चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करना पड़े, जायज़ है

Dr SB Misra | Jan 28, 2017, 12:45 IST
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क़ौमी एकता दल का मायावती ने अपनी बहुजन समाज पार्टी में विलय कर लिया। यह वही दल है जिसके कारण समाजवादी पार्टी में कड़वाहट का आरम्भ हुआ था, चाचा भतीजे के रिश्तों में खटास आई थी। अंसारी को एक बार अपनी पार्टी से निकालने वाली मायावती ने उन्हें अब निर्दोष बताकर पूरे परिवार को टिकट दे दिया।

इसी तरह समाजवादी पार्टी के कर्ताधर्ता यह नहीं सोचते कि कांग्रेस विरोध उस दल का हमेशा प्रयास रहा है लेकिन उसी से गठबंधन में कोई आपत्ति नहीं और भारतीय जनता पार्टी भी सभी को स्वीकार करने के लिए तैयार है किसी की पृष्ठभूमि और विचारधारा से कोई एतराज नहीं।

यही हाल उनका है जो दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि कल तक उस दल के लिए क्या कहा था जिसे अब अपना रहे हैं। बसपा के पुराने नेता स्वामी प्रसाद मौर्य जो नेता विरोधी दल थे उत्तर प्रदेश विधानसभा में और पानी पी पी कर भाजपा को साम्प्रदायिक कहते थे उन्हें भाजपा में जाने में कोई तकली़फ़ नहीं हुई। नवजोत सिंह सिद्धू जो कांग्रेस के लिए क्या नहीं कहते थे, अब उसी कांग्रेस में जाकर बैठ गए। महाराष्ट्र में 32 साल तक एक साथ काम करने के बाद शिवसेना और बीजेपी अलग हो रहे हैं तो शरद पवार को बीजेपी के साथ आने के लिए तैयार बैठे हैं।

चुनाव जीतने के लिए आसमान के तारे तोड़ लाने की घोषणा करने में कोई संकोच नहीं। देश का पैसा खैरात में बांटने में कोई हिचक नहीं। कम्बल, शराब, टीवी, लैपटाप, स्मार्टफोन, साइकिल, साड़ी, बच्चों के कपड़े और न जाने क्या क्या सामान खैरात में बांटने की बात करते हैं और बांटते हैं। खैरात लेने वाले यह नहीं सोचते क्या यह सब बांटने वालों की जागीर है जो बांट रहे हैं। गाड़ियों में भर कर नोट ले जाते हैं बांटने के लिए जनता को पूछना चाहिए यह लाए कहां से।

कश्मीर में अफ़जल गुरू और बुरहान से सहानुभूति रखने वाली पीडीपी के साथ काम करने में न तो कांग्रेस को तकलीफ़ है और न भाजपा को। एक दूसरे की आलोचना करते हैं जब दूसरी पार्टी मिलकर सरकार चलाती है। केरल में मुस्लिम लीग के साथ काम करने और सरकार चलाने में कांग्रेस को कोई तकलीफ नहीं और बिहार में जयप्रकाश नारायण के चेलों के साथ काम करने में भी कांग्रेस को कोई कष्ट नहीं। कहां गए वे लोग जिनके लिए सिद्धान्तों के लिए जीना और सिद्धान्तों के लिए मरना हुआ करता था। कहां गईं वो पार्टियां जो नीति और सिद्धान्तों के आधार पर बनती और चलती थीं।

आयाराम गयाराम भी देशहित का बहाना बताकर दल बदलते रहते हैं। कांग्रेस में यह हमेशा से होता आया है लेकिन भारतीय जनता पार्टी में दलबदल कुछ कम होता रहा है। गुजरात में शंकर सिंह बघेला, मध्यप्रदेश के सकलेचा, उत्तर प्रदेश के कल्याण सिंह दल बदल के कुछ उदाहरण हैं। शायद देशहित की परिभाषा बदल गई है। कुछ समय तक प्रान्तीय हित ही देशहित था फिर जाति का हित देशहित बन गया। अब परिवार हित बना रहे तो हो गया देशहित। अब तो स्वार्थ के लिए परिवार भी टूट और बिखर रहे हैं। आखिर ये लोग राजनीति करते क्यों और किसके लिए हैं, समाज को किधर ले जाना चाहते हैं।

उत्तर प्रदेश में कम से कम अखिलेश यादव ने सिद्धान्त का सहारा लिया और परिवार तथा जाति से ऊपर उठकर काम करने का प्रयास किया था लेकिन कांग्रेस में उन्हें भी अच्छाइयां दिखाई पड़ गईं जो पार्टी के संस्थापक नेताजी मुलायम सिंह को नहीं दिखी थी। शायद यह सोच कर कि चुनाव जीतना आसान होगा, भाजपा को हराने के लिए मुस्लिम वोट कांग्रेस के माध्यम वे मिल जाएंगे। अब न तो कोई दक्षिणपंथी है और न कोई वामपंथी सब स्वार्थपंथी बन चुके हैं । सब का एक ही लक्ष्य है चुनाव जीतना और सरकार चलाना।

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