ईवीएम पर रोक मतलब- बूथ कैप्चरिंग, दलितों को वोट से वंचित करना और फर्जी वोटिंग को पुनर्जीवित करना

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लखनऊ। वर्षों बाद जब 2014 में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला और सरकार बनी तब अनेक मूर्धन्य नेता पराजित हुए तो उन्होंने चुनाव प्रक्रिया और जनता के निर्णय पर ही सन्देह किया। अधिकांश पराजित दलों ने अपनी पराजय का दोष ईवीएम (EVM) मशीन पर मढ़ा। इस मशीन का प्रयोग पहले भी देश विदेश में होता रहा है। जो लोग पहले जीतते रहे थे अब विपक्ष में हैं, उन्हें ईवीएम दोषी लगी। शिकायत चुनाव आयोग तक गई और मसला उच्चतम न्यायालय के समक्ष पेश हुआ लेकिन दोष प्रमाणित नहीं हो सका। एक समाधान सुझाया गया कि वोटर चाहे तो अपनी वीवीपैट पर्ची निकाल सकेगा, जिससे शंका दूर हो जाएगी कि जिसे उसने वोट दिया था उसे ही मिला या नहीं।

चुनाव आयोग को लम्बे कटु अनुभवों के बाद ईवीएम की आवश्यकता पड़ी थी। भारत में 1999 में इसका आरम्भ हुआ। ईवीएम ने भाजपा को दो बार जिताया और एक बार हराया। कांग्रेस को भी दो बार जिताया और एक बार हराया। अब 2019 में क्या करेगी पता नहीं। विपक्षी दलों द्वारा ईवीएम की जगह बैलेट पेपर लाने की मांग की जा रही है, जैसे इंसान प्रकृति से कहे कि हम बन्दर ही अच्छे थे, मानव विकास ठीक नहीं। प्रकृति ऐसा नहीं कर सकती इसलिए तमाम आलोचनाओं के बावजूद चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय ने इस व्यवस्था को निरस्त करने की जरूरत नहीं समझी। विपक्षी दल भी ईवीएम में हेराफेरी की सम्भावना को प्रमाणित नहीं कर सके हैं।

हमारे गांवों में आम सहमति से सभी निर्णय लेने की परम्परा थी और गांव का मुखिया इस व्यवस्था की देखरेख करता था। आजादी के बाद बहुमत के आधार पर फैसले होने लगे। मुझे याद है पचास के दशक में सरपंच का चुनाव चारों तरफ से बन्द अहाते में हुआ था। सभी औरतें और आदमी इकट्ठे किए गए और बारी-बारी से उम्मीदवारों के नाम पुकार कर हाथ उठवाया गया, इस तरह सरकारी अधिकारियों ने वोटों की गिनती की। गणना के बाद उसी दिन प्रधान का नाम घोषित कर दिया गया था। विधान सभा और संसद के चुनावों में पर्ची दी जाने लगीं जिसे चुनाव चिन्ह से अंकित बक्सों में डालना होता था, तब नारा भी होता था "वोट हमारा कहां गिरेगा, बरगद वाले बक्से में या कोई अन्य"।

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सांकेतिक तस्वीर। फोटो क्रेडिट - Pioneeredge

एक बार मेरे गांव के प्रधान जो कांग्रेस के समर्थक थे उन्होंने बताया कि कई वोटरों ने बक्सों के बाहर पर्चियां डाल दी थीं "मैंने सब बटोर कर दो बैलों वाले बक्से में डाल दीं।" गड़बड़ी की एक और सम्भावना रहती थी कि लोग दोबारा वोट डाल देते थे। गाँव के दबंग दबाव बनाकर वोट डलवाते थे, और सबसे बड़ी बात कि मतगणना के समय लाइट गुल करके मनचाहे बक्से को भरा जा सकता था। दोबारा वोट न डाला जा सके इसलिए ये हुआ कि वोट डालते समय उंगली पर न मिटने वाली स्याही का निशान बनाया जाने लगा जो अभी तक प्रचलित है। पर्ची पर दल और उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिन्ह छपने लगा जिससे दोबारा मतगणना सम्भव हो पाई।

