भाषा और धर्म की विविधता ने भारतीय जनमानस की सोच को विभाजित कर दिया
Dr SB Misra | Jul 09, 2025, 17:55 IST
भाषा और धर्म की विविधता भारत की सांस्कृतिक संपदा है, लेकिन यही विविधता कभी-कभी समाज को विभाजित भी करती है। मराठा मानुष की राजनीति से लेकर दक्षिण भारत में हिंदी विरोध तक, और यूरोप तथा कनाडा के भाषाई संघर्षों के संदर्भ में भारत की एकता पर विचार करने की ज़रूरत है। क्या भारत में एक साझा राष्ट्रभाषा संभव है? और क्या भाषाई असहिष्णुता भविष्य में भारत की अखंडता के लिए खतरा बन सकती है?
महाराष्ट्र में मराठी मानुष कहने वाले मनसे के लोग बहुत ही विघटनकारी व्यवहार कर रहे हैं। कुछ लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे। मराठा मानुष का सम्मान सारा देश करता है, इसलिए नहीं कि वे मराठी हैं, बल्कि इसलिए कि वे छत्रपति शिवाजी और बाल गंगाधर तिलक की संतानें हैं, केशव बलिराम हेडगेवार के वंशज हैं और विट्ठल को मानने वाले हैं। डॉक्टर हेडगेवार ने जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी, तब उनका नजरिया मराठी न होकर राष्ट्रीय था। इसके बाद संघ के सभी सरसंघचालक चाहे सदाशिव गोलवलकर हों, बाला साहब देवरस हों या अन्य, सब महाराष्ट्र से ही थे। केवल प्रोफेसर राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) को छोड़ दें तो शेष सब महाराष्ट्र से थे।
छत्रपति शिवाजी के अनुयायी केवल मराठा मानुष नहीं थे और न ही संघ के स्वयंसेवक केवल मराठी थे। वे देश के कोने-कोने से आए हुए लोग थे और अखिल भारतीय दृष्टिकोण रखते थे। यह समझ से परे है कि जो लोग स्वयं को "मराठा मानुष" कहने से नहीं थकते, वे वास्तव में चाहते क्या हैं? क्या वे महाराष्ट्र में गैर-मराठी लोगों को नहीं रहने देना चाहते? या फिर जो कोई भी महाराष्ट्र जाए, वह मराठी भाषा सीखकर ही जाए?
देश का विभाजन हो चुका है। यदि धर्म का भेद न होता तो शायद भारत का एक टुकड़ा कटकर पाकिस्तान न बनता। भाषा ने भी भारतीय जनमानस को 60 के दशक में बहुत उद्वेलित किया था। तब उत्तर और दक्षिण की भाषाओं के अंतर ने भेद पैदा किया था। मुझे याद है जब मैं कुमाऊं विश्वविद्यालय के भू-विज्ञान के 40 छात्रों को लेकर तमिलनाडु के मद्रास रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने गया था, तब विंडो के पीछे बैठा क्लर्क मुझे कड़क आवाज में पूछ रहा था, "डॉन यू नो?" अर्थात क्या तुम तमिल नहीं जानते? क्योंकि मैं उससे अंग्रेज़ी में बात कर रहा था।
यह संभव नहीं है कि जो व्यक्ति उसके प्रांत की भाषा नहीं जानता, वह वहां न जा सके। उस समय राष्ट्रभाषा बनाने का सवाल था। कितना अजीब है कि दुनिया में भारत शायद अकेला देश होगा जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है और हिंदी व अंग्रेज़ी यह जिम्मेदारी निभा रही हैं। यदि भाषाई सहनशीलता समाप्त हो जाए तो शायद भारत एक देश के रूप में नहीं टिक सकेगा और असम, बंगाल, उड़ीसा, आंध्र, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक जैसे राज्य अलग देश बन सकते हैं।
60 के दशक में जब देश में भाषाई विवाद चल रहा था तब मैं कनाडा गया हुआ था। वहां दो भाषाएं थीं: क्यूबेक की फ्रेंच और शेष कनाडा की अंग्रेज़ी। उस समय फ्रांस के राष्ट्रपति थे चार्ल्स डी गॉल और क्यूबेक प्रांत में फ्रांसीसी राष्ट्रीयता का बोध अंगड़ाई ले रहा था। क्यूबेक में काफी तनाव था। वहां के लोगों को आश्चर्य होता था कि भारत में अनेक भाषाएं होते हुए भी हम एक देश बने हुए हैं। जबकि उनके प्रांत की अलग भाषा होने के कारण वे अलग होना चाहते थे। बाद में वह सब शांत हो गया। उस समय क्यूबेक के लोगों का नारा था: "वी क्यूबेक लिब्रे।"
