खेत खलिहान : रिकॉर्ड उत्पादन बनाम रिकॉर्ड असंतोष, आखिर क्यों नहीं बढ़ पाई किसानों की आमदनी ?

Arvind Kumar SinghArvind Kumar Singh   16 Aug 2017 9:20 PM GMT

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खेत खलिहान : रिकॉर्ड उत्पादन बनाम रिकॉर्ड असंतोष, आखिर क्यों नहीं बढ़ पाई किसानों की आमदनी ?ज्यादा उत्पादन का फायदा किसानों को नहीं हो रहा।

यह किसी भी देश के नीति निर्माताओं के लिए खुशी की बात होती है कि उनके यहां तमाम खाद्य वस्तुओं का रिकार्ड उत्पादन हो। लेकिन भारत में किसानों के संदर्भ में यह उल्टा ही होता दिख रहा है। इस बार तीसरे अग्रिम अनुमानों में देश में 2016-17 में खाद्यान्‍न उत्‍पादन बढ़ कर 273 मिलियन टन, तिलहन उत्‍पादन 32.5 मिलियन मीट्रिक टन और गन्‍ना 306 मिलियन मीट्रिक टन आंका गया है। खादयान्न उत्पादन के अब तक के सारे रिकार्ड टूट गये हैं।

लेकिन इस बीच में देश के कई हिस्सों में किसानों ने आंदोलन किया। कई किसान संगठनों ने मिल कर फसलों का वाजिब दाम तय देने के लिए स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने और एकबारगी सारे खेतिहर कर्जों की माफी की मांग की है। खुद कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह मौजूदा मंडी व्यवस्था से संतुष्ठ नहीं हैं। हालांकि सरकार मंडी व्‍यवस्‍था को सुदृढ़ करने की दिशा में कुछ कदम उठा रही है और फसल कटाई के बाद की हानियों को रोकने के लिए भी कुछ दम उठे हैं। लेकिन 2022 तक किसानों की आय को दुगुना करने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए तमाम राज्यों को जिस ठोस रणनीति के तहत काम करने की जरूरत है उसमें तमाम खामियां दिख रही हैं।

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भारत सरकार मंडियों को खेतों के निकट तक लाने की योजना को जमीन पर उतारना चाहती है। परिवहन की लागत घटाने के साथ मजबूरी में उपज को एमएसपी से नीचे बेचने की घटनाओं को रोकने और बिचौलियों की भूमिका सीमित करने की दिशा में भी कुछ कदम उठे हैं लेकिन राज्यों की बेरूखी से इसमें खास लाभ दिख नही रहा है। यही कारण है कि चाहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश का गन्ना किसान हो या फिर मालवा का सोयाबीन किसान करीब सभी एक जैसी स्थिति में हैं।

यह ध्यान रखने की बात है कि किसानों की फसल आने और शादी-विवाह और त्यौहारों का मौसम करीब एक सा होता है। लेकिन हाथ में पैसा नही तो फिर कैसा समारोह। गन्ने की ही बात करें तो यह देश के पांच करोड़ किसानों के लिए लाइफलाइन है। देश में 13 मुख्य गन्ना उत्पादक राज्यों में 2017-18 के फसल वर्ष में 49.45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में गन्ने की बुवाई हो चुकी है। लेकिन अभी भी कई हिस्सों में गन्ना किसानों का 6506 करोड़ रुपए मिलों पर बकाया है।

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बसे अधिक 2730 करोड़ रुपए की राशि उत्तर प्रदेश में देनी है जबकि 1635 करोड़ रुपए का भुगतान तमिलनाडु में होना है। इस राशि में से 1073 करोड़ रुपए का किसानों का पैसा 2014-15 और उसके पहले का है। गन्ने का जो दाम सरकार तय करती है, उससे कम पर कोई मिल गन्ना नहीं खरीद सकती। लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि हर साल कई इलाकों में किसान औने-पौने दामों पर कोल्हुओं पर गन्ना बेचते हैं। और 14 दिनों में गन्ना किसानों को भुगतान देने का नियम अभी भी कागजों से बाहर नहीं निकल पाया है।

