आपातकाल में जनता, संविधान और सरकारी प्रशासन

Dr SB Misra | Jul 02, 2025, 11:01 IST
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आपातकाल के आरंभ को "काला दिवस" बताना जितना उचित है, उतना ही संविधान से उस काले धब्बे को हटाना सराहनीय है। संविधान में ऐसे प्रावधान कर दिए गए हैं कि सामान्यतः अब आपातकाल लगाना कठिन हो गया है।
indira gandhi emergency
अभी 25 तारीख को हमारी सरकार ने आपातकाल लगने की तारीख को "काला दिवस" के रूप में याद किया, क्योंकि इसी तारीख को 1975 में आपातकाल घोषित किया गया था। उस समय न तो देश में कोई आंतरिक विद्रोह हो रहा था और न ही कोई बाहरी आक्रमण हुआ था, लेकिन इंदिरा गांधी ने उच्च न्यायालय के फैसले के जवाब में देश में आपातकाल लगाकर अपनी सत्ता को बरकरार रखा।

प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1971 में पाकिस्तान को परास्त करके जो यश कमाया था, वह आपातकाल लगाने के साथ ही समाप्त हो गया। आपातकाल लागू करने के लिए जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि उनका आंदोलन लोकतांत्रिक तरीके से चलाया जा रहा था, वह एक जन आंदोलन था और हिंसात्मक नहीं था। यह बहस का विषय हो सकता है कि यदि इंदिरा जी ने उच्च न्यायालय के फैसले को स्वीकार करते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया होता तो उनका यशस्वी नेतृत्व बरकरार रहता अथवा आपातकाल लगाने के बाद उनकी कीर्ति बड़ी।

वैसे मैं समझता हूं कि स्वयं इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी ने भी यह स्वीकार किया था कि आपातकाल लगाना गलत था और उन्होंने देश से इसके लिए माफी भी मांगी थी, भले ही तब मांगी जब जनता ने अपना दंड सुना दिया था।

मुझे भलीभांति याद है जब मैं भूवैज्ञानिक के रूप में मध्य प्रदेश के रीवा शहर में कार्यरत था और 1975 में जब रेडियो पर इंदिरा जी देश को सूचित कर रही थीं कि देश में राष्ट्रपति ने आपातकाल लगा दिया है, इससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। मेरा परिवार लखनऊ आया हुआ था और मैं बड़े मकान में अकेला अपने लिए चाय बना रहा था जब यह घोषणा हुई। तरह-तरह की बातें मन में आ रही थीं — कि आपातकाल कैसा होगा? जनता और सरकार का संबंध कैसा रहेगा? और जो जीवन चल रहा है, आगे उसका स्वरूप क्या होगा? इन सवालों का कोई जवाब मुझे नहीं मिल रहा था।

मैं मध्य प्रदेश में कार्य कर रहा था जहां के विद्या चरण शुक्ला आपातकाल में काफी प्रभावी भूमिका निभा रहे थे और उनके भाई श्यामा चरण शुक्ला मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। तब के "डायरेक्टरेट ऑफ जियोलॉजी एंड माइनिंग", जिसे तब "भौमिकी एवं खनिकर्म विभाग" कहा जाता था, ने बस्तर और आसपास के क्षेत्रों में हवाई सर्वेक्षण कराया था और यह चुंबकीय सर्वेक्षण भूमि पर प्रमाणित किया जाना था, जिसके लिए मुझे बस्तर भेजा गया।

बस्तर जाकर मैं अपने काम में लग गया और चिट्ठी-पत्री द्वारा ही कुछ समाचार मिलते थे कि लखनऊ और देश के अन्य भागों में क्या चल रहा है। तब न मोबाइल फोन था, न टीवी। केवल रेडियो से समाचार मिलते थे और वे भी संशोधित होते थे। वहां आपातकाल में भी बस्तर में आदिवासियों का स्वच्छंद जीवन चल रहा था, कोई भय का वातावरण नहीं था और मैं भी अपनी टीम के साथ कार्यरत रहता था। देश के अन्य भागों में क्या हो रहा था, इसकी न तो मुझे जानकारी थी, न अंदाजा और न ही वहां के निवासियों को।

जब मैं होली की छुट्टी में लखनऊ गया, तब पहली बार रेलगाड़ी में मुझे आभास हुआ कि आपातकाल कैसा बीत रहा है। बस्तर से बस से रायपुर गया, वहां से ट्रेन द्वारा बिलासपुर और कटनी होता हुआ आ रहा था। ट्रेन में चर्चाएं चल रही थीं, मैंने भी पुराने ज़माने की तरह बातचीत करना आरंभ किया और सरकार की आलोचना करता रहा। तभी एक सज्जन मेरे पास आए और धीरे से बोले, "यह सब मत कहिए, कठिनाई आ सकती है।" फिर वह चुपचाप अपनी जगह चले गए। बाकी यात्री भी चुपचाप थे। मैं इस बात से बेखबर था कि दीवारों के भी कान होते हैं और ट्रेन से भी लोगों को आलोचना के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है। मैं शांत हो गया।

कटनी से इलाहाबाद होता हुआ जब लखनऊ पहुंचा, तब तक मुझे काफी कुछ अंदाज़ हो चुका था कि जीवनचर्या किस प्रकार चलने वाली है। लखनऊ पहुंचकर सब लोगों ने वह सब बातें बताईं जो चिट्ठी-पत्री में नहीं लिखी जा सकती थीं। मैं ध्यानपूर्वक सारी कहानियां सुनता गया और निश्चय किया कि जैसे सब लोग रह रहे हैं, वैसे ही मुझे भी रहना है — भले ही मैं एक सरकारी अधिकारी था। तब जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ जाती थी — यह बात धीरे-धीरे समझ में आ गई।