हमारे देश में धर्मों में अंतर होते हुए भी हिंदी और उर्दू के बीच केवल लिपि का अंतर है। उर्दू का अपना अलग व्याकरण नहीं है, वह हिंदी व्याकरण के आधार पर ही काम करती है। यदि उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो एक बड़ा हिंदू समाज, जो पर्शियन लिपि नहीं जानता, उर्दू साहित्य तक पहुंच सकेगा। हिंदी-उर्दू साहित्य अलग-अलग परिस्थितियों में रचे गए हैं, इसलिए वे एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि शायद मुस्लिम समाज पर्शियन लिपि को छोड़ने को तैयार नहीं होगा। शायद कुछ लोगों को पता हो कि आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय रहे तैयब जी ने कुछ ऐसा ही सुझाव दिया था।
हिंदी और अंग्रेज़ी के संदर्भ में उस समय के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने दक्षिण भारतीयों से वादा किया था कि अंग्रेज़ी तब तक बनी रहेगी जब तक वे चाहेंगे। इसका परिणाम यह हुआ कि राजगोपालाचारी द्वारा शुरू की गई हिंदी प्रचारिणी सभा की गतिविधियां शिथिल पड़ गईं। मुझे नहीं लगता कि दक्षिण भारत में लोकतांत्रिक ढंग से हिंदी की स्वीकार्यता संभव है। हां, यदि इंदिरा गांधी चाहतीं तो एक राष्ट्रभाषा लागू कर सकती थीं — यह उनका महानतम योगदान होता, लेकिन उनका लक्ष्य कुछ और था।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि रूस, जर्मनी, फ्रांस, चीन और जापान जैसे देश अपनी-अपनी भाषाओं में शोध कर रहे हैं और अंग्रेज़ी से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। लेकिन यह तर्क अब भारत पर लागू नहीं होता। अगर आज़ादी के तुरंत बाद प्रयास किया गया होता, जैसा दक्षिण भारत में राजा जी ने किया था, तो आज पूरा देश हिंदी समझने और शायद स्वीकार करने लगा होता। यह सही है कि मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मातृभाषा में पढ़ाई बच्चों की समझ को बेहतर बनाती है।
भारत की भाषाई जटिलता का कुछ समाधान तो निकालना ही होगा। नहीं तो महाराष्ट्र के मनसे जैसे संगठन देश में उपद्रव कर अस्थिरता फैलाते रहेंगे।
कई बार लगता है कि राज्यों की भाषा के आधार पर रचना ठीक नहीं थी। भाषाई आधार पर राज्यों का विभाजन काफी संघर्षपूर्ण रहा है। पहले गुजरात और महाराष्ट्र एक ही प्रांत थे, फिर संघर्ष के बाद गुजराती भाषा के लिए अलग प्रांत बना। तमिलनाडु और आंध्र भी एक ही प्रांत थे, बाद में उन्हें तमिल और तेलुगू के आधार पर बांटना पड़ा। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल; मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ भी ऐसे ही विभाजित हुए। गोविंद बल्लभ पंत ने इन प्रांतों को वर्तमान स्वरूप में नहीं बनाया था। पूर्वोत्तर भारत में भी भाषाई आधार पर नए प्रांत बने। उत्तर प्रदेश का विभाजन कर उत्तराखंड बना — हालांकि उस समय कोई संघर्ष नहीं हुआ क्योंकि दोनों हिंदी भाषी थे।
