फणीश्वर नाथ रेणु की दुनिया- जिसके बिना हम अधूरे हैं ..

रेणु की दुनिया हमें ऐसे रागों, रंगों, जीवन की सच्चाई से जोड़ती हैं जिसके बिना हमारे लिए यह दुनिया ही अधूरी है। अधूरे हम रह जाते हैं, अधूरे हमारे ख्वाब रह जाते हैं। रेणु की दुनिया में जहां प्रशांत है तो वहीं जित्तन भी है।

Girindranath JhaGirindranath Jha   4 March 2022 7:03 AM GMT

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फणीश्वर नाथ रेणु की दुनिया- जिसके बिना हम अधूरे हैं ..

रेणु रोज की आपाधापी के छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे। अपने ब्योरो, या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे, ठीक उसी समय वे हमें सहज और आत्मीय लगने लगते हैं।

साहित्य की तकरीबन सभी विधाओं में बराबर कलम चलाने वाले रेणु पैदाइशी किसान थे। उनके रग रग में किसानी का रंग था। फसलों की दुनिया की तरह वे साहित्य की दुनिया रचते थे, एक जीवट किसान की तरह। कहानी उनके जीवन के रेशे-रेशे में थी और जितनी दफे उनकी कहानियां बाहर आती थी उतनी ही तेजी से नई कहानियां उनके भीतर समा जाया करती थी। दरअसल उन्हें पाठकों का मन पढ़ने आता था क्योंकि उनके भीतर जो लेखक था वह मूल रुप से एक किसान था।

रेणु की दुनिया हमें ऐसे रागों, रंगों, जीवन की सच्चाई से जोड़ती हैं जिसके बिना हमारे लिए यह दुनिया ही अधूरी है। अधूरे हम रह जाते हैं, अधूरे हमारे ख्वाब रह जाते हैं। रेणु की दुनिया में जहां प्रशांत है तो वहीं जित्तन भी है। ठीक गुलजार के चांद की तरह।

परती परिकथा का जित्तन ट्रैक्टर से परती तोड़ता है, रेणु असल जिंदगी में कलम से जमीन की सख्ती तोड़ते हैं। प्राणपुर में जित्तन परती को अपऩे कैमरे की कीमती आंखों से देख रहा है। किसान के पास इतनी कीमती आंख तो नहीं है पर उसकी अपनी ही आंख काफी कुछ देख लेती है। यह किसान और कोई नहीं अपने रेणु ही हैं।

रेणु की जड़े दूर तक गांव की जिंदगी में पैठी हुई है। ठीक आंगन के चापाकल पर जमी काई (हरे रंग की, जिस पर पैर रखते ही हम फिसल जाते हैं..) की तरह। वे कभी-कभी शहर में भी हमें गांवों का आभास करा देते हैं। उनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है।


रेणु रोज की आपाधापी के छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे। अपने ब्योरो, या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे, ठीक उसी समय वे हमें सहज और आत्मीय लगने लगते हैं।

रेणु जैसे महत्वपूर्ण कथाशिल्पी का पत्रकार होना अपने आप में एक रोचक प्रसंग है। उन्होंने अपने रिपोतार्जों के जरिए हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध किया है। एकांकी के दृश्य पुस्तक में उनके रिपोर्जों को संकलित किया गया है। उन्होंने बिहार की राजनीति, समाज-संस्कृति आदि को लेकर पत्रिकाओं के लिए स्तंभ लेखन किया था।

चुनाव लीला- बिहारी तर्ज नाम से रेणु की एक रपट 17 फरवरी 1967 को प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने लिखा था- पत्र और पत्रकारों से कोई खुश नहीं है। न विरोधी दल के लोग और न क्रांगेस-जन। एक पत्र को विरोधी दल की सभा में मुख्यमंत्री का पत्र कहा गया। और उसी पत्र के पत्रकार को मुख्यमंत्री के लेफ्टिनेंट ने धमकियां दीं। मुख्यमंत्री को शिकायत है कि पत्रकार उनके मुंह में अपनी बात पहना देते हैं। अ-राजनीतिक लोगों का कहना है कि चुनाव के समय पत्रकारों की पांचों ऊंगलियां घी में रहती हैं...।

पटना, दिल्ली, मुंबई करते हुए भी उनके भीतर गांव हमेशा से अपना राग अलापता रहा। उनका जब मन होता था तब वे गांव निकल पड़ते थे। वे कहते थे "मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर अपने गांव चला जाता हूं। जहां मैं घुटने से ऊपर धोती या तहमद उठा कर – फटी गंजी पहने – गांव की गलियों में, खेतों – मैदानों में घूमता रहता हूं। मुखौटा उतारकर ताजा हवा अपने रोगग्रस्त फेफड़ों में भरता हूं। सूरज की आंच में अंग – प्रत्यंग को सेकता हूं (जो, हमारे गांव में लोग बांस की झाड़ियों में या खुले मैदान में – मुक्तकच्छ होकर निबटते हैं न.)। झमाझम बरखा में दौड़ – दौड़कर नहाता हूं। कमर – भर कीचड़ में घुसकर पुरइन (कमल) और कोका (कोकनद) के फूल लोढ़ता हूं।


फणीश्वर नाथ रेणु को अपनी स्मृतियों से खास लगाव था। वे यादों को सहेजकर रखने में माहिर थे। उनके लेखन की पूंजी उनकी स्मृतियां ही थीं। कहानी या उपन्यास लिखते समय उन्हें जब भी थकावट महसूस होता था अथवा कहीं उलझ जाता थे तो वे कोई ग्राम्य - गीत गुनगुनाने लगते थे। लोकगीतों से उनका लगाव जगजाहिर है।

रेणु के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था क वह अपरिचित को परिचित और परिचित को आत्मीय बना लेता था। उनके पास आकर पीढ़ियों का भेद खत्म हो जाता था। वे तीन पीढ़ियों को जोड़ने वाले सेतु थे। पुरानों का स्नेह, समवयस्कों का सम्मान और नये लोगों का आदर उन्हें प्राप्त था। वे साहसी, दिलफेंक और खुले दिल के आदमी थे। कोई लुकाव-छिपाव नहीं, न दूसरों से न खुद अपनी जिंदगी से। झूठ पर सच का नकाब कभी नहीं ढाला।

रेणु को अलग अलग रुपों में पढ़ते हुए मुझे वे एक बेबाक चरित्र नजर आने लगता था। एक ऐसा चरित्र नायक जिसका जीवन खेत की तरह उपजाउ है, जिसे केवल फसल पैदा करना आता है.. बान किसी स्वार्थ के।

फणीश्वर नाथ रेणु ने एक दफे कहा था, "एक एकड़ धरती में धान उपजाना, उपन्यास लिखने जैसा है। लेखन का ही आनंद मिलेगा खेती करने में।" साथ ही वे खेती को एक अलग नजरिए से लोगों के सामने लाने की कोशिश भी करते थे। रेणु को पढ़ते हुए आप किसी किसानी करने वाले से यह सवाल पूछ सकते हैं कि क्या आप किसान हैं? क्योंकि किसानी को बयां करना जहां एक ओर सबसे कठिन काम है वहीं ऐसे लोगों के लिए सबसे आसान काम है, जिनका रिश्ता खेत से..जिनका कनेक्शन गांव से है...

(गिरीन्द्र नाथ झा का यह लेख मूल रूप से साल 2015 में गाँव कनेक्शन में प्रकाशित हुआ था)

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