कन्विक्शन में विलम्ब से, राजनीति का अपराधीकरण

Dr SB MisraDr SB Misra   28 Dec 2016 9:00 PM GMT

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कन्विक्शन में विलम्ब से, राजनीति का अपराधीकरणसाभार: इंटरनेट

आपने एक नेता को टिकट प्रकरण पर खुले आम मुख्यमंत्री को चुनौती देते हुए टीवी पर देखा होगा। वह अकेले नेता नहीं जिन पर दर्जनों मुकदमें चल रहे हैं मर्डर, फिरौती, दंगा भड़काने जैसे मामलों के फिर भी वे चुनाव लड़ते और जीतते हैं, देश और प्रदेश चलाते हैं और कानून बनाते हैं। क्या सरकार, चुनाव आयोग और अदालतें मिल कर कोई उपाय नहीं खोज सकते कि ऐसे अराजक तत्व राजनीति से बाहर हो जाएं जैसे पुराने समय में हुआ करता था।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को कुछ समय पहले सुझाव दिया था कि दागी राजनेताओं को मंत्री ना बनाया जाए। यह सराहनीय सलाह थी लेकिन इसमें अनेक कठिनाइयां हैं। हमारे देश में किसी को तब तक बेगुनाह माना जाता है जब तक न्यायालय उसे अपराधी साबित ना कर दे तो दागी कैसे जाने जाएंगे। चाहे 100 अपराधी छूट जाएं लेकिन एक भी बेगुनाह फंसना नहीं चाहिए और पुलिस तथा प्रशासन तंत्र अदालत में अपराध प्रमाणित नहीं कर पाते इसलिए सन्देह का लाभ लेकर अपराधी छूट जाते हैं।

देश में 1951 से एक कानून चला आ रहा था कि मौजूदा एमपी अथवा एमएलए यदि दोषी माना जाता है तो उसे तीन महीने के अन्दर अपील करने का समय मिलता था। दागी नेता तीन महीने के अन्दर अपील दाखिल करके निर्णय पर रोक लगवा देते थे और लम्बे समय तक हुकूमत करते रहते थे। न्यायालय द्वारा कुछ सुधार किया गया है कि जिस समय किसी एमपी अथचा एमएलए को दो साल की सजा सुनाई जाएगी, उसकी सदस्ता उसी समय से समाप्त हो जाएगी। लम्बित मामलों में विलम्ब का लाभ मिलता रहेगा।

ऐसे सभी लोग बेगुनाह माने जाएंगे जिन पर मुकदमे लम्बित हैं चाहे जितने संगीन मामले हों। इनमें से बहुतों को जमानत मिल जाती है और बहुतों के मामले लम्बे समय तक अदालतों में लटके रहते हैं। इनकी राजनैतिक गतिविधियों पर अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि ये भाई, पत्नी अथवा बेटी बेटियों को चुनाव लड़ाकर जिता देते हैं और परेाक्ष रूप से राज करते हैं। माननीय उच्चतम न्यायालय के सुझाव का पालन कैसे होगा जब भ्रष्ट राजनेताओं का अपराध अदालत में साबित नहीं होगा और लम्बित रहेगा। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार जहां 1972 में दंडित होने वालों की दर 62 प्रतिशत थी वह 2012 तक केवल 38 प्रतिशत रह गई। नेताओं के मामले में यह दर और भी कम होगी। मुकदमा दायर करने वाली संस्थाएं जैसे पुलिस, सीबीआई या स्वयं सरकार के अधिकारी समय पर सबूत जुटा पाते तो साक्ष्य के अभाव में अपराधी राजनेता छूट ना पाते।

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह इच्छा जाहिर की थी कि राजनेताओं के लम्बित मामले विशेष अदालतों के माध्यम से एक साल में निपटा दिए जाए। माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस पर अपनी सहमति नहीं दी । इस सुझाव पर विरोधी पार्टियां भी सहमत नहीं होंगी और शायद सत्ताधारी दल के भी अनेक लोग असहमत होंगे। दागी नेता प्रायः पार्टियां बदलते रहते हैं, जो भी दल सत्ता में होता हैं उसी में शामिल हो जाते हैं और सत्तासुख भोगते रहते हैं। कुछ ऐसी व्यवस्था करते हैं कि उन पर दल बदल कानून भी नहीं लागू होता। सत्ताधारी दल का दामन थामने के बाद गवाह और सबूतों को प्रभावित करना और न्यायिक प्रक्रिया की गति को मन्द करना भी सम्भव हो जाता है।

वर्तमान में लगभग 3 करोड़ मुकदमें अदालतों में लम्बित हैं और जानकारों का अनुमान है कि 2040 तक लगभग 40 करेाड़ प्रकरण अदालतों में लम्बित होंगे । इसका प्रमुख कारण है न्यायाधीशों की बेहद कमी। यदि न्यायिक प्रक्रिया इसी तरह मंथर गति से चलती रही तो अपराधियों का कन्विक्शन हो पाना कठिन ही रहेगा और राजनीति को शुद्ध कर पाना सम्भव नहीं होगा। मामलों के निस्तारण को कैसे गति दी जाए इसका उत्तर न्यायाधीशों और सरकार को मिलकर निकालना होगा।

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