जहां भारत की भाषाई विविधता एक सच्चाई है, वहीं यह भी सच है कि अनेक भाषाएं संस्कृत से जन्मी हैं। इसलिए कोई उपाय होना चाहिए जिससे भाषाओं में तारतम्य, सामंजस्य और सह-अस्तित्व संभव हो सके। यह काम भाषाविदों का है, आम जन इसका समाधान नहीं निकाल सकता। मुझे याद है 60 के दशक में जब भाषाई उपद्रव चल रहे थे तो बंगाल के एक मित्र ने कहा था, "आप लोग हिंदी के पीछे क्यों पड़े हैं? अगर हिम्मत है तो संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाइए, बहुत से प्रांत इसे स्वीकार कर लेंगे।" यद्यपि मैं जानता हूं कि यह व्यवहारिक नहीं है। लिपि भी एक बड़ी रुकावट है, लेकिन मराठी और हिंदी दोनों देवनागरी में लिखी जाती हैं और गुजराती की लिपि भी उससे मिलती-जुलती है। आवश्यकता इस बात की है कि कोई ऐसा रास्ता निकले जिससे विभिन्न भाषाओं के लोग एक व्यावहारिक समाधान तक पहुंच सकें।
छत्रपति शिवाजी के अनुयायी केवल मराठा मानुष नहीं थे और न ही संघ के स्वयंसेवक केवल मराठी थे। वे देश के कोने-कोने से आए हुए लोग थे और अखिल भारतीय दृष्टिकोण रखते थे। यह समझ से परे है कि जो लोग स्वयं को "मराठा मानुष" कहने से नहीं थकते, वे वास्तव में चाहते क्या हैं? क्या वे महाराष्ट्र में गैर-मराठी लोगों को नहीं रहने देना चाहते? या फिर जो कोई भी महाराष्ट्र जाए, वह मराठी भाषा सीखकर ही जाए?
देश का विभाजन हो चुका है। यदि धर्म का भेद न होता तो शायद भारत का एक टुकड़ा कटकर पाकिस्तान न बनता। भाषा ने भी भारतीय जनमानस को 60 के दशक में बहुत उद्वेलित किया था। तब उत्तर और दक्षिण की भाषाओं के अंतर ने भेद पैदा किया था। मुझे याद है जब मैं कुमाऊं विश्वविद्यालय के भू-विज्ञान के 40 छात्रों को लेकर तमिलनाडु के मद्रास रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने गया था, तब विंडो के पीछे बैठा क्लर्क मुझे कड़क आवाज में पूछ रहा था, "डॉन यू नो?" अर्थात क्या तुम तमिल नहीं जानते? क्योंकि मैं उससे अंग्रेज़ी में बात कर रहा था।
यह संभव नहीं है कि जो व्यक्ति उसके प्रांत की भाषा नहीं जानता, वह वहां न जा सके। उस समय राष्ट्रभाषा बनाने का सवाल था। कितना अजीब है कि दुनिया में भारत शायद अकेला देश होगा जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है और हिंदी व अंग्रेज़ी यह जिम्मेदारी निभा रही हैं। यदि भाषाई सहनशीलता समाप्त हो जाए तो शायद भारत एक देश के रूप में नहीं टिक सकेगा और असम, बंगाल, उड़ीसा, आंध्र, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक जैसे राज्य अलग देश बन सकते हैं।
60 के दशक में जब देश में भाषाई विवाद चल रहा था तब मैं कनाडा गया हुआ था। वहां दो भाषाएं थीं: क्यूबेक की फ्रेंच और शेष कनाडा की अंग्रेज़ी। उस समय फ्रांस के राष्ट्रपति थे चार्ल्स डी गॉल और क्यूबेक प्रांत में फ्रांसीसी राष्ट्रीयता का बोध अंगड़ाई ले रहा था। क्यूबेक में काफी तनाव था। वहां के लोगों को आश्चर्य होता था कि भारत में अनेक भाषाएं होते हुए भी हम एक देश बने हुए हैं। जबकि उनके प्रांत की अलग भाषा होने के कारण वे अलग होना चाहते थे। बाद में वह सब शांत हो गया। उस समय क्यूबेक के लोगों का नारा था: "वी क्यूबेक लिब्रे।"
हमारे देश में धर्मों में अंतर होते हुए भी हिंदी और उर्दू के बीच केवल लिपि का अंतर है। उर्दू का अपना अलग व्याकरण नहीं है, वह हिंदी व्याकरण के आधार पर ही काम करती है। यदि उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो एक बड़ा हिंदू समाज, जो पर्शियन लिपि नहीं जानता, उर्दू साहित्य तक पहुंच सकेगा। हिंदी-उर्दू साहित्य अलग-अलग परिस्थितियों में रचे गए हैं, इसलिए वे एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि शायद मुस्लिम समाज पर्शियन लिपि को छोड़ने को तैयार नहीं होगा। शायद कुछ लोगों को पता हो कि आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय रहे तैयब जी ने कुछ ऐसा ही सुझाव दिया था।