भारत सरकार का कृषि लागत और मूल्य आयोग यानि CACP फसलों के दाम तय करता है। गन्ने के भी मूल्य निर्धारण का पैमाना वही है जो धान या गेहूं का होता है। लेकिन समय पर दाम न मिलने के नाते कई इलाकों में गन्ने की खेती से किसानों का मोहभंग हो गया है। खेती की लागत बढ़ गयी और फायदा घट गया। करीब ऐसी ही दशा आलू की है जो कि देश की खाद्य सुरक्षा से जुड़ी अहम फसल है। बिना आलू के किसी का काम नहीं चलता। देश में बढती जरूरत के हिसाब से 12वीं योजना के अंत तक हमें 52 मिलियन टन आलू पैदा करने की जरूरत है। आलू एमएसपी के दायरे में नहीं आती और इसके किसानों की दशा बहुत खराब है। साल-दो साल पर आलू किसानों को अपना उत्पादन सड़क पर फेंकने की नौबत आ जाती है।

लंबे समय से किसान संगठन आलू को भी एमएसपी के दायरे में लाने की मांग कर रहे हैं लेकिन इस दिशा में ध्यान नहीं दिया जा सका है। इस बार भी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के साथ पंजाब में आलू किसानों को भारी संकट से गुजरना पड़ा है। उत्तर प्रदेश तो देश में आलू उत्पादन का 40-45 फीसदी पैदा करके पहले नंबर एक पर है। फर्रूखाबाद जिला तो कुल राष्ट्रीय उत्पादन का 11 फीसदी आलू पैदा करता है। लेकिन जनवरी-फरवरी में आलू खुदाई के समय आलू की कीमतें पाताल चली जाती हैं और किसानों को लागत निकालना कठिन हो जाता है। अप्रैल के बाद से कीमतें बढते हुए जून जुलाई तक दोगुनी हो जाती हैं। आलू के धंधे में बिचौलियों और कोल्ड स्टोरेज के संचालकों का राज कायम है। वहीं किसान बेहाल हो रहे हैं।

आलू सा हाल प्याज का है। हर साल-दो साल पर प्याज किसानों की तबाही सुखियां बनती है। प्याज 80 रुपए किलो हो जाये या 40 रुपए लेकिन किसानों को नाममात्र दाम मिलना है। प्याज की उपज और उपयोग करीब बराबर है इस नाते यह बेहद संवेदनशील फसल है। दाम बहुत नीचे गिर गए तो मंडी हस्तक्षेप के तहत नेफेड प्याज खरीदती है लेकिन तब तक बिचौलिए किसानों को लूट चुके होते हैं।

किसान। फाइल फोटो

अनाजों के बाद सबसे ज्यादा उपज तिलहन की होती है। देश तिलहन में विदेशी आयात पर निर्भर है। तिलहनों का वाजिब दाम न मिलने के नाते किसानों में अधिक उत्साह नहीं जग रहा है। हम भारी मात्रा में खाद्य तेल विदेश से मंगाते हैं। तिलहन एमएसपी के दायरे में है लेकिन उसकी खरीद का तंत्र अधिकतर राज्यों में बहुत कमजोर है। हाल के सालों में भरतपुर, धौलपुर और मुरैना जैसे इलाकों में सरसों क्रांति को सबने देखा है। जब सरसों की बंपर पैदावार होती है तो उसके दाम इतने नीचे चले जाते हैं कि किसान ठगा रहता है।

यही हालत जूट किसानों की है जो एमएसपी के दायरे में है। लेकिन इसकी खेती में लगे किसानों की दिक्कतें अलग हैं। जूट वस्त्र मंत्रालय के तहत है जिसकी संस्था जूट कारपोरेशन आफ इंडिया ही किसानों से जूट खरीदता है। जूट का अधिक उत्पादन होने पर कीमतें एमएमपी से नीचे आती रहती हैं। भारत सरकार ने जूट पैकेजिंग अधिनियम 1987 के तहत अनाज और चीनी के लिए जूट बैग का उपयोग अनिवार्य किया हुआ है लेकिन हकीकत में प्लास्टिक बैग का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है।

