हैं जिनसे निष्पक्ष रिपोर्टिंग की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

हमारे पत्रकार बन्धु गाँवों की घूल छानने क्यों जाएं जब शहर में बैठ कर तहलका और सनसनी द्वारा सत्य, अर्धसत्य और असत्य को समाचार की श्रेणी में डाला जा सकता है। पश्चिमी देशों की तर्ज पर हमें पत्रकारिता नहीं करनी चाहिए क्योंकि 70 प्रतिशत भारत आज भी गाँवों में रहता है जो संचार माध्यमों से पूरी तरह जुड़ा नहीं है। अनेक बार सर्वेक्षण और ओपीनियन पोल गलत निकलते हैं जब वे डिजिटल विधा पर निर्भर होते हैं और घर बैठे निष्कर्ष निकालते हैं। यदि हमारे समाज में महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, अटल बिहारी वाजपेयी, राम नाथ गोएनका को आदर्श मानकर चलने वाले पत्रकार होंगे तो वे कह सकेंगे यह माल बिकाऊ नहीं है।

आज हालात यह हैं कि विधायिका कुछ परिवारों तक सिमट गई है, न्यायपालिका में जजों की कुर्सियां खाली पड़ी हैं, बाबू दफ्तरों में बैठकर सुविधा शुल्क वसूलते हैं और पत्रकार जोखिम उठा कर शहरों से बाहर जाने के इच्छुक नहीं। ईमानदार, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के लिए ऐसे लोग चाहिए जो एक कौड़ी से दो कौड़ी बनाने की जल्दी में न हों लेकिन ऐसे लोगों के पास पैसा नहीं जो निष्पक्ष तंत्र खड़ा कर सकें। हो सकता है पत्रकारिता को व्यापार मानकर चलने वालों को कभी सद्बुद्धि आ जाए।

sbmisra@gaonconnection.com

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