अन्न बैंक बनाइए, अमीरों की जूठन के फूड बैंक नहीं

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अन्न बैंक बनाइए, अमीरों की जूठन के फूड बैंक नहींअन्न की बर्बादी बन्द करके भोजन बचाया जा सकता है।

कुछ लोग पार्टियों का बचा हुआ भोजन इकट्ठा करके एक जगह जमा करके भूखों को मुफ्त बांटने की बात करते हैं। मुझे लगता है यह गरीबों का अपमान है। यदि भूख पर विजय पानी है तो जो अन्न खेतों में रह जाता है, घरों में चूहे खा जाते हैं, ढुलाई के समय नष्ट होता है उस पर ही नियंत्रण करके भूखे पेट भरे जा सकते हैं।

देश में बड़ी पार्टियां देने का कम्पटीशन चलता है, स्वर्गीया जयललिता के बेटे की शादी की पार्टी बड़ी थी या कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओं की। यह अन्न की बर्बादी बन्द करके भोजन बचाया जा सकता है।

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बड़ी दावतों में ना तो पकाए गए भोजन पर और न परोसे गए भोजन पर ही नियंत्रण हो सकता है। चिन्ता यह होनी चाहिए कि भोजन बर्बाद ही क्यों हो न कि उसे भूखों को खिलाएं। बचा हुआ भोजन फूड बैंक का स्रोत नहीं होना चाहिए, गोशाला में उपयोग कर सकते हैं। जिन्होंने भोजन बर्बाद किया वे निन्दनीय हैं और जो उस जूठन को गरीबों को खिलाना चाहते हैं वे और भी निन्दनीय हैं। यदि कोई सरकार ऐसी दरियादिली को प्रोत्साहित करे तो वह भी निन्दनीय है।

अमेरिका में 1960 के दशक में फूड बैंक का विचार आया था और बाद में कनाडा सहित दूसरे देशों ने ऐसे बैंक आरम्भ किए जहां मुफ्त में भोजन मिलता है। हमारे देश में मन्दिरों के सामने बैठे भिखारियों को कुछ अवसरों पर भोजन कराने की परम्परा है लेकिन यह जूठन नहीं होती। यह व्यक्तिगत प्रयास है जिसमें शुद्ध भोजन का प्रयोग होता है। फूड बैंक के लिए अनेक स्रोत हो सकते हैं जैसे डिब्बाबन्द भोजन जो बिक नहीं रहा, फैिक्ट्रयों में बचा भोजन, प्रयोग में न लाया गया सुरक्षित खाद्य सामान आदि। हमारे देश में अन्नदान की परम्परा थी जन्मदिन पर या मकर संक्रान्ति जैसे त्योहारों पर जिसे पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है, बजाय पश्चिमी देशों की नकल करने के। इस दान से सरकारी सहयोग से अन्न बैंक बन सकते हैं।

भोजन बर्बादी की एक घटना याद आती है जब मैं मध्यप्रदेश के सीधी शहर में एक प्राइवेट कम्पनी में भूवैज्ञानिक था तो एक जमींदार के यहां दावत में जाने का मौका पड़ा। मेरे साथ ही उद्योग इन्स्पेक्टर कर्वे नाम के एक व्यक्ति भी आमंत्रित थे। कर्वे साहब अपनी थाली या पत्तल में भोजन नहीं छोड़ते थे। जमींदार के लोग जैसे ही कर्वे साहब की पत्तल खाली होती फिर परोस देते। कर्वे साहब गुस्से में आकर खड़े हो गए बोले मैं जैसे ही भोजन समाप्त करता हूं आप लोग और परोस देते हैं, मना करने पर सुनते ही नहीं। जमींदार ने कहा, ‘‘सर नाई बारी जो पत्तल उठाएंगे क्या कहेंगे जब पत्तल में कुछ नहीं मिलेगा।” अब कर्वे साहब और भी गुस्सा हुए बोले उनको जूठन क्यों देना चाहते हैं अलग से पकाकर दीजिए।

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तो फिर क्या करें दावत या घर में बचे हुए भोजन का। यदि आप गोरक्षक हैं और गाय है दरवाजे पर तो उसे खिलाइए लेकिन यदि फोकटिया गोरक्षक हैं और गाय नहीं है तो पास के गोशाला में दे आइए और यदि वह भी नहीं तो तबेले में पशुओं के लिए दीजिए। आप कह सकते हैं हम तो ‘‘गोग्रास’’ निकालते हैं गाय को जूठन कैसे खिलाएं तो मेहरबानी करके मनुष्य को भी कुछ सम्मान दीजिए और जूठन मत खिलाइए। यदि आप धर्मात्मा हैं और दूसरों की मदद करना चाहते हैं तो जूठन बैंक की जगह गाँवों में अन्न बैंक खोलिए जहां से भूखा किसान चाहे पकाने के लिए अथवा बोने के लिए अन्न उधार ले जाए और फसल पर उतना ही वापस कर जाए। अभी वह ड्योढ़ी यानी डेढ़ गुना पर महाजन से लेता है।

पुराने जमाने में गाँव का मुखिया तब भोजन करता था जब गाँव के सब लोग खा चुकते थे। ग्राम प्रधान का भी यही दायित्व होना चाहिए, और यदि उसकी पंचायत में कोई भूख से मरे तो उसे दंड मिले। प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री को पता नहीं चलता कि देश में कोई भूख से तड़प रहा है। जिस तरह पीड़ितों के लिए एक नम्बर निश्चित किया गया उसी तरह भूखों के लिए भी डिजिटल युग में फरियाद करने का उपाय खोजना चाहिए। तब कोई यह नहीं कह सकेगा उसके प्रदेश में भूख से कोई मौत नहीं हुई। जरूरत इस बात की है कि बचे भोजन का बैंक बनाने के बजाय दावतों या घर में पका भोजन बचे नहीं। भूख पर विजय के दूसरे उपाय सोचने चाहिए।

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