यह अलग बात है कि हमारे नीति निर्माता दशकों से किसानों को अन्नदाता कहते आए हैं और उनके लिए बनी सरकारी योजनाओं में राहत देने के लिए बहुत कुछ है। किन आज हालत यह है कि सबको अन्न देने और तन ढकने वाले किसान खुद भूखे और बेहाल हैं। वे कम पैदा करें तो मुसीबत और अधिक पैदा करें तो अधिक मुसीबत। मसला कपास का हो या गन्ने का, रबड़ का हो या फिर जूट का, हरेक उत्पाद किसान वाजिब दाम न मिलने की शिकायत कर रहा है। आलू, प्याज और टमाटर तो सड़को पर फेंकने की मजबूरी है। कहने को उनकी रक्षा के लिए 25 फसलो पर न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी से संरक्षण है। लेकिन यह खरीद चंद राज्यों तक ही सीमित है।

भारत सरकार या राज्य सरकारें खेती के इस संकट से अनजान हों ऐसी बात भी नहीं है। संसद में करीब हर सत्र में और राज्यों के विधान मंडलों में कृषि संकट को लेकर सांसद और विधायक तथ्यों के साथ अपनी बातें रखते हैं। मीडिया में उनकी बदहाली समय समय पर उजागर होती रहती है। तमाम किसान मौत को गले लगा रहे हैं।

कृषि विशेषज्ञों की राय है कि किसानों की बुरी दशा की असली जड़ कृषि मूल्य नीति है, जिसे बदलने की जरूरत है। किसान संगठन एमएसपी और सरकारी खरीद दोनों से असंतुष्ट हैं और कई बार यूपीए और एनडीए शासन में आंदोलन भी कर चुके हैं। आज हरियाणा, पंजाब, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश जैसे चंद राज्यों को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में एमएसपी पर खरीद का सलीके का तंत्र भी नहीं बन पाया है। इस नाते सबसे पहले तो यह जरूरी है कि सरकार अनाज खरीदे और किसानों को सही दाम मिले। कम से कम किसान को उतनी आय तो होनी ही चाहिए कि वह ढंग से कपड़े पहन सके और बच्चों को स्कूल भेजने के साथ भरपेट भोजन कर सके।

भारत सरकार ने कृषि मूल्य नीति 1985-86 बनायी थी जिसके तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद को सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी माना गया था। लेकिन यह तंत्र गेहूं और धान जैसी फसलों और इधर दो सालो से दालों से आगे बढ़ नही सका। एमएसपी से किसानों को कुछ गारंटी मिली है यह सही बात है, लेकिन जो फसलें एमएसपी के दायरे में नहीं उसके किसान भारी अनिश्चितता के शिकार है। उसमें भी 85 फीसदी छोटे किसानों की दशा और दयनीय है, जिनके पास आधा हैक्टेयर से कम कृषि भूमि है। एक हेक्टेयर जमीन में सालाना 30,000 रुपए की कृषि उपज होती है। इतनी भूमि में किसान सब्जी भी उगाएं तो भी गुजारा सहज नहीं।

इस तस्वीर के बाद भी भारतीय किसानों ने दुनिया में झंडे गाड़ दिए हैं। कम उत्पादकता के बावजूद चीन के बाद भारत सबसे बडा फल औऱ सब्जी उत्पादक बन गया है। चीन और अमेरिका के बाद यह सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश है। बीते पांच दशको में गेहूं उत्पादन 9 गुना और धान उत्पादन तीन गुना बढ़ गया है।

लेकिन यह ध्यान रखने की बात है कि खेती की लागत भी लगातार बढ रही है। इसी नाते किसान संगठन लंबे समय से 1969 को आधार वर्ष मानते हुए फसलों का दाम तय करने की वकालत कर रहे हैं। राजीव गांधी के प्रधान मंत्री काल में नयी कृषि मूल्य नीति मूल्य नीति बनी, जबकि 1990 में वीपी सिंह सरकार ने सी.एच.हनुमंतप्पा कमेटी बनायी। बाद में यूपीए एक में स्वामिनाथन आयोग बना। इन आयोगों और समितियों ने कई अहम सिफारिशें की हैं, लेकिन इसका खास नतीजा नहीं निकल पाया है।

कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिश पर भारत सरकार 25 फसलों की एमएएसपी घोषित करती है। उसका दावा है कि इसके तहत कवर की गयी फसलों का योगदान करीब 60 फीसदी है। शेष बची 40 फीसदी फसलों जिनमें अन्य जिसें और बागवानी उत्पादन हैं, उनको कोई पूछने वाला भी नही है। जब एमएसपी की फसलें ही बदहाल हैं तो जो बाहर हैं, उनकी दशा समझी जा सकती है।

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हमारे नीति निर्माता दशकों से सरकारों के समक्ष यह मसला उठाते रहे हैं। भारत में पहली बार अंग्रेजी राज में तीस के दशक में उत्तर प्रदेश विधान परिषद में कृषि उपजों के वाजिब दाम का मसला उठा। पंजाब में चौधरी सर छोटूराम ने कर्जों पर अध्ययन कराया और पाया कि इसका मुख्य कारण खेती पर सरकारी लगान और कृषि जिन्सों का वाजिब दाम न मिलना है। किसानों को कर्जे से छुटकारा तभी मिलेगा, जब सरकार कृषि लागत से तीन गुना लाभ जोड़कर एमएसपी दे। आजादी के बाद भारत सरकार ने कई उपाय किए लेकिन कृषि विकास का दारोमदार जिन राज्यों पर था उनमें बहुत कम ऐसी रहीं जिसने कृषि विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी।

आज भी हमारा 60 फीसदी इलाका मानसून पर निर्भर है फिर भी यह कुल खाद्य उत्पादन में 40 फीसदी योगदान देता है। इसी इलाके में 88 फीसदी मोटा अनाज, 87 फीसदी दलहन, 48 फीसदी चावल और 28 फीसदी कपास पैदा हो रहा है। हमारी असली सब्सिडी सिंचित इलाकों को ही मिल रही है। इसी नाते गैर सिंचित इन इलाकों में आत्महत्याएं हो रही हैं।

लेकिन सवाल केवल अन्न उत्पादक किसानों का ही नहीं है। जो किसान पशुपालन में आर्थिक आधार खोज रहे हैं, उनकी दशा भी कोई बेहतर नहीं है। इसी नाते पशुपालन, डेयरी और मात्सियकी विभाग की अनुदान मागों से संबंधित चौबीसवे प्रतिवेदन में कृषि संबंधी स्थायी संसदीय समिति ने सरकार से दूध का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने पर विचार करने की सिफारिश की। समिति की राय में पशु आहार और चारे की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी के बावजूद डेयरी उत्पादों को अच्छी कीमत नहीं मिल रही है।

बेशक आज भारत दूध उत्पादन में दुनिया में नंबर एक है और देश में दूध का योगदान दो लाख करोड़ रुपए से कम नहीं है। वहीं धान का योगदान एक लाख चालीस हजार करोड़ रुपए से कम है।

कुछ किसान संगठन किसानो की सुनिश्चित आय के लिए किसान आय आयोग के गठन की मांग कर रहे हैं। उनका कहना था कि यदि किसानों को खेती से सुनिश्चित आय प्राप्त हो तो खेती की उत्पादकता बढ जाएगी तथा सरकार का खर्च भी कम होगा। इसके लिए सरकार को एक राष्ट्रीय किसान आय गारंटी अधिनियम लाना चाहिए जिसके द्वारा कृषि मजदूरों, बटाई पर खेती करने वालों के साथ कृषक परिवारों के सम्पूर्ण जीवन के लिए न्यूनतम आय निर्धारित होनी चाहिए।

हमारे देश में गोदामों और भंडारण सुविधाओं की भारी कमी है। हमारी जरूरतों के लिहाज से 12वीं योजना के आखिर तक 3.5 करोड़ टन भंडारण क्षमता की दरकार है, लेकिन भंडारण क्षमता की कमी के नाते चालीस फीसदी सरकारी अनाज को गैर पेशवर तरीके से रखना पड़ता है। हमें अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए 612 लाख टन चावल और गेहूं की जरूरत है। इतनी भारी जरूरत पूरी होती रहे इसके लिए जरूरी है कि रिकार्ड उत्पादन करने पर किसानों के चेहरों पर तनाव की जगह मुस्कराहट लाने के सभी संभव उपाय किए जायें।

      

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