मुझे पता चला कि बसों, साइकिल, मोटरसाइकिल या टैक्सी से यात्रा करने वाले लोगों को पकड़कर उनकी नसबंदी कर दी जाती है। मुझे और भी चिंता हो रही थी लेकिन मैं शहर में साइकिल से ही चलता था, गांव जाने पर भी साइकिल का ही उपयोग करता था, और मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई। इतना जरूर पता चला कि आरंभ में रेलगाड़ियां बिल्कुल समय पर चलने लगी थीं, चारों तरफ अनुशासन था, चोरी-डकैती नगण्य हो गई थी और आम आदमी को, नसबंदी की समस्या को छोड़कर, कोई डर नहीं था।

लखनऊ पहुंचकर जो बातें अखबारों में घुमा-फिरा कर लिखी गई थीं या जो साथियों और परिवारवालों ने सुनी थीं, वह धीरे-धीरे पता चलने लगीं। पता चला कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी को जेल में किडनी की तकलीफ हो गई थी और वह डायलिसिस पर थे। अटल बिहारी वाजपेयी जी को रीढ़ की तकलीफ बढ़ गई थी और उन्हें स्पॉन्डिलाइटिस से गुजरना पड़ा। जॉर्ज फर्नांडिस पकड़े नहीं जा सके और वह कहीं उत्तर की तराई या नेपाल में छिपे हुए थे। उनके भाई को गिरफ्तार कर लिया गया था और उन्हें बहुत यातनाएं दी गई थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और हजारों कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए थे। अनेक सम्मानित समाजवादी भी जेल में थे।

जितना कष्ट सामान्य लोगों को हुआ, उससे कहीं अधिक पीड़ा निष्ठावान और ईमानदार पत्रकारों को हुई। मैं अक्सर इंडियन एक्सप्रेस पढ़ा करता था, जिसमें एक दिन संपादकीय कॉलम खाली छोड़ दिया गया था। कुछ छोटी पत्रिकाओं ने प्रकाशन ही बंद कर दिया था, और कुछ पत्र-पत्रिकाएं सरकारी तंत्र को दिखाकर ही खबरें छापती थीं, जिनमें सच्चाई कम और विकृति अधिक होती थी।
छात्रों में अनुशासन था और कर्मचारियों में समय की पाबंदी, लेकिन पुलिसकर्मी अक्सर उच्छृंखल हो गए थे और उनका व्यवहार मनमाना हो गया था।

भारत की अनपढ़ और गरीब जनता ने दो साल के आपातकाल में अपना मूल्यांकन कर लिया था और निर्णय भी दे दिया था, जो भले ही सार्वजनिक नहीं था लेकिन उनके मन में सुरक्षित था। इसे ईश्वरीय विधान ही कहा जाएगा कि इंदिरा जी के चापलूस सहयोगियों और कुछ अधिकारियों ने उन्हें बताया कि यह चुनाव का उपयुक्त समय है — जनता संतुष्ट है और वातावरण पक्ष में है। चुनाव की घोषणा हो गई। चुनाव संपन्न हुए और देश की जनता ने जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व वाली जनता पार्टी को भारी बहुमत से जिता दिया। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी जिसने संविधान की विकृति को आंशिक रूप से समाप्त कर दिया।

आंशिक सुधार इसलिए कि संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी" और "सेकुलर" शब्द बने रहे और कुछ अन्य विकृतियाँ भी रह गईं। सरकार में शामिल समाजवादी नेताओं के वर्चस्व के कारण शायद समाजवाद शब्द नहीं हटाया गया। आर्थिक व्यवस्था को संविधान की प्रस्तावना में डालने का कोई औचित्य नहीं था और न ही डॉ. अंबेडकर ने ऐसा किया था। कालांतर में समाजवादी अर्थव्यवस्था स्वतः ही निष्क्रिय हो गई, फिर भी वह संविधान में बनी रही।

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आपातकाल के आरंभ को "काला दिवस" बताना जितना उचित है, उतना ही संविधान से उस काले धब्बे को हटाना सराहनीय है। संविधान में ऐसे प्रावधान कर दिए गए हैं कि सामान्यतः अब आपातकाल लगाना कठिन हो गया है।

गरीब देश की इस गरीब जनता ने, जिसने इंदिरा जी और उनकी पार्टी को दंड दिया था, दो साल बाद ही जब जनता पार्टी के नेताओं ने आपसी खींचतान शुरू की तो उन्हें सबक सिखाते हुए फिर से इंदिरा गांधी को क्षमा कर दिया और उन्हें सत्ता पर वापस बैठा दिया। यह हमारे देश की लोकतांत्रिक सोच और अनपढ़ लेकिन विवेकशील जनता की वैचारिक परिपक्वता का प्रमाण है। शायद संविधान निर्माताओं ने दुनिया भर की शंकाओं को दूर करते हुए देश में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था संविधान में डाली थी — और देश की पहली सरकार ने इसका आरंभ किया था।

आशा की जानी चाहिए कि देश के लोगों की यह सोच और वैचारिक परिपक्वता, दुनिया के तमाम देशों से अलग अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाए रखेगी।

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