देश के चौथे आम चुनावों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई, संयुक्त विधायक दलों की सरकारें बनी और कांग्रेस में फूट पड़ गई। अन्ततः इन्दिरा गांधी ने केन्द्र और प्रान्तों के चुनाव अलग-अलग कराने आरम्भ कर दिए। तब बैलेट बक्सों को दूर दराज के गांवों से जिला मुख्यालय तक लाने और उनकी सुरक्षा में काफी समय लगता था। मैंने कनाडा और अमेरिका में पियर ट्रूडो और राबर्ट कनेडी के चुनाव देखे थे जहां परिणाम में कोई समय नहीं लगता था। भारत में भी लगातार चुनाव सुधार होते रहे हैं।

मुझे भली भांति याद है जब पाकिस्तान की शर्मनाक हार और बंग्लादेश के निर्माण के बाद 1972 का चुनाव इन्दिरा गांधी सम्पूर्ण विपक्ष को हराकर भारी बहुमत से जीती थीं तब बटन दबाकर नहीं पार्टी और उम्मीदवार के नाम के सामने मुहर लगाकर वोट डाले गए थे। अब नारा था "मुहर हमारी कहां लगेगी, गाय बछड़े के खाने पर"। उस समय खूब प्रचार हुआ था कि विशेष प्रकार की स्याही रूस से मंगाई गई है जो लगाने के कुछ ही मिनट में उड़ जाती है और सत्तादल द्वारा दोबारा वोट डलवाए जा रहे हैं। मुझे यह तो नहीं पता कि स्याही कहां से ऑर्डर हुई थी और उसके उड़नशील होने में कितनी सत्यता थी लेकिन शंका कांग्रेस द्वारा नहीं बल्कि तब के विपक्षी दलों द्वारा व्यक्त की गई थी।

मैं यह भी नहीं जानता कि चुनाव अनियमितता का असल दोषी कौन है लेकिन एक समय आया जब बाहुबलियों का युग था और दलित बस्तियों में जाकर एलान होता था "तुम लोग वोट डालने मत जाना, तुम्हारा वोट पड़ जाएगा"। सचमुच ऐसा होता था, या तो वोटर लिस्ट से नाम गायब होते थे या पहले से ही वोट पड़ जाते थे। बूथ कैप्चरिंग, मार काट अैर फौजदारी के मामले खूब होते थे। सफल चुनाव संचालन का पैमाना था कितनी कम मौतें हुईं, कितने कम लोग जेल गए और पिछले चुनाव की अपेक्षा हिंसा में कितनी कमी आई। पहले तो राजनेताओं ने गुंडे बदमाशों का सहारा लिया फिर बाहुबली स्वयं ही नेता बन गए और चुनाव लड़ने लगे।

इस तरह कठिन रास्तों से चलते हुए अनेक पड़ावों से गुजरते हुए आम चुनाव का तरीका ईवीएम तक पहुंचा है। इस तरीके को समाप्त करने का मतलब होगा दबंगों द्वारा बूथ कैप्चरिंग, दलितों को वोट से वंचित करना और फर्जी वोटिंग को पुनर्जीवित करना। यदि कोई आवश्यकता होती है तो वोट डालते ही उम्मीदवार के खाते में हमारा वोट चला जाए यानी वोटिंग और गणना एक साथ चल सके। इलेक्ट्रॉनिक्स में गड़बड़ी की सम्भावना तो बनी रहेगी लेकिन यदि नाक में मक्खी घुस जाए तो नाक काटकर फेंकना बुद्धिमानी नहीं। दोष खोजना और उनका निराकरण करना ही विकास है, आशा है हमारे नेता इसे समझेंगे।

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