ज़मीनी हक़ीकत: शहरों के लोगों को आभास नहीं होता, पड़ोस का गांव बूंद-बूंद पानी को तरस रहा है

Devinder Sharma | May 12, 2017, 16:00 IST

मैं अक्सर बेंगलुरु का सफ़र करता हूं। तकरीबन एक साल में चार बार, लेकिन जब भी मैं वहां गया, मुझे अंदेशा तक नहीं हुआ कि कर्नाटक सरकार भीषण सूखे का सामना कर रही है। उस बड़े शहर की ज़िन्दगी ये आभास तक नहीं होने देती कि महज 30 किमी दूर भयंकर सूखे के हालात हैं। मुझे बताया गया है कि 176 ताल्लुकों में से 139 सूखाग्रस्त घोषित कर दिए गए हैं। इससे भी बुरा ये है कि विगत 14 में से 11 साल कर्नाटक सूखे के नीचे पिसता रहा है।

बेंगलुरु से महज दो घंटे की दूरी पर आंध्र प्रदेश का अनंतपुर जिला है। इस जिले की ‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ (28 अप्रैल) की एक रिपोर्ट मेरी आँखें नम कर गई। स्कूल से लौटते ही 12 साल के दिवाकर ने पूछा, ‘क्या मेरे पापा लौट आये?” उसके अंकल इसवरैया जवाब देते हैं, “नहीं। अगले महीने तुम्हारे लिए ढेरों खिलौने लेकर आएंगे।”

निराश होकर वो बच्चा अपना बैग पटकता है, कपड़े बदलता है, फिर अपनी तिपहिया साइकिल उठा कर उस सड़क पर निकल पड़ता है, जिसके किनारे वाले मकानों पर ताले लटके हुए हैं।

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अनंतपुर जिले के कस्बे और गाँव क्यों सूने पड़े हैं इस बारे में हरीश गिलाई की रिपोर्ट ग्रामीण भारत की विडम्बना की ऐसी दास्तां है, जिसे कोई देखना नहीं चाहता। आंध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले के नालमण्ड मण्डल में कुटपल्ले गाँव अब एक उजड़ा हुआ गाँव यानी घोस्ट विलेज है। वो लिखते हैं कि यहां आधे दरवाजों में ताला लगा है। यहां या तो बुजुर्ग टहलते हुए दिखते हैं या फिर खेलते हुए बच्चे। अदिति मलिक और गीतिका प्रियदर्शी जो कि फैक्ट फाइंडिंग मिशन की सदस्या भी हैं उन्होंने एक अन्य रिपोर्ट में उन (दि न्यूज मिनट, मई 9 के अंक में ) मर्मस्पर्शी घटनाओं का ज़िक्र किया है, जिसमें परिवार के बड़े, बच्चों को पीछे छोड़कर छोटे-मोटे धंधे करने दूर शहर को चले गए।

अनंतपुर जिले के करेड्डीपल्ली गाँव की बुक्य्या स्यमूलम्मा अपने दो छोटे भाई-बहनों के साथ अकेले रहती है। वो दुबली-पतली बच्ची पड़ोस के गाँव से 25 किलो राशन अकेले लाद लाती है। पिता की शराब पीने की वजह से मौत हो चुकी है, अब भाई बहन की देखभाल वो अकेले ही करती है। ये दृश्य बॉलीवुड की किसी फ़िल्म सा लग सकता है, पर ये वाक़ई ये एक हकीकत है।



करेड्डीपल्ली की एक 15 साल की लड़की भी अकेली रहती है, जबसे उसके माता-पिता रोजगार के लिए केरल चले गए। रामादेवी को अपनी सुरक्षा की चिंता होती तो है लेकिन मुझे ज्यादा चिंता उन विकट परिस्थितियों के बारे में सोचकर होती है, जिनकी वजह से एक मां-बाप को अपनी इकलौती बेटी को ऐसे छोड़ जाना पड़ा। उनके पास क्या विकल्प होगा। कोई भी अपने बच्चों को छोड़कर जाना नहीं चाहेगा। ये कोई हॉलीवुड की मूवी ‘होम अलोन’ का दृश्य नहीं है। सैकड़ों बच्चों को उनके माता-पिता थोड़ी बहुत रोजी-रोटी की तलाश में छोड़ गए हैं। अनंतपुर में लगातार छह वर्षों से सूखा पड़ रहा है।

