पाकिस्तान कौन चलाएगा: इमरान, आतंकी या सेना?

Dr SB Misra | Aug 18, 2018, 13:08 IST
पाकिस्तान के 70 साल के इतिहास पर नजर डालें तो उसके भाग्य में स्थिरता और प्रजातंत्र नहीं है। उसके 21 प्रधानमंत्रियों में से किसी ने पूरे 5 साल शासन नहीं किया, कुछ को मार डाला गया तो कुछ को सेना ने बेदखल किया
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कभी पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के कप्तान रहे इमरान खान ने वहां के प्रधानमंत्री पद की शपथ 18 अगस्त को ली है। वह अपने मंत्रिमंडल में सियासी कप्तान की भूमिका भी निभा सकेंगे और खेल भावना से सियासत कर पाएंगे, यह नवजोत सिद्धू भले ही सोचते हों, भारत की जनता को इसमें पूरा सन्देह है।

वहां पर न्यायपालिका और विधायिका में टकराव होता रहा है जिसके कारण ही नवाज़ शरीफ़ को कुर्सी के साथ ही राजनीति छोड़नी पड़ी है। हमेशा ही सेना सत्ता का बन्दर बांट करके देश चलाती रही है। इस खेल में पाकिस्तान का प्रजातंत्र जो पटरी से उतरा तो वापस कभी नहीं आ सका। इस बार एक चौथा, खिलाड़ी भी मैदान में है। घायल शेर की तरह आतंकवादी हाफि़ज़ सईद जिसका सेना के साथ घालमेल है।

पाकिस्तान के 70 साल के इतिहास पर नजर डालें तो उसके भाग्य में स्थिरता और प्रजातंत्र नहीं है। उसके 21 प्रधानमंत्रियों में से किसी ने पूरे 5 साल शासन नहीं किया, कुछ को मार डाला गया तो कुछ को सेना ने बेदखल किया। वहां पहले संसदीय प्रणाली चली गई फिर राष्ट्रपति प्रणाली आई और अनेक बार मार्शल लॉ के दौर चले। जिसने भी सेना से अलग रास्ता अपनाने की कोशिश की उसे हटना ही पड़ा। तब क्या सेना का मुहरा बनकर, हाफिज सईद से दोस्ती करके इमरान खान पाकिस्तान का भाग्य बदल सकेंगे, कहना कठिन है।

जिस बैरभाव और असहिष्णुता की नींव पर पाकिस्तान खड़ा है उसी के कारण स्वयं वह देश विभाजित हुआ, बंगलादेश बना अवशेष बना पाकिस्तान। हिंसा से पाकिस्तान का जन्म हुआ और उसी ने पाकिस्तान को स्थायित्व और प्रजातंत्र के रास्ते पर जाने से रोके रक्खा। वहां के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को 1951 में कत्ल कर दिया गया और सेना का वर्चस्व जारी रहा। इसके विपरीत भारतीय प्रजातंत्र मे शान्ति और स्थायित्व रहा और सेना ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया । भारत और पाकिस्तान के नेता वही थे जो देश की आजादी के लिए एक साथ लड़े थे फिर यह अन्तर क्यों हुआ। अन्तर इसलिए कि वहां जाते हुए लोग भारत की सहिष्णुता की सनातन भावना और परम्परा यहीं छोड़ गए।

चाहे पाकिस्तान हो या भारत, देश चलाने की वैधानिक जिम्मेदारी सरकार की है और इसी काम के लिए देश की जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है। लकिन जब चुनी हुई सरकारें देश नहीं चला पाती तो तानाशाही का जन्म होता हैं अथवा सेना हस्तक्षेप करती है। इसके पहले यदि न्यायपालिका सरकार को उसकी सीमाएं बताती रहे तो प्रजातंत्र बना रहता है। लेकिन कई बार अदालतें कड़े शब्दों में सरकार को निर्देश देती हैं तो लगता है वे अपनी सीमाएं लांघ रही हैं। पाकिस्तान के निवर्तमान प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भ्रष्टाचार के मामले में वहां की न्यायपालिका द्वारा अयोग्य करार हुए और जेल में हैं। न्यायालय अपना धर्म निभा सका क्योंकि सेना ऐसा चाहती थी ।

भारत और पाकिस्तान की मानसिकता में एक मौलिक अन्तर है। भारत में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते समय भी भारत वासियों में हजारों साल पुरानी अहिंसा की मानसिकता समाप्त नहीं होने दी। भारत में सरकार चलाने वाले नेताओं ने और सेना ने भी अपनी सीमाएं समझते हुए एक दूसरे के प्रति सहनशीलता बरती और सम्मानभाव रक्खा। इसके विपरीत जिन्ना ने हिंसा के रास्ते से पाकिस्तान को हासिल किया जिसमें शामिल थे डाइरेक्ट ऐक्शन डे और डेलिवरेन्स डे का ऐलान औरा खूनी तांडव। पाकिस्तान बन जाने के बाद यह पाकिस्तान की संस्कृति बन गई।

यदि पाकिस्तान में परिपक्वता होती तो जब कड़वाहट भुलाकर भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने वहां के तब के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से लाहौर में मुलाकात की तो पाकिस्तान में प्रजातंत्र जीवित था, लेकिन मुशर्रफ का अपना एजेंडा चला। इसलिए इस बार भी यह नहीं सोचना चाहिए कि पाकिस्तान में प्रजातंत्र आ गया है अथवा इमरान की बातों का कुछ मतलब है। पाकिस्तान के सन्दर्भ में मोदी की वर्तमान नीति जारी रहनी चाहिए क्योंकि मौजूदा हालात में वहां की सेना ही देश चलाएगी और जिस दिन सेना ने उंगली उठा दी इमरान खान को पवेलियन वापस जाना होगा, तब आतंकवादियों का साथ भी इमरान के काम नहीं आएगा।



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