वोट के समय पार्टियों की अपेक्षा प्रत्याशियों को तरजीह दें

Dr SB MisraDr SB Misra   20 Dec 2016 8:36 PM GMT

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वोट के समय पार्टियों की अपेक्षा प्रत्याशियों को तरजीह देंफोटो साभार: इंटरनेट

उत्तर प्रदेश में चुनाव का बिगुल बज चुका है और सभी दलों ने सभाएं, यात्राएं और सम्पर्क अभियान आरम्भ कर दिया है। ऐसे माहौल में चौधरी चरन सिंह का कहना रहता था पार्टियां आदमियों से बनती हैं इसलिए प्रधानता कार्यकर्ता और नेता की है पार्टी बाद में आती है। टिकट मांगने वाले प्रत्याशियों से उनके दो सवाल रहते थे पहला ‘बात का सच्चा है?’ यदि उत्तर हां में मिला तो उनका दूसरा सवाल होता था, ‘लंगोट का पक्का है?’ इन दो सवालों के उत्तर से सन्तुष्ट हो जाने के बाद ही आगे विचार करते थे। आजकल के टिकट बांटने वालों का पहला सवाल होता है खर्चा कितना करोगे।

चौधरी चरन सिंह की बात का महत्व इसलिए था कि उनके चरित्र और ईमानदारी पर कभी उंगली नहीं उठी और सिद्धान्तों से समझौता कम ही किया। जवाहर लाल नेहरू के सहकारिता आन्दोलन से वह सहमत नहीं थे और उन्होंने अपने विचार ‘कोऑपरेटिव फार्मिंग एक्स रेड’ में लिखे थे। आन्दोलन सचमुच फेल हो गया। उन्होंने ‘भारतीय क्रान्ति दल’ और बाद में ‘भारतीय लोकदल’ नाम से पार्टियां बनाई जो उनके व्यक्तित्व के ही कारण चलीं। वास्तव में इन्दिरा कांग्रेस हो या जगजीवन राम की कांग्रेस फॉर डिमॉक्रेसी अथवा वीपी सिंह की जनता दल पार्टी सभी व्यक्तियों के नाम से ही जानी जाती रही हैं।

समय के साथ चौधरी साहब का पहला सवाल गौड़ हो गया और प्रत्याशी बात के सच्चे नहीं रहे तो आया राम, गया राम का जमाना आ गया। नेताओं को चाहिए थे वफ़ादार कार्यकर्ता तो परिवार से अधिक वफ़ादार कौन होगा ऐसा सोच कर परिवार पर निर्भरता बढ़ने लगी। उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में देखने को मिला है कि परिवार की प्रतिबद्धता भी शंकारहित नहीं है। अब फिर से व्यक्तियों की प्रधानता हो रही है। भारतीय जनता पार्टी जो सामूहिक निर्णय की बात करती है उसमें विमुद्रीकरण यानी नोटबन्दी का फैसला एक व्यक्ति में केिन्द्रत हो गया।

चौधरी साहब का दूसरा सवाल भी आज के पार्टी प्रमुख भूल गए हैं इसीलिए कुछ एमपी और एमएलए डांस बार तक चलाते हैं और स्टेज पर बार बालाओं के साथ नाचते हैं। कितने ही लोग यौन उत्पीड़न में लिप्त पाए जाते हैं। प्रत्याशियों का आचरण भरोसे का नहीं रहा फिर चाहे सैद्धान्तिक प्रतिबद्धता हो, नैतिक व्यवहार हो, बाहुबल का प्रयोग हो या पैसे की ईमानदारी। इसलिए जिस पैमाने पर पार्टी प्रमुखों द्वारा प्रत्याशियों को परखना है उसी पैमाने पर वोटर द्वारा प्रत्याशियों को भी जांचना चाहिए।

हमारे वोटर के साथ कठिनाई है वह स्वार्थ सिद्धि के मोह में जाति और धर्म से भी प्रभावित होता है लेकिन जिस तरह पार्टी प्रमुखों को परिवार से झटका लगा है उसी प्रकार जाति और धर्म भी भरोसे के नहीं हैं। देश और समाज की भलाई इसी में होगी कि जाति, धर्म, क्षेत्र और पार्टी से अधिक प्रत्याशी को भरोसेमन्द समझा जाए। जो लोग दोबारा चुनाव लड़ रहे होंगे उनकी कर्म कुंडली मतदाता को पता है लेकिन जो पहली बार मैदान में हैं उनकी जानकारी कम होगी। जो भी हो चौधरी चरन सिंह का पैमाना टिकट देते समय तो चलना ही चाहिए लेकिन वोट देते समय जरूर चलना चाहिए।

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