हिंदी और अंग्रेज़ी के संदर्भ में उस समय के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने दक्षिण भारतीयों से वादा किया था कि अंग्रेज़ी तब तक बनी रहेगी जब तक वे चाहेंगे। इसका परिणाम यह हुआ कि राजगोपालाचारी द्वारा शुरू की गई हिंदी प्रचारिणी सभा की गतिविधियां शिथिल पड़ गईं। मुझे नहीं लगता कि दक्षिण भारत में लोकतांत्रिक ढंग से हिंदी की स्वीकार्यता संभव है। हां, यदि इंदिरा गांधी चाहतीं तो एक राष्ट्रभाषा लागू कर सकती थीं — यह उनका महानतम योगदान होता, लेकिन उनका लक्ष्य कुछ और था।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि रूस, जर्मनी, फ्रांस, चीन और जापान जैसे देश अपनी-अपनी भाषाओं में शोध कर रहे हैं और अंग्रेज़ी से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। लेकिन यह तर्क अब भारत पर लागू नहीं होता। अगर आज़ादी के तुरंत बाद प्रयास किया गया होता, जैसा दक्षिण भारत में राजा जी ने किया था, तो आज पूरा देश हिंदी समझने और शायद स्वीकार करने लगा होता। यह सही है कि मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मातृभाषा में पढ़ाई बच्चों की समझ को बेहतर बनाती है।
भारत की भाषाई जटिलता का कुछ समाधान तो निकालना ही होगा। नहीं तो महाराष्ट्र के मनसे जैसे संगठन देश में उपद्रव कर अस्थिरता फैलाते रहेंगे।
कई बार लगता है कि राज्यों की भाषा के आधार पर रचना ठीक नहीं थी। भाषाई आधार पर राज्यों का विभाजन काफी संघर्षपूर्ण रहा है। पहले गुजरात और महाराष्ट्र एक ही प्रांत थे, फिर संघर्ष के बाद गुजराती भाषा के लिए अलग प्रांत बना। तमिलनाडु और आंध्र भी एक ही प्रांत थे, बाद में उन्हें तमिल और तेलुगू के आधार पर बांटना पड़ा। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल; मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ भी ऐसे ही विभाजित हुए। गोविंद बल्लभ पंत ने इन प्रांतों को वर्तमान स्वरूप में नहीं बनाया था। पूर्वोत्तर भारत में भी भाषाई आधार पर नए प्रांत बने। उत्तर प्रदेश का विभाजन कर उत्तराखंड बना — हालांकि उस समय कोई संघर्ष नहीं हुआ क्योंकि दोनों हिंदी भाषी थे।
जहां भारत की भाषाई विविधता एक सच्चाई है, वहीं यह भी सच है कि अनेक भाषाएं संस्कृत से जन्मी हैं। इसलिए कोई उपाय होना चाहिए जिससे भाषाओं में तारतम्य, सामंजस्य और सह-अस्तित्व संभव हो सके। यह काम भाषाविदों का है, आम जन इसका समाधान नहीं निकाल सकता। मुझे याद है 60 के दशक में जब भाषाई उपद्रव चल रहे थे तो बंगाल के एक मित्र ने कहा था, "आप लोग हिंदी के पीछे क्यों पड़े हैं? अगर हिम्मत है तो संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाइए, बहुत से प्रांत इसे स्वीकार कर लेंगे।" यद्यपि मैं जानता हूं कि यह व्यवहारिक नहीं है। लिपि भी एक बड़ी रुकावट है, लेकिन मराठी और हिंदी दोनों देवनागरी में लिखी जाती हैं और गुजराती की लिपि भी उससे मिलती-जुलती है। आवश्यकता इस बात की है कि कोई ऐसा रास्ता निकले जिससे विभिन्न भाषाओं के लोग एक व्यावहारिक समाधान तक पहुंच सकें।