केरल भी अब 'ईश्वर का अपना देश’ नहीं रहा। यहां पलक्कड़ जिले में एक परिवार एक हफ्ते में केवल 15-20 बाल्टियों पर गुजारा कर रहा है।

शाजु फिलिप्स( इंडियन एक्सप्रेस) (मई 8) हमे अट्टापद्दी गाँव ले चलती हैं, जहां लगातार दो साल से सूखा पड़ रहा है। केरल पिछले 115 वर्षों में सबसे विकट सूखे की मार झेल रहा है। सारे 14 जिले सूखा प्रभावित हैं और हां अगर आप तिरुअनंतपुरम जाते हैं, या कोच्चि, या कोज़ीकोडे या किसी भी बड़े शहर में, तो आप जान नहीं पाएंगे कि केरल किस कदर सूखे की मार झेल रहा है।

सूखाग्रस्त क्षेत्र की अपनी पांच दिवसीय यात्रा समाप्त करके 'स्वराज्य अभियान' के योगेन्द्र यादव ने दुःख प्रकट किया, ‘केंद्र सरकार की अनदेखी ने राज्य सरकार का तन्त्र निष्क्रिय कर दिया है, जिसका खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘यहां होने वाली पशुओं की मौत आगे आने वाले अकाल का एक संकेत है।’



तमिलनाडु के किसानों का 40,000 करोड़ की ऋण माफ़ी के लिए किया गया जंतर-मंतर पर हालिया प्रदर्शन मीडिया का कुछ ध्यान तो खींच सका लेकिन देश को हिला नहीं सका।

‘ये अनदेखी परिस्थिति है’ तमिलनाडु एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के agrometereology विभाग के प्रोफेसर श्री पनीरसेल्व्म ने इंडियास्पेंड से कहा कि तमिलनाडु के 32 जिलों में से 21 सूखे से प्रभावित हैं। यहां पिछले 140 ‍वर्षों का सबसे बुरा सूखा पड़ा है लेकिन फिर भी अगर आप कोयम्बटूर या चेन्नई या किसी भी बड़े शहर में जाएं तो आपको पता नहीं चलेगा कि कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर कितना भयानक सूखा पड़ा हुआ है।

मुझे ये बहुत अजीब लगता है। क्या आपने कभी सोचा कि ये सूखा केवल ग्रामीण इलाकों को ही प्रभावित क्यों करता है कस्बों और शहरों को नहीं? मुझे यकीन है कि ये नाइंसाफी खुदा की तो नहीं। फिर ऐसा विभाजन क्यों है जिससे केवल गांवों के गरीब ही प्रभावित हो रहे हैं।

गुजरात के कच्छ इलाके का लातूर शहर एक अपवाद हो सकता है लेकिन ये मुश्किल है कि चेन्नई को भी पानी लाने वाली रेलगाड़ियों की जरूरत पड़े। ये उसी विभाजन के कारण है जो विकास से ताने-बाने में गुंथा हुआ है। मेरी समझ में शहरों का ढांचा इस प्रकार का बना है, कि उनपर सूखे का असर नहीं होता। शहरी-ग्रामीण अलगाव यहां साफ़ दिखाई देता है।

सारी कोशिशें की गई हैं कि शहरी आबादी को सूखे की मार का अहसास न हो। कस्बों से होकर जाने वाली नदियां नहरें भले ही सूख जाएं, लेकिन सुबह शाम कुछ घंटों के लिए ही सही, पर शहर के नलों में पानी जरूर आना चाहिए। चाहे दिल्ली के लिए चम्बल के रेणुका बाँध से ही पानी खींचकर क्यों न लाना पड़े, चाहे मुम्बई की प्यास साथ लगे हुए पश्चिमी घाट के अंदर से पानी खींचकर क्यों न बुझानी पड़े, शहरों की ज़िन्दगी तो बदस्तूर जारी रहेगी। चाहे इसके लिए ग्रामीण जनता को कितनी ही भारी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma )

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