दिल्ली की देहरी: लुटियंस दिल्ली में रजवाड़ों के भवन

Nalin Chauhan | Nov 07, 2017, 12:28 IST

जब अंग्रेज़ वास्तुकारों ने एडवर्ड लुटियन और हरबर्ट बेकर ने ब्रितानी हुकूमत की नयी राजधानी नई दिल्ली के लिए भवन निर्माण के डिजाइन पर काम शुरू किया, उस समय ब्रितानी भारत में करीब 600 रजवाड़े-रियासतें थीं। इन रियासतों के शासक दिखाने के लिए तो भारतीय राजा-महाराजा थे पर असली ताकत इन दरबारों में मौजूद अंग्रेज रेजिडेंट के हाथ में थी। अंग्रेज सरकार के इन प्रतिनिधियों के बिना रियासतों में कुछ नहीं होता था।

वर्ष 1877 में लॉर्ड लिटन के समय में अंग्रेज हुकूमत और देसी रियासतों में सहयोग का विचार पैदा हुआ था। अंत में, इस बीज विचार का परिणाम देशी रजवाड़ों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था प्रिंसेस के चैंबर के गठन के रूप में सामने आया। इस चैंबर में शामिल 120 राजा-महाराजाओं का मुख्य काम रियासतों-रजवाड़ों से जुड़े विभिन्न मामलों पर अंग्रेज वाइसराय को अंग्रेजी साम्राज्य के हित के लिए सलाह देना था।

इन राजाओं को अंग्रेजी राज का स्वामिभक्त बनाए रखने के लिहाज से भारत सरकार अधिनियम 1919 को शाही स्वीकृति देने के बाद 23 दिसंबर 1919 को अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम ने चैंबर ऑफ प्रिंसेस की स्थापना की घोषणा की। 8 फरवरी 1921 को दिल्ली में चैंबर की पहली बैठक हुई। इस अवसर पर लालकिले के दीवान-ए-आम में आयोजित उद्घाटन समारोह में ड्यूक ऑफ़ कनाट ने अंग्रेज राजा के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।

प्रिंसेस के चैंबर की आंरभिक बैठक में देसी रियासतों के 120 राजप्रमुख सदस्य थे। इनमें से 108 राजा अति महत्वपूर्ण राज्यों के थे जो स्वयं ही सदस्य थे। जबकि शेष 12 सीटों के लिए अन्य 127 रियासतों में से प्रतिनिधित्व था। जबकि 327 छोटी रियासतों का चैंबर में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।

इस चैंबर का मुख्य काम रियासतों-रजवाड़ों से जुड़े विभिन्न मामलों पर अंग्रेज वाइसराय को सलाह देना था। तत्कालीन वायसराय ने चैंबर के गठन के अवसर पर कहा था कि इसका मुख्य कार्य राज्यों को प्रभावित करने वाले या रजवाड़ों के समान विषय सहित ब्रितानी हुकूमत की भलाई के लिए जरूरी मामलों पर चर्चा करना है। वैसे भी, अंग्रेज सरकार ने प्रिंसेस के चैंबर की भूमिका कार्यकारी न रखकर सलाहकार के रूप में तय की थी।

हर साल फरवरी या मार्च में चैंबर ऑफ प्रिंसेस की बैठक कांउसिल हाउस (आज का संसद भवन) के निर्दिष्ट हॉल में होती थी। किसी समय में विभिन्न रियासतों के सुंदर वेशभूषाओं में सजे-धजे शासकों के भरा रहने वाले हॉल का उपयोग अब संसद में सांसदों के अध्ययन कक्ष के रूप में होता है।

चैंबर ऑफ प्रिंसेस के गठन का एक सीधा परिणाम अंग्रेजों की नई राजधानी में राजा-महाराजाओं को स्थान देने के रूप में आया। आखिर चैंबर की बैठकों में हिस्सा लेने के लिए राजधानी आने के कारण उन्हें यहां ठहरने के लिए जगह की जरूरत थी। एक तरह से यह स्थान सरकार में उनकी भागीदारी का प्रतीक भी था। इसी का परिणाम प्रिंसेस पार्क के रूप में सामने आया। आज के इंडिया गेट के आस-पास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण रजवाड़ों के शासकों को अपने महल बनाने के लिए जमीन दी गई। इसके बावजूद लुटियन की दिल्ली के अनुरूप डिजाइन होने की शर्त भी थी। इसके लिए रजवाड़ों को अपने महलों के नक्शों को अंग्रेज सरकार से स्वीकृत करवाना पड़ता था।

प्रिंसेस के चैंबर में अंग्रेज सरकार के सर्वाधिक करीबी राजा-महाराजाओं को लगभग आठ एकड़ आकार के 36 भूखंड पट्टे पर दिए गए। अंग्रेजों की दृष्टि में राजभक्त राज्यों- हैदराबाद, बड़ौदा, बीकानेर, पटियाला और जयपुर को इंडिया गेट की छतरी के किंग्स वे (अब राजपथ) के चारों ओर स्थान आवंटित हुए। जबकि उनसे कम महत्व रखने वाले जैसलमेर, त्रावणकोर, धौलपुर और फरीदकोट के शासकों को केंद्रीय षट्भुज (सेंट्रल हैक्सागन) से निकलने वाली सड़कों पर निर्माण के लिए भूमि दी गई।

एक अनुमान के अनुसार, 384 एकड़ में फैले इस इलाके में 55 भूखंड थे, जिनमें से 34 आवंटित किए गए जबकि 1934 तक 21 खाली रहे। आश्चर्यजनक रूप से, इस वर्ष तक 48 एकड़ में फैले केवल 6 भूखंडों का निर्माण हुआ। वर्ष 1936 में अंग्रेज सरकार ने इन रजवाड़ों को सूचित किया कि अगर वे 15 अप्रैल 1938 तक अपने भूखंडों पर भवनों का निर्माण नहीं करते हैं तो सरकार उन्हें फिर से वापिस ले लेगी। इस घोषणा के तुरंत बाद 10 राज्यों ने सरकार के पास जमीन जाने के डर से निर्माण करवाया।

देश की आजादी तक कायम रहे चैंबर ऑफ प्रिंसेस के चार चांसलर यानी प्रमुख हुए। ये बीकानेर के महाराज के सर गंगा सिंह (1921-1926) महाराजा पटियाला सरदार भूपिंदर सिंह (1926-1931) नवानगर के महाराज रंजीतसिंह (1931-1933) नवानगर के ही महाराज दिग्विजय सिंह (1933-1944) और भोपाल के नवाब हमदुल्लाह खान (1944-1947) थे।

आजादी के बाद देसी रियासतों के भारतीय संघ में विलय के साथ ही राजा-महाराजाओं के सभी महल भारत सरकार की संपत्ति बन गए। इनमें से अधिकांश पर अभी भी सरकार का स्वामित्व है, जहां केंद्रीय सरकार के विभिन्न विभागों के कार्यालय हैं जैसे धौलपुर हाउस में संघलोक सेवा आयोग का कार्यालय है जो कि देश के भावी प्रशासकों यानी आइएएस अधिकारियों के चयन का कार्य करता है।

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